Sunday, February 23, 2014

ज़ख़्मी नज़्म

कल एक ज़ख़्मी नज़्म मिली ,कागज पे औंधे पड़ी हुई |


टूटे फूटे अशारों से अभी भी रिस रहे थे मानी  ,(मानी =अर्थ )
घुटने छिले हुए थे लफ़्ज़ों के ,
ऊँगली से छू भी दो चींखती थी नज़्म |


पर पास जाकर देखा तो वो  नज़्म नहीं थी
किसी का अनकहा ,नाजायज दर्द था शायद |
अपना नहीं सकता था तो यूँ ,
नज़्म के लिबास में रखकर फेंक गया |
बिना ये सोचे कि वक़्त ज़रा भी तरस नहीं खायेगा ,इसका जिस्म  नोंच खाने में |


सहते सहते मर गयी वो नज़्म !!!!!!


मैंने डायरी में वहीँ दफना दिया इसे भी ,
जहाँ तुम पर लिखी बाकी नज्में सोती हैं |
डायरी पढ़ते पढ़ते तुम गुज़रना कभी इसकी कब्र से,
तो रोना मत |
नज्में जाग जाती है आंसुओं की आहट से |
                       -अनजान पथिक
                       (निखिल श्रीवास्तव )


Wednesday, January 15, 2014

जलना सीख रहा हूँ मैं

भीड़ भरी दुनिया में ,तनहा चलना सीख रहा हूँ मैं ||
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

देख बहारों के रस्ते ही ,
कितने तो मौसम बीते ,
जीवन के जितने भी घट थे ,
रह गये सब के सब रीते ,
तुमने फिर भी देख फलक को ,बारिश की ही आस गढ़ी,
मेरी बादल को धरती पे रख देने की प्यास बढ़ी,   
तुम जीवन को कूप बनाकर ,बारिश के आसार जगाओ ,
मेघा बनकर खुद सावन में ,झरना सीख रहा हूँ मैं |
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

धूप के बाजारों में बिकती छाँव,
तो जाकर लानी होगी ,
पीर में कैसे चल पाते हैं पाँव ,
अदा दिखलानी होगी 
टुकड़ा टुकड़ा मोम है मेरा,पिघलूँगा मैं जीवन सारा 
दीपक हूँ तो ,कतरा कतरा सांस मुझे सुलगानी होगी ,
तुम सूरज से हाथ पसारे ,किरणों की फ़रियाद लगाओ 
अपने अंधेरों में जुगनूं ,बनना सीख रहा हूँ मैं |
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

सच का जंगल आग का दरिया,
बड़ा कठिन है जल जाना ,
और फरेब का दांचा सस्ता ,
बड़ा सरल है ढल जाना ,
पर वो राहें राह कहाँ ,जिनमें काँटों का स्वाद नहीं ,
फूलों का पथ उन्हें लुभाए ,जिनके मन फौलाद नहीं ,
तुम रेशम सी राह पकड़कर ,पग दो पग चल खुश हो जाओ 
चट्टानों को चीर के पर्वत चढ़ना सीख रहा हूँ  मैं |
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

  -अनजान पथिक 
                                                (निखिल श्रीवास्तव )

Saturday, November 30, 2013

सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें

Written something like a song after a long time ,
Special Thanks to Vishal O Sharma ji who gave me this beautiful piece to develop 
"सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||"
Maybe I didn't write it how it was meant to be but
After so many days I just went through these lines ,and here is what I tried .
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सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||
शाम से है आँखें धुंआ धुंआ,
तेरा एक ख्वाब है ,जो कबसे न जले||

हाथों की वो थपकियाँ ,
बातों के वो कहकहे ,
पलकों के सिरहानों पे ,
किस्से कुछ उलझे हुए ,

आँखों आँखों बोलना,
रूह से रूह टटोलना,
दिल के सब दरवाजों को,
बिन दस्तक के खोलना,

कितना कुछ है जैसे खो गया
जो गर तुम न मिलो तो कुछ भी न मिले ||
सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||

धूपें कुछ कहती नहीं ,
रातें चुप चुप हो गयी
कश्ती का वो क्या करे
मंजिल जिसकी खो गयी

राहों ने ही लिख दिए
खुदपर इतने फासले ,
मैं कहीं जलता रहूँ ,
तू कहीं जलती रहे

जिंदगी है जैसे धुन कोई ,
हैं जिसके साज़ सब ज़रा बिखरे हुए
सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||

-अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )
 — with Kavita Upadhyay and Vishal Om Prakash.

Monday, November 18, 2013

कितना अच्छा होता,काश !!

कितना अच्छा होता,काश !!


अपनी जिंदगी की हथेली की ,

किसी घुमावदार सी लकीर में ,

मैं लिख के छिपा देता तुमको - वक्त की मेहँदी से |

ताउम्र तुम रचती जाती मुझमें ||

-अनजान पथिक

 (निखिल श्रीवास्तव)

Saturday, September 14, 2013

इक खत


"माँ हिंदी ",
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सुनो न माँ.....
सच बताओ ..
तुम्हे ज़रा सा भी गुस्सा नहीं आता  ...
जब मैं खेलते खेलते  खीच लेता हूँ तुम्हारी चोटी ...
बन्दर की पूँछ समझ के ..,

उदास होता हूँ ....
और तुमसे बात भी नही करता ..
दिखाता हूँ झूठ -मूठ के  तेवर ...
तब भी तुम क्यों बैठी रहती हो मेरे पास ...
मेरे सिर पर प्यार से रखकर अपनी हथेलियाँ  ...

क्यों अपने आँचल में लिटाकर ..
मुझे भूलने देती हो मेरी सारी उलझनें ....
जबकि तुमको पता है ...
कि मैं शायद कभी नहीं समझ पाऊंगा ...
तुम्हारा किरदार ,
तुम्हारे सपने ,
तुम्हारी गहराइयाँ ...

मुझसे बिना कुछ मांगे ,बिना कुछ चाहे ...
क्यों मेरे तोतली ज़बां के किस्सों से लेकर..
मेरे इश्क की मीठी महक तक ...
तुमने सब कुछ संभाला ...सँवारा,
है अपने दिल में ...
अपने बच्चे की नन्ही शैतानियों और  खिलौनों की तरह...||

सच कहूँ तो 
मैं शायद कुछ न दे पाऊं तुमको कभी भी ...
पर फिर भी .... 
तुम हमेशा देती रहना ,मुझको  वो प्यारी सी  'झप्पियाँ '
जिनको पाते ही लगता है मुझे कि सारी दुनिया दुलार करती है मुझे ...
सारे चेहरे मुस्कराते है मुझे देखकर...||

मेरी जिस्म की मिट्टी ,और मेरे लहू की रवानगी
ये सब कुछ तुम्हारी ही परवरिश है माँ...
तुमको किताबों में पढूँ ,
किस्सों में सुनूं ,
या तारीखों  में समझूं ...
पता नही...
इक अंश भी नही समझ पाऊंगा तुम्हारा इक पूरी उम्र में 

मैं नही जानता कि तुम कितनी बड़ी ,कितनी पुरानी ,या कितनी गंभीर हो ...

मेरे लिए तुम बस 'माँ 'हो और हमेशा वही रहना ...||
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तुमको तुम्हारे दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं ...माँ
हम सबकी और से ढेर सारा प्यार ....
                                  
                                       -- हर वो बच्चा जो 'माँ हिंदी' की गोद में सोया ,जागा और खेला है ...||

Monday, September 9, 2013

"बहुत अच्छी है वो तुमसे" --


"बहुत अच्छी है वो तुमसे" --
सब कहते है ...||
बेशक, सच भी यही है .... |

"पर इबादत दो बराबर के लोगों में होती भी कब है ....??"

जहाँ तक जानता हूँ- ...
इबादत का सलीका है  ...
कि एक किरदार हो  जो इबादत करने का जूनून रखता हूँ ..--
- वो मैं हूँ...
और दूजा वो जो पूजे जाने की काबिलियत रखता हो ...
-वो तुम हो ...||

-मैं तो कब से कहता हूँ -"इश्क इबादत है" ..||

इश्क इस उम्मीद में नहीं होता --...
कि दो लोग रहेंगे किसी 'बैलेंस्ड तराज़ू' के दो पलडों कि तरह  .....
 
इश्क होता है इस यकीन पर ....
कि दो रूहें अगर रख  दी जायें ..
फलक के दो उलटे सिरों पे भी ....
तो फलक को  खुद सिमटना पड़ जायेगा उन्हें मिलाने के लिए .....

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कभी कभी मैं सोचता हूँ -
मैं खुद को खुश करने के लिए कितनी  अच्छी बातें करता रहता  हूँ ...

पर सच मुझे भी मालूम है -
कि सब सही कहते हैं ....
"वो मुझसे बहुत अच्छी है .."||
                                                       -अनजान पथिक 
                                                      (निखिल श्रीवास्तव )

Thursday, August 29, 2013

रात इक बच्ची ...

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रात की ये छोटी सी बच्ची ...
रोज चली आती  है मेरे पास  ....
तुम्हारे किस्से सुनने ...|

मैं भी ऊँगली थाम के इसकी ....
रोज दिखाने ले जाता हूँ...
वही बेमंजिल से ख्वाहिशों के किनारे ...
जो हमारे सपनों के दरिया से सटकर बहा करते हैं  ...
जिनपर हाथों में हाथ थामे हम  ..
मीलों से मीलों तक  ... 
सदियों सदियों चला करते हैं  ...||

उन किनारों पे बिखरी है गीली सी रेत...
जिसके दाने दाने पर लिखकर तुम्हारा नाम ...
मैं अमर कर आया था अपनी रूह की दीवानगी...

वक्त जब भी आता है ..
उन किनारों पर टहलने ..".खाली वक्त में ..."
तुम्हारे क़दमों के निशाँ , हैं जहाँ जहाँ भी  ..
वहाँ पे सजदे करता गुज़रता है ...||

मैं रात को बताता चलता हूँ ...
वो सारी बातें ...
जो मेरे तेरे बीच शायद कही कभी नहीं गयी ...
उन्हें  सुना गया बस ..फूल की खुशबू की तरह ..
और समझा गया शराब के नशे की तरह ..||

और आखिर में जब रात को भी आने लगती है नींद .
और वो मलने लगती है अपनी अधखुली आँखें ...
अँधेरे की नन्ही नन्ही उँगलियों से ...
मैं सुला देता हूँ उसे ...
उसके माथे पर देकर एक ठंडा सा बोसा..(बोसा =kiss)

वो सो जाती है मेरी आँखों में ही ... मेरी पलकों के नीचे ...

और मैं बंद करके अपनी आँखें 
ओढ़ लेता हूँ लिबास नींद का ..
क्योंकि सोने  से ही  शुरू होता  है ....
तेरे खवाबों में जागने का सफर  ..||

मैं निकल पड़ता हूँ ...फिर से 
तुम्हारे साथ ..उन्ही ख्वाहिशों के किनारों पे ...
जो सपनों के दरिया से सटकर बहा करते है 
जिनपर हाथों में हाथ थामे हम  ..
मीलों से मीलों तक .. 
सदियों सदियों चला करते हैं  ...||

क्योंकि 
रात की ये छोटी सी बच्ची ...रोज चली आती  है मेरे पास  ....
तुम्हारे किस्से सुनने ...
रोज रखना होता है मुझे एक बच्ची का दिल ..

क्योंकि बच्चे सच में होते है फ़रिश्ते 
और फरिश्तों का दिल तोडना अच्छा नहीं होता ..||

                                                       अनजान पथिक 
                                                     (निखिल श्रीवास्तव )