Wednesday, November 28, 2012

एक्स्ट्रा सिप


राह से गुज़रती धूप को ...
बालकनी के आवारा किनारे ,

आज भी ,कलाई पकड़कर खींच लेते है अपनी ओर ...

बाहर रखे गमले में दिख जाती हैं आज भी  ..
ओस का शॉवर लिए ठण्ड से कंपकंपाती ...
'गुलाब 'की नन्ही  मासूम पत्तियाँ ..||

सुनाई दे जाती हैं ...सुबह -सुबह 
हवा के संगीत पर गुनगुनाती
"विंड चाइम" की वही सुरमई छनकती सांसें ....

वो खिडकी पे बैठकर चहचहाने वाली गौरैया 
आज भी आती है, रोजाना 
एक अनजानी रस्म निभाने ....

जब तक मैं न्यूज्पपेर पढता हूँ ...
उठता रहता है धुआं ..
सामने मेरी कॉफी के कप से ...
और उठती रहती है ,
पुराने लम्हों के प्यालों से ..
महकती यादों की खुशबू ....||

सब कुछ वैसा ही होता है एकदम ..
जैसा तब भी होता था ...
जब तुम साथ होते थे ..||

बस जो नहीं होता ...वो ये ..
कि अब कोई न्यूज्पपेर छीन कर ,
मेरी कॉफी से "दो सिप" लेते हुए   ,
शरारतन  ,हक जताकर ,ये नहीं कहता ...-- ...
" न्यूज़ अभी ही जरुरी है क्या ,
        मुझसे बात नही कर सकते ..... !!"
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अब जब भी कॉफी की वो दो "एक्स्ट्रा " सिप लेता हूँ ..
जुबां पे जैसे, तेरे होठों का स्वाद आ जाता  है ......
सच में,वो दिल हो या जुबां .....
तू और तेरा एहसास दोनों ही ..
इतने मीठे है ., भुलाये नहीं भूलते ...||

                                            -अनजान पथिक 

Thursday, November 1, 2012

नाम ..



ये जो तेरे होठों पे काँपता सा है न कुछ ...
इसे गिरने न देना ...
एहसासों की नरम हथेली पे धीरे से, संभाल के रखना ..
और यादों के मीठे पानी संग, बरसों ..चखना ...
गर फिर ऊब जाओ कभी जो इसकी महक से ..
लगे कि, जायका फीका पड़ गया है ..
या इसके ज़िक्र से पुरानेपन की बू आने लगे ...
तो फेंकना मत ,
बस इतना करना ...किसी कलावे की तरह इसे ...,
अपने दिल के तुलसी के पौधे से  , बाँध देना ... |

आखिर ,'ये मेरा " नाम" है ...
"जो तुम्हारे बिन पाक* तो है ,पर पूरा नहीं ......||" (पाक=पवित्र )

"मैं महज़ इसको इक जिंदगी दे सकता था  ....
पर  इस तरह से 
शायद इसे कुछ मायने भी मिल जायें ...||"



                                         -अनजान पथिक