Saturday, September 14, 2013

इक खत


"माँ हिंदी ",
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सुनो न माँ.....
सच बताओ ..
तुम्हे ज़रा सा भी गुस्सा नहीं आता  ...
जब मैं खेलते खेलते  खीच लेता हूँ तुम्हारी चोटी ...
बन्दर की पूँछ समझ के ..,

उदास होता हूँ ....
और तुमसे बात भी नही करता ..
दिखाता हूँ झूठ -मूठ के  तेवर ...
तब भी तुम क्यों बैठी रहती हो मेरे पास ...
मेरे सिर पर प्यार से रखकर अपनी हथेलियाँ  ...

क्यों अपने आँचल में लिटाकर ..
मुझे भूलने देती हो मेरी सारी उलझनें ....
जबकि तुमको पता है ...
कि मैं शायद कभी नहीं समझ पाऊंगा ...
तुम्हारा किरदार ,
तुम्हारे सपने ,
तुम्हारी गहराइयाँ ...

मुझसे बिना कुछ मांगे ,बिना कुछ चाहे ...
क्यों मेरे तोतली ज़बां के किस्सों से लेकर..
मेरे इश्क की मीठी महक तक ...
तुमने सब कुछ संभाला ...सँवारा,
है अपने दिल में ...
अपने बच्चे की नन्ही शैतानियों और  खिलौनों की तरह...||

सच कहूँ तो 
मैं शायद कुछ न दे पाऊं तुमको कभी भी ...
पर फिर भी .... 
तुम हमेशा देती रहना ,मुझको  वो प्यारी सी  'झप्पियाँ '
जिनको पाते ही लगता है मुझे कि सारी दुनिया दुलार करती है मुझे ...
सारे चेहरे मुस्कराते है मुझे देखकर...||

मेरी जिस्म की मिट्टी ,और मेरे लहू की रवानगी
ये सब कुछ तुम्हारी ही परवरिश है माँ...
तुमको किताबों में पढूँ ,
किस्सों में सुनूं ,
या तारीखों  में समझूं ...
पता नही...
इक अंश भी नही समझ पाऊंगा तुम्हारा इक पूरी उम्र में 

मैं नही जानता कि तुम कितनी बड़ी ,कितनी पुरानी ,या कितनी गंभीर हो ...

मेरे लिए तुम बस 'माँ 'हो और हमेशा वही रहना ...||
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तुमको तुम्हारे दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं ...माँ
हम सबकी और से ढेर सारा प्यार ....
                                  
                                       -- हर वो बच्चा जो 'माँ हिंदी' की गोद में सोया ,जागा और खेला है ...||

Monday, September 9, 2013

"बहुत अच्छी है वो तुमसे" --


"बहुत अच्छी है वो तुमसे" --
सब कहते है ...||
बेशक, सच भी यही है .... |

"पर इबादत दो बराबर के लोगों में होती भी कब है ....??"

जहाँ तक जानता हूँ- ...
इबादत का सलीका है  ...
कि एक किरदार हो  जो इबादत करने का जूनून रखता हूँ ..--
- वो मैं हूँ...
और दूजा वो जो पूजे जाने की काबिलियत रखता हो ...
-वो तुम हो ...||

-मैं तो कब से कहता हूँ -"इश्क इबादत है" ..||

इश्क इस उम्मीद में नहीं होता --...
कि दो लोग रहेंगे किसी 'बैलेंस्ड तराज़ू' के दो पलडों कि तरह  .....
 
इश्क होता है इस यकीन पर ....
कि दो रूहें अगर रख  दी जायें ..
फलक के दो उलटे सिरों पे भी ....
तो फलक को  खुद सिमटना पड़ जायेगा उन्हें मिलाने के लिए .....

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कभी कभी मैं सोचता हूँ -
मैं खुद को खुश करने के लिए कितनी  अच्छी बातें करता रहता  हूँ ...

पर सच मुझे भी मालूम है -
कि सब सही कहते हैं ....
"वो मुझसे बहुत अच्छी है .."||
                                                       -अनजान पथिक 
                                                      (निखिल श्रीवास्तव )