Thursday, July 28, 2011

कुछ अपनी सी ....


आज पुरानी कुछ 'अपनी '
चीज़ों पर फिर से नज़र पड़ी 
यूँ तो मुलाकात अक्सर होती है इनसे आते जाते 
पर वक़्त कहाँ है आज कि खुद से भी
 कर लूँ कुछ बातें  ..!!!! 
 
वक़्त धूल की परतें बनकर जमा हुआ था उनपर 
बीते लम्हों की
एक भीनी ,सौंधी महक लिए
ज़हन की धुंधली यादों के कपड़ों से 
उनको साफ़ किया ,
झाड़ा, पोंछा
 जगाया , ख़ामोशी के बिस्तर पे
 सोते कुछ  नन्हे किस्सों को  
फिर उनसे भी कुछ बातें  की  ....
आज पुरानी कुछ 'अपनी '
चीज़ों पर फिर से नज़र पड़ी ||

 एक पुराना बैट है टूटा  
कभी शाम हुआ करती थी जिससे  
अब बस झाँका करता है ,वो ऊपर टाल पर पड़े पड़े 
फिर कब वैसी शामें होंगी!!
फिर से कब बच्चे खेलेंगे ..!!.

एक पुरानी डायरी है |
कोर्स की किताबों तले 
अक्सर जो घुटती रहती है |
पन्नो पर उसके जैसे कुछ झुर्रियाँ सी पढ़ गयी हैं ..
उसमें ना जाने कितना कुछ 
लिखा हुआ है यहाँ वहाँ |
कहीं किसी का नाम लिखा है ,कहीं बना है दिल 
वो दीवानेपन के अफ़साने ,एहसास यही तो सुनती थी  | 
कभी रातों भर जाग जाग कर 
 कुछ किस्से लिखते थे इसमें ,
कभी तकिये के नीचे रखकर गुमसुम से सो  जाते थे | 
उन किस्सों के ही बीच दबा 
 एक फूल पुराना रखा है
जो किसी मोड़ पे रोककर दिया था किसीने  
कुछ कसमों के बदले, ..अपना कहकर ,शरमाकर 
आज भी महक जिंदा है उस लम्हे की उन पन्नो में ..........||

एक झूला भी है टूटा 
जो बस  सावन में लगता था  
जब नीम की लम्बी बाहों पे
बचपन भी झूला करता था  
अब तो नीम भी रहा नही ..
सावन में भी वो मज़ा नही...
अब सबके घर अपनी -अपनी बाउंडरी है
उसी के अन्दर खेलते रहते है बच्चे सब के ..
अब सावन में वो नीम के नीचे महफ़िल नही सजा करती |


फटा हुआ एक लूडो है 
बिन  पासों के बिन गोटी के,जो मायूस ही बैठा रहता है  ..
याद किया करता है वो दौर 
जब दो नटखट बचपन लड़ते थे उसकी चौखट पर..
अब देखा करता है उनको लड़ते प्लेस्टेशन पर 
एक परियों वाली किताब है 
जिसको सीने से चिपकाकर कितने ही ख्वाब पिरोते थे 
परियों की झूठी दुनिया में जाने को कितना रोते थे 
एक फटी हुई आधी 'चम्पक 'और कुछ 'कॉमिक्स 'के टुकड़े है 
'नागराज' और 'साबू ' के, कुछ पन्ने जिसमे उखड़े हैं....

एक पुरानी फोटो है
साइकिल पर बैठा हूँ जिसमे मै बाबा के संग | 
पिछले हफ्ते ही पापा ने बेचा है उसको 
एक कबाड़ी को..
पैसे भी मिले थे उसके 
तब से सोच रहा हूँ कि क्या यादों की कीमत होती है..???...

एक पुराना चाबी वाला बन्दर है 
जिसकी उछल कूद पे कभी ,मुस्काता था मेरा बचपन |
बिन चाबी अब पड़ा रहता है 
 किन्ही धूल भरे कोनों में ....
जब किसी रिश्तेदार के बच्चे आते है.
तो मरोड़ते है पूँछ..नोंचते है उसका मुँह...

एक गुडिया है दीदी की|
जिसको वो फ्रॉक पहनाया करती थी |
बिंदी लगाकर, चुन्नी उड़ाकर दुल्हन बनाया करती थी |
अलमारी पर सम्भाल के रखा है उसको..
मम्मी ने दीदी की शादी के बाद से |
 देखा है कई बार ,अकेले कमरे में 
उसे सीने से लगा कर रोया करती है वो |

कितनी  ही चीज़ें है ऐसी 
यूँ घर के कोनों में,
 अलमारियों में ,टाल पे
खामोश पड़ी रहती है जो |
कोई जुम्बिश नही होती उनमे|
फिर भी वो साँसें लेती है 
ताकि मेरी वो मासूम धुंधली यादें  जिन्दा रह सकें उनमें | 
कुछ तो अपनापन है इनमें |
कुछ तो अपनापन है इनमें ||
..................
आज लगा जैसे सच में
"अपनी "
चीज़ों पर नज़र पड़ी ||||


Saturday, July 16, 2011

रैना बीती जाये ....



रैना बीती जाये ..पिया  बिन  
रैना बीती जाये ..
जितना ये सुलगे, उतनी जलूँ मैं 
उतनी अगन भड़काए 
रैना बीती जाये ...


                                                  
काटे ये अँखियाँ सोवे ना देंवे,पलकों में तुझको समाये  
सपनन में तेरे खोवे ना देंवे,नींद को आग लगाये 
जिद करे ,लाचार करे, कोई कैसे इन्हें समझाए ...
रैना बीती जाये..

सेज ये लागे काँटन के जैसी,.दिल में चुभी सी जाये
बाहों के तेरे सिरहाने ओ सजना.नींद मुझे बस आये  
रोया करूँ बस रातों में अब तो ,तकिया गले चिपकाये 
 रैना बीती जाये ..

चंदा को ताकूँ, बातें करूँ ,अब रात को मै तारन से
किस्से सुनाऊं चाँदनी को मै तेरे-मेरे मिलन के ..
आजा तू बस उन किस्सों की खातिर, काहे उन्हें झुठलाये
रैना बीती जाये....

आहट जो हो कोई द्वारे पिया तो लागे जैसे तू आये 
झोंके में आके जैसे हवा के बाहों में मुझको समाये 
कैसे जिया को मैं ये बताऊँ ,तू तो यूँ बस तडपाये 
रैना बीती जाए....
चौखट पे बैठी ताक रही हूँ राह तेरे आने की
विरह सूखे संग गया ,अब बारी सावन आने की 
बादल बन अब बरसो पिया ,अधर ये मेरे झुलसाये ..
रैना बीती जाये ..
रैना बीती जाये ....
पिया बिन
रैना बीती जाये .... 

Friday, July 15, 2011

आखिर कब तक ..???

आखिर कब तक ..???
आखिर कब तक सहेंगे ये घुटन,ये दर्द
रिसने देंगे इसे नसों में ,
बहने देंगे दिलों में खून के साथ-साथ..??


             

कब तक रंगने देंगे दीवारों को सुर्ख खून से.??
कब तक मुँह फेरेंगे उन घावों से
उन चोटों से, जो बेसबब ही अमानत सी बन गयी है हमारी...??
कब तक सड़ने देंगे सड़कों को ,गलियों को
उन बेजुबान मंज़रों से
जिनमे दम तोड़ता है
हमारा जज्बा
हमारा सब्र,.....

कब तक मरहम लगायेंगे दुखते नंगे घावों पर ??
कब तक लाशों की बिसात पर एक महफूज़ सुबह की झूठी नींव रखेंगे ..??
कब तक अपनी लाचारी का बहाना देकर फुसलायेंगे उन बेज़ार आँखों को
जिन्होंने अभी अभी सीखा है
एक झटके में बेसहारा  होना ..??
जिसने अभी अभी समझौता किया है अपने जीने की हसरत से ...
कब तक रंजिशों और तौहीन की आग में जलने देंगे इंसानियत को
एक आम जिंदगी को...???
कब तक करेंगे सौदे जिंदगी के
अपनी बेबसी के बदले ......???
आखिर कब तक....???

बदलना होगा ,मजबूत करना होगा
खुद को ,हौसलों को,
तोड़ने होंगे सब रिवाज़ ,
बदलनी होंगी आदतें,
चीखों को तरानों की तरह सुनने की
दस्तूर बदलना होगा मातम मनाने का..
जिन्दा रखनी होगी हर टीस, हर खलिश
जो दफ़न हो जाती है वक़्त के साथ ..
रोकना होगा दीवारों और दिल पे लगे खून के धब्बों को
धुंधला होने से ,अपना रंग खोने से....
बांधनी होगी हर डोर ,हर एक कड़ी ,
बनना होगा एक आवाज़ एक साज़...
इस बार यही पयाम ,यही इंतकाम .....