Friday, December 30, 2011
Monday, December 19, 2011
chalte chalte
हवाओं से कह दो कि उनको जिद है तो रुख बदल लें
टूटने के दर से पत्ते शाख नहीं बदला करते ||
है बादलों को शौक तो बरसे या फिर ना बरसे
मैखाने के पुजारी अपनी प्यास नहीं बदला करते ||
कोई कितना भी लाख चाहे कि घोट दे हसरत का गला
हकीकत की बदरंगी से ,रंगीन ख्वाब नहीं बदला करते ||
लोग सवाल करते है, कई तरीके से कई बार यहाँ
जब कहने का मन ही नहीं ,तो जवाब नहीं बदला करते ||
पागल और दीवानों से चिढ भी जाते है लोग यहाँ ..
पर अंजामो के डर से ,वो अंदाज़ नहीं बदला करते ||
बाहों में तुम खुद ही भर लो ,या फिर मै ही कोशिश कर लूँ
शुरुआत बदल जाने से मगर , एहसास नहीं बदला करते ||
ख़ामोशी की तो बात ही कब करते है ,कहने वाले सब
वादे टूटेंगे इस डर से अलफ़ाज़ नहीं बदला करते||
खुद जो हो वो ही हो तुम, चाहे जितना श्रृंगार रचो
आइना देख इतराने से इंसान नहीं बदला करते||
पहचान भी नहीं याद जिन्हें , उनसे भी कोई क्या बोले
ओये अबे कह देने से बस, नाम नहीं बदला करते ||
मंजिल खो भी जाये अगर ,चलते रहना चलने वालो
जो राहों के दीवाने है ,वो राह नहीं बदला करते ||
हर बार कहीं एक पन्ने पे लिखते है हम भी क्या क्या तो..
बस लफ्ज़ अलग हो जाने से,पैगाम नहीं बदला करते ||
होठों पे भी ठहरे रहते है ,हम भी बन एक एहसास कोई
आप इतराओ ,या मुस्काओ हम काम नहीं बदला करते ||
टूटने के दर से पत्ते शाख नहीं बदला करते ||
है बादलों को शौक तो बरसे या फिर ना बरसे
मैखाने के पुजारी अपनी प्यास नहीं बदला करते ||
कोई कितना भी लाख चाहे कि घोट दे हसरत का गला
हकीकत की बदरंगी से ,रंगीन ख्वाब नहीं बदला करते ||
लोग सवाल करते है, कई तरीके से कई बार यहाँ
जब कहने का मन ही नहीं ,तो जवाब नहीं बदला करते ||
पागल और दीवानों से चिढ भी जाते है लोग यहाँ ..
पर अंजामो के डर से ,वो अंदाज़ नहीं बदला करते ||
बाहों में तुम खुद ही भर लो ,या फिर मै ही कोशिश कर लूँ
शुरुआत बदल जाने से मगर , एहसास नहीं बदला करते ||
ख़ामोशी की तो बात ही कब करते है ,कहने वाले सब
वादे टूटेंगे इस डर से अलफ़ाज़ नहीं बदला करते||
खुद जो हो वो ही हो तुम, चाहे जितना श्रृंगार रचो
आइना देख इतराने से इंसान नहीं बदला करते||
पहचान भी नहीं याद जिन्हें , उनसे भी कोई क्या बोले
ओये अबे कह देने से बस, नाम नहीं बदला करते ||
मंजिल खो भी जाये अगर ,चलते रहना चलने वालो
जो राहों के दीवाने है ,वो राह नहीं बदला करते ||
हर बार कहीं एक पन्ने पे लिखते है हम भी क्या क्या तो..
बस लफ्ज़ अलग हो जाने से,पैगाम नहीं बदला करते ||
होठों पे भी ठहरे रहते है ,हम भी बन एक एहसास कोई
आप इतराओ ,या मुस्काओ हम काम नहीं बदला करते ||
Saturday, December 17, 2011
एक जिद तो है..
खोया है ,तो क्या,?? पाने की एक जिद तो है..
हर रात को सुबह बनाने की एक जिद तो है...
पंखो का बहाना,कोई और किया करते है...
फलक छूने के लिये काफी बस एक जिद तो है.....||
खुद को क्यों बदल डाले ,तुमको नही समझ तो
इंसान अगर हम है तो तुम भी इंसान बस एक महज हो...
अंदाज़ और अदा सब इक से नही तो क्या गम
कुछ अपना हो ,अपना महज, ऐसी भी एक जिद तो है...||
वो दरिया भी क्या दरिया, जो बारिश से झोली भर ले..
वो आग क्या ,सूरज से डर जो आँच धीमी कर लें...
वक़्त की इस राह में .है बस फूल हर तरफ नही..
तो ठहरे क्यों,है काँटे तो,दूर जाने की भी एक जिद तो है...||
दुआ में बस खुदा से सब माँगे भला कब तक यूँ ही
हाथों में जो खिचा है,सच माने उसे कब तक यूँ ही ... ....
वहम में हो गर सोचते हो कि तोड़ने से बिखर जाएँगे ....
हमें भी हर टुकड़े को जिद्दी बनाने की एक जिद तो है... ....||
Wednesday, December 14, 2011
तुमसे, कुछ तो रिश्ता है.....
वक़्त के बागों में फिर से
कुछ नए फूल खिले हैं,
कुछ महके लम्हों की अधखिली कलियाँ हैं .|
कुछ नटखट शरारती यादों की बौरें हैं |
कुछ तुम्हारी जुल्फों जैसी घुंघराली बेलें है,..
सीधे ज़हन में उतरती हैं |
कुछ टूटे पत्ते हैं...
बिखरे बिखरे से
कई के तो अब रंग भी उड़ गए हैं
कई के चेहरों पे आँधियों की खरोंचें है ..|
मुझे याद है इसी भीड़ में कहीं
एक गुमसुम दिल का पेड़ हुआ करता था
मासूम ,सच्चा ,सीधा ....
अक्सर लोग पत्थर भी मारते .
तो मीठे फल लुटा दिया करता था |
परिंदे भी आते थे उसपर ,
घोंसले बनाने ,|
कुछ दिन रहते ,फिर उड़ जाते
उनके घरों को अपनी शाखों की बाहों
में महफूज़ कर लेता था वो..
पर ,वो परिंदे
फिर लौट कर नहीं आये आज तक
लोग कहते है
कि उड़ते परिंदों की तो ये ही फितरत होती है..
उन्हें आशियाँ से ज्यादा जिंदगी की जरुरत होती है...
लेकिन मैं नहीं मानता ...
मुझे बस याद है वो पल..
जब सर्दी की रात में ठिठुरते
तुम्हारे किसी एहसास को
उन्ही घोसलों में
पत्तो के बीच दबाकर कहीं
एक सुकून मिला था मुझे ... ...
रूह को एक गर्म आगोश सा मिला था.....
बस उसी एक पल पर यकीन करके कहता हूँ ..
तुम वो डाली डाली फिरने वाले परिंदे नहीं हो....
तुमसे, कुछ तो रिश्ता है..
तुमसे, कुछ तो रिश्ता है.....
Friday, December 9, 2011
खामोश रहने दीजिये...
सब वक़्त के पानी के संग चुपचाप बहने दीजिये..
कुछ ज़ख्म गहरे है अगर,गहरे ही रहने दीजिये
बदलेंगे परदे आँखों के तो नज़र भी बदलेगी तब..
अभी खामोशियों का दौर है, खामोश रहने दीजिये...
है फासलों को जिद अगर,तो खुद ही कम हो जायेंगे..
इन वक़्त की शाखों पे मीठे फल कभी तो आयेंगे....
जिसको है कहना जो ,उसे चुपचाप कहने दीजिये....
मेरी कहानी है तो फिर मेरी ही रहने दीजिये....
सहकर उबरते है सभी ,हमको भी सहने दीजिये....
खामोशियों का दौर है, खामोश रहने दीजिये...
Wednesday, December 7, 2011
ओ दिल में रहने वाले
ओ मेरे मंदिर के खुदा के साए से दिखने वाले ..
ओ मेरे मंदिर के खुदा के साए से दिखने वाले ....
मुझे होठों से लगा ले ,
मुझे नींदों में छिपा ले
हमराही मेरा बनकर
मुझे मंजिल तू बना ले....
ओ दिल में रहने वाले
ओ दिल में रहने वाले
ओ मेरे मंदिर के खुदा के साए से दिखने वाले ....||
(कि) अब दिन भी तुम से ही हो..
रातें भी तेरी ही हो..
तेरे यादों में हो आहट
तो बातें भी मेरी हो...
कभी सपनों में आकर ,यूँ ही मुझको गुदगुदा दे..
ओ दिल में रहने वाले
ओ दिल में रहने वाले
ओ मेरे मंदिर के खुदा के साए से दिखने वाले ....||
क्यों मंदिर अब मैं जाऊं
क्यों मस्जिद सिर नवाऊं
तेरे पास थोडा बैठूं
तुझे धड़कन बस सुनाऊं
इबादत तू ही मेरी,तू ही मेरी है दुआ रे...
ओ दिल में रहने वाले
ओ दिल में रहने वाले
ओ मेरे मंदिर के खुदा के साए से दिखने वाले ....||
तेरी आँखों के वो मोती
अपनी आँखों में सजा लूँ..
खुद को खो दूँ ऐसा तुझमे
तुझसे ज्यादा खुद को पा लूँ ..
तू ख्यालों का गुमान रे,तू ही मेरा आशियाँ रे..
ओ दिल में रहने वाले
ओ दिल में रहने वाले
ओ मेरे मंदिर के खुदा के साए से दिखने वाले ....||
Friday, December 2, 2011
वो बात कभी तो होने दो..||
एहसास की ठंडी छाँव तले ,कुछ मीठे लम्हे सोने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......
कटने को तो रातें यूँ ही ...
तारे गिनते कट सकती है...
ये खालीपन,ये बेचैनी
एक नींद से भी हट सकती है...
पर उम्र यूँ ही कट जाये तो ये जिन्दा लोगो की बात नहीं.,.
दिल है तो ये धड़का भी होगा,इकरार कभी तो होने दो ...
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......||
वो शोख हवा के ठण्डे से
झोंके सा तेरा मुस्काना..
वो पलकों पे जन्नत रख के
हर एक नज़र में इतराना...
वो भोलापन एक पत्ते पे सोयी ओस की बूंदों सा..
वो गर्दन के हर झटके में ,सुकून गुनगुनी धूपों का ...
कितनी बार तो खोया अपना दिल,अपनी जिद हार गया
बस कभी तो अब कुछ पाने जैसा,जीते जैसा होने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......||
वो बातों को होठों तक ला
अन्दर अन्दर डरते रहना..
फिर आँखों से सब कुछ कहकर
हर बार खता करते रहना..
नज़र मिला कर नज़र चुराना.
आँखों में हया के सागर ले...
हर एक अदा ऐसी दिलकश
कि खुदा भी आहें सी भर ले...
ये सब होते एक दौर हुआ,कुछ और नया तो होने दो
हुई इधर उधर की बात बहुत वो बात कभी तो होने दो..||
वो राहों पर मुड़ कर रुकना
रुक कर मुड़ना मिलने के लिए
कोई काम कही का भी करना
बस साथ सफ़र चलने के लिये...
तुम ही मंजिल तुमको लेकर ,चाहा राहों पे साथ चले..
कोई क्या जाने कि फिर कब ये हाथों में तेरा हाथ मिले..
ये सफ़र कि बस शुरुआत अभी ,कुछ दूरी तो तय होने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......||
मैंने तो पाना सीखा है
तेरे संग बीती यादों से
तुमने भी खुद को ढूँढा है
मेरी चुप चुप सी बातों में...
पाया दोनों ने दोनों में..,अब तो दोनों को खोने दो...
हुई इधर उधर की बात बहुत ,वो बात कभी तो होने दो..||
सोची समझी सारी चलें
बस लगती अब नादानी हैं ,
ना प्रीत बिना जीवन पूरा
जग की ये रीत पुरानी है
तो बोले ,समझे ,सोचे क्या
बस ये ही बात बतानी है
दो दीवानों को प्यार हुआ
सच में बस यही कहानी है...
रह जाये कहीं ना किस्सा ये ,किरदार में अब तो खोने दो..
मेरा सब अपनापन ले लो पर मेरा कुछ तुम मुझको दे दो....||
एहसास की ठंडी छाँव तले ,कुछ मीठे लम्हे सोने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो.....||..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......
कटने को तो रातें यूँ ही ...
तारे गिनते कट सकती है...
ये खालीपन,ये बेचैनी
एक नींद से भी हट सकती है...
पर उम्र यूँ ही कट जाये तो ये जिन्दा लोगो की बात नहीं.,.
दिल है तो ये धड़का भी होगा,इकरार कभी तो होने दो ...
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......||
वो शोख हवा के ठण्डे से
झोंके सा तेरा मुस्काना..
वो पलकों पे जन्नत रख के
हर एक नज़र में इतराना...
वो भोलापन एक पत्ते पे सोयी ओस की बूंदों सा..
वो गर्दन के हर झटके में ,सुकून गुनगुनी धूपों का ...
कितनी बार तो खोया अपना दिल,अपनी जिद हार गया
बस कभी तो अब कुछ पाने जैसा,जीते जैसा होने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......||
वो बातों को होठों तक ला
अन्दर अन्दर डरते रहना..
फिर आँखों से सब कुछ कहकर
हर बार खता करते रहना..
नज़र मिला कर नज़र चुराना.
आँखों में हया के सागर ले...
हर एक अदा ऐसी दिलकश
कि खुदा भी आहें सी भर ले...
ये सब होते एक दौर हुआ,कुछ और नया तो होने दो
हुई इधर उधर की बात बहुत वो बात कभी तो होने दो..||
वो राहों पर मुड़ कर रुकना
रुक कर मुड़ना मिलने के लिए
कोई काम कही का भी करना
बस साथ सफ़र चलने के लिये...
तुम ही मंजिल तुमको लेकर ,चाहा राहों पे साथ चले..
कोई क्या जाने कि फिर कब ये हाथों में तेरा हाथ मिले..
ये सफ़र कि बस शुरुआत अभी ,कुछ दूरी तो तय होने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो......||
मैंने तो पाना सीखा है
तेरे संग बीती यादों से
तुमने भी खुद को ढूँढा है
मेरी चुप चुप सी बातों में...
पाया दोनों ने दोनों में..,अब तो दोनों को खोने दो...
हुई इधर उधर की बात बहुत ,वो बात कभी तो होने दो..||
सोची समझी सारी चलें
बस लगती अब नादानी हैं ,
ना प्रीत बिना जीवन पूरा
जग की ये रीत पुरानी है
तो बोले ,समझे ,सोचे क्या
बस ये ही बात बतानी है
दो दीवानों को प्यार हुआ
सच में बस यही कहानी है...
रह जाये कहीं ना किस्सा ये ,किरदार में अब तो खोने दो..
मेरा सब अपनापन ले लो पर मेरा कुछ तुम मुझको दे दो....||
एहसास की ठंडी छाँव तले ,कुछ मीठे लम्हे सोने दो..
हुई इधर उधर की बात बहुत,वो बात कभी तो होने दो.....||..
Tuesday, November 29, 2011
जी तो करता है कभी
शीशे से पत्थर तोड़ दूँ...
एक फूँक से सूरज बुझा
दिन -रात को भी जोड़ दूँ ...
सब दीवारें सब मीयादें
चूर चूर एक पल में हो..
एक प्यार का रेशम बना
सबको सभी से जोड़ दूँ...
क्या है खुदा के दिल में
परवाह किसको क्या पता
सबकी अलग माँगे यहाँ
सबकी अलग अपनी रज़ा...
सोचे ना कुछ समझे ना कुछ
कब तक चले ये सिलसिला..
सब हो गये तन्हा तो फिर
कैसे चलेगा काफिला....
आओ मिले अब साथ देखे क्या जरुरत ,क्या गलत...
सूरज की ठंडी धूप छाने ,फैलाये फिर सीमा तलक...
उन सरहदों के पार भी आँखों में एक सपना ही है...
वो गैर सा दिखता हुआ चेहरा भी तो अपना ही है........
Monday, November 14, 2011
वो बचपन जब याद आता है.
वक़्त के दरीचों(झरोकों ) से
ज़िन्दगी के कमरों में
एक धुंधला साया सा.. दिखता है...
एक मीठी सौंधी महक लिये..
एक भोलापन और चहक लिये...
टूटे कच्चे अल्फाजों का ,एक दौर उबर सा आता है.....
आँखों की नम बरसातों में
वो बचपन जब याद आता है......||-2
वो कागज की नावों का बहना ..बहते बारिश के पानी में..
वो खो जाना दादी माँ की परियों की किसी कहानी में...
वो बरसात में कीचड में छपाक से, गिरकर गंदे हो जाना..
वो डांट पड़े चाहे मार पड़े,झूठी मूठी का चिल्लाना....
स्कूल में लंच में अपनी पसंद की लड़की के पास टिफिन लेकर जाना
अपनी मैगी उसको देना ....और बदले में उसका सैंडविच खाना..
अपनी पेंसिल उसका शार्पनर,
अपनी गलती ,उसकी रबर....
बातें करने के ना जाने कितने नये नये बहाने बनाना....||
आइसक्रीम वाले की आवाजों पे एक पागल जैसे हो जाना....
वो गुब्बारे वाले को सुनकर ...गुब्बारे की जिद में खो जाना..
साइकिल या विडियो गेम के लिये
चुपके से दादी से कहना....
वो भूत की बातें सुन डरकर
रात भर मम्मी से चिपके रहना ..||
.वो क्रिकेट में आउट हो जाने पर
गुस्से से पहले झल्लाना ..
फिर 'बैट मेरा है ' धमकी देकर ,अपना ही टशन एक दिखलाना ..||
किसी के घर में आते ही सीधे बच्चे सा बन जाना..
मिठाई कहाँ रखी है ,बस यही देखना .
और उनके जाते ही चट कर जाना.....||
पापा की स्कूटर पे आगे खड़े होकर, बेमतलब पीं पीं चिल्लाना..
वो कैसेट की अन्दर की रील निकालकर, बेवजह घुमाते रह जाना....
वो बाबा दादी के पैर दबा ,गुल्लक में पैसे जमा करना..
वो विडियो गेम पे लेवल पार करके जीतने का दम भरना ...||
वो थकने का बहाना करके ,सबकी गोदी चढ़ जाना..
वो कार्टून नेटवर्क खोल ,आँखों का उनमें ही गढ़ जाना ..
होम वर्क की कॉपी खोलकर
कुछ भी पीछे लिखते रहना ..
और मम्मी के देखते ही फिर से ,होम वर्क में मन से लग जाना..||
.किताब के पन्नो पर लिखे नंबर से ,खेलना क्रिकेट क्लास में पीछे बैठ ...
और असली में एक-एक कैच के लिये घुटनों के बल भी गिर जाना..
ज्यादा अँधेरा होने पर डांट पिटेगी फिर भी बैटिंग लेकर आना...||
वो कौवा ,हाथी तोता ,मैना के झूठे दिलासे सुनते सुनते हर एक कौर खाना .....
और अम्मा की गोद में सिर रखकर उनके संग परियों के घर जाना........
वो टूटे खिलौने ,फटे लूडो,बिना हैंडल के बैट का कुछ ना करना
फिर भी कोई उन्हें कूड़ा कह के हाथ लगा दे तो मुँह फुला के बैठ जाना...
ना जाने कितना कुछ बाकी है इन बचपन की यादों में....
तोतली जुबान ,एक प्यारी सी नादानी है भरी हुई एहसासों में.....
बस आज कोई कहता है जब ..
बड़े हो, जिम्मेदार बनो....
तो बचपन का वो भोलापन..वो आज़ाद समां याद आता है...
और आँखों के नम कोनों से वो बचपन फिर मुस्काता है....
और आँखों के नम कोनों से वो बचपन फिर मुस्काता है...||
ज़िन्दगी के कमरों में
एक धुंधला साया सा.. दिखता है...
एक मीठी सौंधी महक लिये..
एक भोलापन और चहक लिये...
टूटे कच्चे अल्फाजों का ,एक दौर उबर सा आता है.....
आँखों की नम बरसातों में
वो बचपन जब याद आता है......||-2
वो कागज की नावों का बहना ..बहते बारिश के पानी में..
वो खो जाना दादी माँ की परियों की किसी कहानी में...
वो बरसात में कीचड में छपाक से, गिरकर गंदे हो जाना..
वो डांट पड़े चाहे मार पड़े,झूठी मूठी का चिल्लाना....
स्कूल में लंच में अपनी पसंद की लड़की के पास टिफिन लेकर जाना
अपनी मैगी उसको देना ....और बदले में उसका सैंडविच खाना..
अपनी पेंसिल उसका शार्पनर,
अपनी गलती ,उसकी रबर....
बातें करने के ना जाने कितने नये नये बहाने बनाना....||
आइसक्रीम वाले की आवाजों पे एक पागल जैसे हो जाना....
वो गुब्बारे वाले को सुनकर ...गुब्बारे की जिद में खो जाना..
साइकिल या विडियो गेम के लिये
चुपके से दादी से कहना....
वो भूत की बातें सुन डरकर
रात भर मम्मी से चिपके रहना ..||
.वो क्रिकेट में आउट हो जाने पर
गुस्से से पहले झल्लाना ..
फिर 'बैट मेरा है ' धमकी देकर ,अपना ही टशन एक दिखलाना ..||
किसी के घर में आते ही सीधे बच्चे सा बन जाना..
मिठाई कहाँ रखी है ,बस यही देखना .
और उनके जाते ही चट कर जाना.....||
पापा की स्कूटर पे आगे खड़े होकर, बेमतलब पीं पीं चिल्लाना..
वो कैसेट की अन्दर की रील निकालकर, बेवजह घुमाते रह जाना....
वो बाबा दादी के पैर दबा ,गुल्लक में पैसे जमा करना..
वो विडियो गेम पे लेवल पार करके जीतने का दम भरना ...||
वो थकने का बहाना करके ,सबकी गोदी चढ़ जाना..
वो कार्टून नेटवर्क खोल ,आँखों का उनमें ही गढ़ जाना ..
होम वर्क की कॉपी खोलकर
कुछ भी पीछे लिखते रहना ..
और मम्मी के देखते ही फिर से ,होम वर्क में मन से लग जाना..||
.किताब के पन्नो पर लिखे नंबर से ,खेलना क्रिकेट क्लास में पीछे बैठ ...
और असली में एक-एक कैच के लिये घुटनों के बल भी गिर जाना..
ज्यादा अँधेरा होने पर डांट पिटेगी फिर भी बैटिंग लेकर आना...||
वो कौवा ,हाथी तोता ,मैना के झूठे दिलासे सुनते सुनते हर एक कौर खाना .....
और अम्मा की गोद में सिर रखकर उनके संग परियों के घर जाना........
वो टूटे खिलौने ,फटे लूडो,बिना हैंडल के बैट का कुछ ना करना
फिर भी कोई उन्हें कूड़ा कह के हाथ लगा दे तो मुँह फुला के बैठ जाना...
ना जाने कितना कुछ बाकी है इन बचपन की यादों में....
तोतली जुबान ,एक प्यारी सी नादानी है भरी हुई एहसासों में.....
बस आज कोई कहता है जब ..
बड़े हो, जिम्मेदार बनो....
तो बचपन का वो भोलापन..वो आज़ाद समां याद आता है...
और आँखों के नम कोनों से वो बचपन फिर मुस्काता है....
और आँखों के नम कोनों से वो बचपन फिर मुस्काता है...||
Wednesday, November 9, 2011
रात भर चाँद में
रात भर चाँद में तेरा साया ढूँढ़ते ,
छत पे बैठे बेवजह ख्वाब बुनते ही रह गए
बेखुदी में अपनी धडकनों को भूलकर
तेरी आहटों का साज़ सुनते ही रह गए ..!!!
रात कतरा कतरा कर
जलती रही ख़ामोशी से..
ख्वाब के धुएँ में
कच्ची नींदें भी उडती रही...
मखमली ओस सी बरसी मेरी तनहाइयाँ
हसरतें भी हौले हौले
उनमे सिकुड़ती रही...||
आसमाँ पे तुमको ढूँढा
बादलों में भी कहीं
चाँद के पीछे भी देखा
तुम मगर मिले नहीं |
सातों आसमानों के घर भी छाने
सूरज डुबाया ,रात करी
बुने कितने ताने बाने ..!!!
सोचा नींदों के शहर में
कभी तो आओगे
रात से छिप छिपाकर
दबे पाँव..
अँधेरे की ओट में
पलकों की ठंडी छाँव में बैठोगे
महकी महकी बात करोगे
मेरे आँखों के पानी में
बेसाख्ता घुल जाओगे ...||
वहम पालते रहे महज
चाँद में तुम्हारी सूरत देख
सोचा आगे बढ़कर छू लेंगे तुम्हे ,
तोड़ लेंगे तुम्हे फलक की शाख से
और जहन के पन्नों के बीच रख लेंगे हौले से ..
इसी जिद में हाथ बढाया
थोडा उचके भी
बाहें भी फैलाई...
पर वो बुलबुले सा साया ना जाने कहा फूटा ..
कि ना मिले निशान कहीं
ना कहीं खबर कोई ..||
नींदों की धुन पर
ना जाने कौन से ख्वाब
गुनगुनाते रहे
तन्हा थे ,पागल थे या तुम में खोये थे इतने ...
कि अपने ही साये को खुद ही गले लगाते रहे...!!!
सुबह होश संभाले
तो देखा कि ,होठों की सेज पर सोया है एक आँसू
चखा तो मीठा सा है....
शायद रात में तुमको छूता हुआ गुज़रा होगा....
ऐसे ही एहसासों का इक किस्सा हो तुम....!!!!!!
Tuesday, November 8, 2011
Friday, November 4, 2011
Wednesday, November 2, 2011
बादलों पे मिल रहे
बादलों पे मिल रहे ,मेरे क़दमों के निशान ...
ये ज़मीन-ओ-आसमान,कह रहे....
तेरे ख़्वाबों में बह गया ,मेरी नींदों का एक जहां .....
ये अश्कों के निशाँ ,कह रहे.....
कच्चे सपने आँखों के ,नींद की आँच पे हम तले ...
मै तेरे, तू मेरे संग चले....||
सातों आसमान के पार,सारी जन्नतों से दूर..
एक मोड़ पर कहीं हम मिलें...!!!
चल फिर चाँद के पीछे ,रात की आँखें मीचें....
चाँदनी के तले सो जायें....|||
थामे लम्हे हाथ में..,बाँधे साँसें डोर से
साये में हम तेरे खो जायें..||
कहकशों की गलियों में,दूर कहीं ,
अपना घर एक बना लें ज़रा...
एक फलक की शाख से,तोड़ तारे अधपके
आ जा आशिया सजा लें ज़रा ... !!!
.
मैं न तुझसे कुछ कहूं,तू ना मेरी कुछ सुने..
लफ्ज़ यूं बेजुबान हो जायें......||
सूखी पलकों की आग में
तेरा साया जल उठे
रात इतनी मेहरबान हो जाये....,,रात इतनी मेहरबान हो जाये..||
कोरी पलकों के कोनों में,छिपे यादों के आसमाँ..
बारिशों से यही कह रहे..||
तेरे ख़्वाबों में बह गया ,मेरी नींदों का एक जहां .....
ये अश्कों के निशाँ ,कह रहे.
Monday, October 10, 2011
ख्वाबों से जुड़ते देखा है,मैंने दो टूटी नींदों को
देखा है बिन डोरी ,धागे ,कैसे दो दिल बंध जाते हैं
कैसे हाथों की मेहंदी में ,कुछ नाम कहीं छिप जाते है ||
कैसे तन्हा होकर रातें,घुट घुट कर पल पल मरती हैं ..
कैसे चंदा की देख चाँदनी,धड़कन सौ आहें भरती है ...||
कैसे बस एक तस्वीर लिये,कोई रात सुबह हो जाती है
देखा है चंद लकीरों से ,बनती बिखरी तकदीरों को....||.
देखा है बिन डोरी ,धागे ,कैसे दो दिल बंध जाते हैं
कैसे हाथों की मेहंदी में ,कुछ नाम कहीं छिप जाते है ||
कैसे तन्हा होकर रातें,घुट घुट कर पल पल मरती हैं ..
कैसे चंदा की देख चाँदनी,धड़कन सौ आहें भरती है ...||
कैसे बस एक तस्वीर लिये,कोई रात सुबह हो जाती है
कैसे एक नटखट नींद,भिगाकर पलकें गुम हो जाती है..||.
कैसे एक साँसों का रेशम,ऐसा पुख्ता हो जाता है..
कि राज़ ज़ुबानों से पहले ,आँखों से सब कह जाता है...||
कैसे सारी शर्तें अपनी ,उनके सजदे झुक जाती है...
कैसे एक प्यारी बात,जुबान तक आकर फिर रुक जाती है ||
कैसे 'गुड मॉर्निंग ' मेसेज से ,हर सुबह शरारत करती है ...
'गुड नाईट' ना आने की चिंता,कैसे घबराहट भरती है .... ||
उनका तिनके सा मुस्काना भी शोख हवा सा लगता है
कैसे उनके छू लेने से हर ज़ख्म दवा सा लगता है...||
कैसे पन्नो के बीच दबे लम्हे जिंदा हो जाते है... ..
कैसे अपने सारे रस्ते ,उनके दर पर खो जाते हैं....||
कैसे मौला बिक जाता है ,उनकी हलकी मुस्कानों में
इश्क मज़हब लिख जाता है ,गीता में और कुरानों में ||
कैसे खुद को ही समझाना ,भारी सा लगने लगता है..
कैसे हर सच को झुठलाना ,लाचारी लगने लगता है...||
देखा है हर एक लम्हे की चाहत को बुझ बुझ कर जलते...
देखा है सच के दरिया में सपनों के सूरज को ढलते ..
-----------------------------------------
देखा है सच के दरिया में सपनों के सूरज को ढलते ..
-----------------------------------------
क्यों ना देखूँ ...????.
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आँखों का है ये शौक बसाना अन्दर उन तस्वीरों को..
जिनपे खुद लिख कर, भूल गया वो रब, बेबस तकदीरों को....||||
Sunday, October 9, 2011
एक रात के सूखे पन्नो पर
कोई ख्वाब अनोखा लिख बैठे ....
अन्दर एक मीठा झूठ लिये
हम सच को धोखा लिख बैठे ....
हम लिख बैठे अँधेरे में
तन्हा एक ज्योति दीवाली की..
लिख गए तड़प उस सजनी की
जो पिया से मिलने वाली थी....
बाँहों में एक एहसास लिये
हम नाम किसी का लिख बैठे
दिल को धड़कन की कसमें दे
हम काम किसी का लिख बैठे..||
लिख बैठे चंद लकीरों से
रुसवा एक सच की उम्मीदें
लिख बैठे उनका अक्स लिये
कुछ जागी जागी सी नींदें...
अपने बेबस अल्फाजों से
पैगाम किसी को लिख बैठे ..
उनके लम्हों के सज्दें में
हर शाम उन्ही को लिख बैठे ..||
कोई ख्वाब अनोखा लिख बैठे ....
अन्दर एक मीठा झूठ लिये
हम सच को धोखा लिख बैठे ....
हम लिख बैठे अँधेरे में
तन्हा एक ज्योति दीवाली की..
लिख गए तड़प उस सजनी की
जो पिया से मिलने वाली थी....
बाँहों में एक एहसास लिये
हम नाम किसी का लिख बैठे
दिल को धड़कन की कसमें दे
हम काम किसी का लिख बैठे..||
लिख बैठे चंद लकीरों से
रुसवा एक सच की उम्मीदें
लिख बैठे उनका अक्स लिये
कुछ जागी जागी सी नींदें...
अपने बेबस अल्फाजों से
पैगाम किसी को लिख बैठे ..
उनके लम्हों के सज्दें में
हर शाम उन्ही को लिख बैठे ..||
Monday, September 26, 2011
अनजान घरों की बस्ती में
दिल अपना ठिकाना ढूँढता है..
एहसास के पीले पन्नो पर
कोई अपना फ़साना ढूँढता है...||
मिल जायें कहीं तो रातें वो,बारिश में भीगी भीगी सी
बाँहों की सौंधी महक और वो यादें सीली सीली सी...
एक प्यार का रस पी लेने को
हर कोई मैखाना ढूँढता है ..
अनजान घरों की बस्ती में
दिल अपना ठिकाना ढूँढता है...||
हर ख्वाब शरारत लगता है ,जब साये से तुम आते हो
दिल के दरवाजे धीरे से दस्तक देकर छिप जाते हो ..
कोई आवारा दरिया जैसे
बस अपना मुहाना ढूँढता है...
अनजान घरों की बस्ती में
दिल अपना ठिकाना ढूँढता है...||
Wednesday, September 7, 2011
प्यास
अंधेरों में भागता रहा,
रोशनी को ढूँढने||
सोचा ,
हकीकत की लौ तेज हो जाएगी
सपनों का घी डालने से |
उलझ गया खुद,
हाथों की उलझी लकीरों को सुलझाते -सुलझाते|
शर्त भी लगायी तो उस खुदा से
जिसको हारना नहीं मंज़ूर |
घोंसलों को आशियाँ बनाकर
चाहा आसमान छूँ लूँ |
चौखट भर की रोशनी लेकर
सुबह करने की हसरत पाली |
अपनी ही आवाजें अनसुनी कर
सुनता रहा क्या क्या नहीं???
देखकर भी अनदेखा किया हर सच ,
निगाहों को ख्वाबों की दहलीज़ से आगे,
बढ़ने ही नहीं दिया ||
हर बार कुछ नया लिखता गया यूँ ही
लिखे हुए को बदलने की चाह में |
अकेले चलते चलते
तलाशता रहा काफिले के निशाँ |
जिंदगी की फटी जेबों से गिरता रहा वक़्त
बिना आवाज़ किये||
अब जब पीछे देखता हूँ तो लगता है,
कितना लम्बा सफ़र तय कर लिया !!!
यूँ गँवाते-गँवाते ,
चौखट भर की रोशनी लेकर
सुबह करने की हसरत पाली |
अपनी ही आवाजें अनसुनी कर
सुनता रहा क्या क्या नहीं???
देखकर भी अनदेखा किया हर सच ,
निगाहों को ख्वाबों की दहलीज़ से आगे,
बढ़ने ही नहीं दिया ||
हर बार कुछ नया लिखता गया यूँ ही
लिखे हुए को बदलने की चाह में |
अकेले चलते चलते
तलाशता रहा काफिले के निशाँ |
खाता रहा चोट ये सोच ,
कि नये ज़ख्म भुला देंगे पुराने दर्द को ...|
हटाता रहा बादलों को आँगन में बरसने से
कि कहीं फिर से गीली मिट्टी
सौंधी सी खुशबू लेकर
ज़हन में ताज़ा ना कर दे कुछ |
ख्वाब इतने देखे की नींदें
थक गयी |
कई बार हुआ ऐसा
जब पता भी नहीं चला
कि कितनी बार ये चोर सुबह
रात का चाँद निगल गयी|
कि कहीं फिर से गीली मिट्टी
सौंधी सी खुशबू लेकर
ज़हन में ताज़ा ना कर दे कुछ |
ख्वाब इतने देखे की नींदें
थक गयी |
कई बार हुआ ऐसा
जब पता भी नहीं चला
कि कितनी बार ये चोर सुबह
रात का चाँद निगल गयी|
जिंदगी की फटी जेबों से गिरता रहा वक़्त
बिना आवाज़ किये||
अब जब पीछे देखता हूँ तो लगता है,
कितना लम्बा सफ़र तय कर लिया !!!
यूँ गँवाते-गँवाते ,
शायद अब पाने की बारी होगी ..
शायद अब पाने की बारी होगी ||
प्यास बहुत लगी है...||
ये प्यास यूँ ही नहीं मिटेगी ||
देखता हूँ किस मोड़ पर मिलेगी जिंदगी
हाथ में कुछ मेरे अपने वक़्त की बूँदें लिये |
शायद तब प्यास बुझे मेरी..
कहीं ना कहीं कोई बहता दरिया तो होगा ही..||
Monday, August 29, 2011
अपनी आवाज़
खामोश हवा के ख़त पे मैं ,
कैसे अपनी आवाज़ लिखूँ .?
इन टूटे बिखरे पंखों से
कैसे अपना परवाज़ लिखूँ ..??
मैं खुद खुद से बेगाना सा ,
कैसे अपना अंदाज़ लिखूँ ?
मंजिल है नज़रों परे खड़ी,
कैसे अपना अंजाम लिखूँ?
दिल की हर गुमसुम धड़कन का ,
किस्सा कैसे बेबाक लिखूँ ?
कितनी भी बेचैनी हो पर ,
खुद को कैसे बेताब लिखूँ ..?
कतरा कतरा तरसूँ चाहे ..
खुद को कैसे मोहताज़ लिखूँ ?
कब तक सूरज के संग ढलूँ
कब तक खुद को महताब लिखूँ ?
कब तक बेरंग से पन्नों पर
एक रंग मेरा बिखराऊं मैं.?
कब तक यूँ बिन समझे सोचे
कदमो संग चलता जाऊं मैं ..?
कब तब सपनो की दुनिया में
सच के आँचल से खेलूँ मैं..?
हवा जिधर कह दे चल दूँ
कब तक ये बंदिश झेलूँ मैं ..?
मेरी जिद मेरी अपनी है
क्यों उसपर अपना नाम लिखूँ ..?
उस खुदा को क्या क्या समझाऊं
कैसे अपना पैगाम लिखूँ ..?
अभी तो कितना कुछ बाकी
खुद को कैसे नाकाम लिखूँ ..?
क्यों हर ताज़े खिलते सूरज पे
एक फीकी ,बोझिल शाम लिखूँ ..?
ये हाथ ना बस फ़ैलाने को
लड़ने की ताकत भी तो है |
मेरा मुझको ना मिला तो क्या
मेरा है जो मेरा ही है ...|
खामोश हवा के ख़त पे मैं
इस कदर मैं एक आवाज़ लिखूँ
हर छोर ,फलक धरती झूमे ..
ऐसा मैं अपना साज़ लिखूँ..||
Monday, August 15, 2011
आजादी
आज महकती सी सुबह में ,बिखरी दिखी आजादी ....
नहीं दिखी आजादी
--
चहकते खिलते चेहरों पर ,हँसती दिखी आजादी
चैनलों पर, गानों में, गाती दिखी आजादी
ह़र मंच से आवाजों में,आती दिखी आजादी
मॉल में, शोरूम में ,सजती दिखी आजादी
टोपियों पर, कपड़ों पर ,फबती दिखी आजादी
ठेले पर ,साइकिलों पर, बिकती दिखी आजादी...
अखबार के सूखे रंगों में ,रंगती दिखी आजादी....
पर नहीं दिखी आजादी
उस सड़क किनारे खड़े
मासूम बच्चे के चेहरे पर
जो दौड़ दौड़ कर कार वालों को
बेच रहा था तिरंगे
पाँच रुपये का एक
आठ रुपये के दो....|
.
नहीं दिखी आजादी
भीख माँगते उस बच्चे के हाथ में..
जो मंदिर के आगे बैठता है रोज़ ...
कटोरा लेकर..
बहुत कुछ था सिक्को जैसा
बहुत कुछ था सिक्को जैसा
उसके कटोरे में
मगर आजादी जैसा कुछ नहीं.....
नहीं दिखी आजादी
उन भूखे तरसते चेहरों पर
जो बेबस आँखों से देख रहे थे ..
वो आँच पर सिंकता भुट्टा ...
वो आँच पर सिंकता भुट्टा ...
चाय में डूबता बिस्कुट
नहीं दिखी आजादी
उन सहमी आँखों में ..
जिन्होंने खोया था किसी अपने को
किसी हादसे में बेवजह ...
क्योंकि
किसी और को सनक सवार थी
बेवक्त ,बमों से दीवाली मनाने की
चिता के दीये जलाने की...
नहीं दिखी आजादी
उस परिवार के नंगे बदन पर
जिसने पिछली
बरसात भरी रात काटी है
छप्पर के नीचे भीगते भीगते सड़क पर
नहीं दिखी आजादी
उस तिरंगे के चेहरे पर जो मायूस खड़ा
लड़ रहा था गुलाम हवा के थपेड़ों से ....
जो हर साल ऊपर चढ़ता है
इस उम्मीद में
कि आज शायद मंज़र कुछ बदलेगा ||
मगर वही पुराने घाव लिए उतर आता है शाम को
जिसको शायद कभी सुना नहीं ..
आजादी के इस शोर तले..
आजादी के इस शोर तले..
.........
ना जाने कैसी ये आजादी है....
आधी अधूरी सी..
आधी अधूरी सी..
अपनी होकर भी, परायी सी..
जो कभी नाचती है हमारे संग ..
हमारी ही धुन पे...
और कभी रोती है कोने में चुपके से
और कभी रोती है कोने में चुपके से
किसी टूटी टपकती छत के नीचे ...
शायद कुछ घुटन सी है उसके मन में
जो वो कहती नहीं...
हर बार मुस्कान बन कर ..
बस खिल जाती है चेहरों पर
तभी शायद तिरंगे की अदाओं से,
आज कुछ कहती दिखी आजादी
हवा में सहमी सहमी ,बहती दिखी आजादी....|
आजादी के बावजूद, गुलामी सहती दिखी आजादी..||
मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं
आज़ाद हवा में खुलकर मै,हर चरम शिखर पर लहराऊं
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं इंसान मजहब से ऊपर हो., त्योहार जश्न हर रोज़ मनें
नफरत के घरौंदों से पहले ,प्रीत के ऊँचे महल बनें
ऐसा अपनापन बख्श मुझे,सबके दिल में घर कर जाऊं
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं||
आवाज़ बनूँ माँ मैं तेरी,परवाज़ मेरे पंखों को दो
तेरा संतानें जाग गयी ,हालात पे यूँ ना अब तुम रो..
बस हिम्मत दे इतनी मुझको.,सबसे सच खातिर लड़ जाऊं ...
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं||
ओहदा ना बनूँ ना नाम बनूँ,ना सिरों पे चढ़ता जाम बनूँ..
गूंजूँ क्षितिजों के आँगन तक,एक ऐसा मैं कोहराम बनूँ ...
बहरे बहके से कानों में,मैं शोर सरीखे चुभ जाऊं
ऐसा रंग माँ अपने रंग में,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ...||
ना जुबान बनूँ ना जात बनूँ.,बस खुशियों की सौगात बनूँ
इंसान को जोडूँ इंसान से,ऐसा सच्चा इंसान बनूँ
तेरे गीत मेरा ही साज़ बने ,मैं स्वर एक ऐसा बन जाऊं
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ..||.
हिम्मत मैं बनूँ, हुंकार बनूँ,तेरे गुस्से की ललकार बनूँ
जो बोयें गुलामी की फसलें,उस गर्दन को तलवार बनूँ
तेरी आग में बस जल जाने दे,फिर भले राख मैं बन जाऊं
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ...||
गुलाम ना हो अब दिल कोई,हर रात जश्न-ए-आजादी हो...
सब खुशियाँ यूँ बेमोल बिके ,ना कोई कभी फरियादी हो...
आज़ाद फिजा इतराए जहाँ ,ऐसा भारत मैं बन जाऊं ..
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ..||
Monday, August 8, 2011
वो सफ़र एक नाव पर
पुरवाई चली एक यादों की
कुछ भीगे से नम मौसम भी
उड़कर पलकों की खिडकियों से
आ गए आँखों के कमरों में |
आवारा टूटे पत्ते सी
आवारा टूटे पत्ते सी
कोई शाम कहीं से बहकर
आज गिरी मेरे सपनों के आँगन में|
एक शाम जिसके दामन में
वो हसीन सफ़र है जो जहन के खुरदुरें पत्थरों पे
खामोश से उस मंज़र
अभी भी उतना ही ताजा है
जैसा मिट्टी पर चलायी हो उंगलियाँ किसीने रेशमी
वक़्त के साथ लिखावटें बदली नहीं है उसकी |
लगता है जैसे कल की ही बात हो
जब तुमने सफ़र तय किया हो
इस दिल की गीली रेत पर..
और तुम्हारे क़दमों के निशान
अभी भी जिंदा हो ....
उतने ही खालिस,उतने ही महफूज़ ...||
खामोश से उस मंज़र
दीवानी सी उस फिजा के अलावा
कोई ना था जिस शाम में|
चाँद के दिये में भी तेल थोडा कम था
तभी शायद फीका फीका सा रंग था उसकी लौ का ..
हवाएं भीगकर आयी थी
कहीं से प्रीत की बारिशों में ...हर साँस में घोल दे रही थी
दीवानगी थोड़ी सी |
रोम रोम भीगा था
उस प्यार की बदरी से |...
क्योंकि तुम बैठी थी सामने
नाव के दूसरी छोर पर ..
ये एहसास दिलाने के लिए कि
मेरी हमसफ़र हो तुम सन्नाटों की गूँजती आवाजें अनसुनी कर ,
मैं .सुन रहा था वो साज़ ..
जो सुना रही थी
तेरी नज़रें मेरी नज़रों को
धुन तेरी धड़कन की थी ,अलफ़ाज़ थे मेरे नाम के .. ||
मेरे नाम को अपनी मेहंदी में कहीं छिपाकर
छुआ था तुमने जब झील के पानी को
और हलचल दी थी सौगात में उसको
तब लगा था जैसे लहरों के संग ..
किनारों को छू लिया हो मेरे नाम ने भी
तुम्हारी मेहंदी की महक में खोकर ...||
तेरा होकर ....||
तेरा होकर ....||
......
फिर कुछ पानी के मोतियों को
अपनी हाथों की गोद में लेकर
सुस्ताने दिया था उन्हें अपने चेहरे की नर्म सेज पर
जिनपर लिखा तो कई बार..
जैसे सोती है मखमली थकी- हारी ओस
सुबह सुबह घास और हरे पत्तों के बिस्तर पर
.......
फिर देखा तुमने
मेरी ओर
एक हया समेटे आँखों में
जैसे कुछ लफ्ज़ रुके हो आकर
होठों की सरहद पे तेरे |
उठकर फिर उस छोर से मेरे पास आयी तुम
चेहरे को पास लाकर
बादलों में छिपते सूरज सा शरमाकर
कानों में एक ठण्डे झोंके की तरह
हलके से बोल दिया
एक मीठा सा सच |
वो तीन जादुई लफ्ज़जिनपर लिखा तो कई बार..
लेकिन कहा कभी नहीं..
क्योंकि वो अमानत तुम्हारी है...
क्योंकि वो अमानत तुम्हारी है...
किसी और को कैसे बेंच देता ..??
फिर धीरे से सौंप दिया तुमने
खुद को मेरे आग़ोश में
कुछ देर ठहरने दिया थके लबों को
मेरे लबों की चौखट पर...
और मैंने समझ लिया हर सच
यूँ ही तेरी ख़ामोशी से .....|
कुछ देर को जैसे बेखुद हो गया मैं..
अपने ही अक्स में समाकर
मदहोश हो गया मैं...||
........................ तभी सूरज की सुई सी एक किरण
चुभ गयी जोर से आँखों में
लगा जैसे कि कुछ गिरा कहीं फर्श पर
और टुकड़ा-टुकड़ा हो गया..
आवाजें तो आयी
पर निशान नहीं मिले,,,||
देखा तो बगल में तकिये पर
सन्नाटा खर्राटे भरकर सो रहा था...
आजकल वो ही साथ रहता है मेरे
संग खाता है ,पीता है,हँसता -रोता है....
तुम्हारे जान के बाद से
अच्छा दोस्त बन गया है मेरा...|
उसको बिना जगाये
एक तस्वीर निकाली
मेज पर रखी किताब से
अफ़सोस से एक हाथ फेरा
थोड़ी आँखों की नमी भी वारी उसपर ..
और फिर सहेज कर रख दिया उसी तरह सोये पन्नो के बीच ..
............
एक बार फिर समझाया खुद को..
ये नींदों की दुनिया कभी अपनी नहीं होती..
सपनों के डाकू अक्सर आकर
लूट जाते है बहुत कुछ....
ये नींदों की दुनिया कभी अपनी नहीं होती....||
ये नींदों की दुनिया कभी अपनी नहीं होती....||
Thursday, July 28, 2011
कुछ अपनी सी ....
आज पुरानी कुछ 'अपनी '
चीज़ों पर फिर से नज़र पड़ी
यूँ तो मुलाकात अक्सर होती है इनसे आते जाते
पर वक़्त कहाँ है आज कि खुद से भी
कर लूँ कुछ बातें ..!!!!
वक़्त धूल की परतें बनकर जमा हुआ था उनपर
बीते लम्हों की
एक भीनी ,सौंधी महक लिए
ज़हन की धुंधली यादों के कपड़ों से
उनको साफ़ किया ,
झाड़ा, पोंछा
जगाया , ख़ामोशी के बिस्तर पे
सोते कुछ नन्हे किस्सों को
फिर उनसे भी कुछ बातें की ....
आज पुरानी कुछ 'अपनी '
चीज़ों पर फिर से नज़र पड़ी ||
एक पुराना बैट है टूटा
कभी शाम हुआ करती थी जिससे
अब बस झाँका करता है ,वो ऊपर टाल पर पड़े पड़े
फिर कब वैसी शामें होंगी!!
फिर से कब बच्चे खेलेंगे ..!!.
एक पुरानी डायरी है |
कोर्स की किताबों तले
अक्सर जो घुटती रहती है |
पन्नो पर उसके जैसे कुछ झुर्रियाँ सी पढ़ गयी हैं ..
उसमें ना जाने कितना कुछ
लिखा हुआ है यहाँ वहाँ |
कहीं किसी का नाम लिखा है ,कहीं बना है दिल
वो दीवानेपन के अफ़साने ,एहसास यही तो सुनती थी |
कभी रातों भर जाग जाग कर
कुछ किस्से लिखते थे इसमें ,
कभी तकिये के नीचे रखकर गुमसुम से सो जाते थे |
उन किस्सों के ही बीच दबा
एक फूल पुराना रखा है
जो किसी मोड़ पे रोककर दिया था किसीने
कुछ कसमों के बदले, ..अपना कहकर ,शरमाकर
आज भी महक जिंदा है उस लम्हे की उन पन्नो में ..........||
एक झूला भी है टूटा
जो बस सावन में लगता था
जब नीम की लम्बी बाहों पे
बचपन भी झूला करता था
अब तो नीम भी रहा नही ..
सावन में भी वो मज़ा नही...
सावन में भी वो मज़ा नही...
अब सबके घर अपनी -अपनी बाउंडरी है
उसी के अन्दर खेलते रहते है बच्चे सब के ..
अब सावन में वो नीम के नीचे महफ़िल नही सजा करती |
फटा हुआ एक लूडो है
बिन पासों के बिन गोटी के,जो मायूस ही बैठा रहता है ..
याद किया करता है वो दौर
जब दो नटखट बचपन लड़ते थे उसकी चौखट पर..
अब देखा करता है उनको लड़ते प्लेस्टेशन पर
एक परियों वाली किताब है
जिसको सीने से चिपकाकर कितने ही ख्वाब पिरोते थे
परियों की झूठी दुनिया में जाने को कितना रोते थे
एक फटी हुई आधी 'चम्पक 'और कुछ 'कॉमिक्स 'के टुकड़े है
'नागराज' और 'साबू ' के, कुछ पन्ने जिसमे उखड़े हैं....
एक पुरानी फोटो है
साइकिल पर बैठा हूँ जिसमे मै बाबा के संग |
पिछले हफ्ते ही पापा ने बेचा है उसको
एक कबाड़ी को..
पैसे भी मिले थे उसके
तब से सोच रहा हूँ कि क्या यादों की कीमत होती है..???...
एक पुराना चाबी वाला बन्दर है
जिसकी उछल कूद पे कभी ,मुस्काता था मेरा बचपन |
बिन चाबी अब पड़ा रहता है
किन्ही धूल भरे कोनों में ....
जब किसी रिश्तेदार के बच्चे आते है.
तो मरोड़ते है पूँछ..नोंचते है उसका मुँह...
एक गुडिया है दीदी की|
जिसको वो फ्रॉक पहनाया करती थी |
बिंदी लगाकर, चुन्नी उड़ाकर दुल्हन बनाया करती थी |
अलमारी पर सम्भाल के रखा है उसको..
मम्मी ने दीदी की शादी के बाद से |
देखा है कई बार ,अकेले कमरे में
उसे सीने से लगा कर रोया करती है वो |
कितनी ही चीज़ें है ऐसी
यूँ घर के कोनों में,
अलमारियों में ,टाल पे
खामोश पड़ी रहती है जो |
कोई जुम्बिश नही होती उनमे|
फिर भी वो साँसें लेती है
ताकि मेरी वो मासूम धुंधली यादें जिन्दा रह सकें उनमें |
कुछ तो अपनापन है इनमें |
कुछ तो अपनापन है इनमें ||
..................
आज लगा जैसे सच में
"अपनी "
चीज़ों पर नज़र पड़ी ||||
Saturday, July 16, 2011
रैना बीती जाये ....
रैना बीती जाये ..
जितना ये सुलगे, उतनी जलूँ मैं
उतनी अगन भड़काए
रैना बीती जाये ...
काटे ये अँखियाँ सोवे ना देंवे,पलकों में तुझको समाये
सपनन में तेरे खोवे ना देंवे,नींद को आग लगाये
जिद करे ,लाचार करे, कोई कैसे इन्हें समझाए ...
रैना बीती जाये..
सेज ये लागे काँटन के जैसी,.दिल में चुभी सी जाये
बाहों के तेरे सिरहाने ओ सजना.नींद मुझे बस आये
रोया करूँ बस रातों में अब तो ,तकिया गले चिपकाये
रैना बीती जाये ..
चंदा को ताकूँ, बातें करूँ ,अब रात को मै तारन से
किस्से सुनाऊं चाँदनी को मै तेरे-मेरे मिलन के ..
आजा तू बस उन किस्सों की खातिर, काहे उन्हें झुठलाये
रैना बीती जाये....
आहट जो हो कोई द्वारे पिया तो लागे जैसे तू आये
झोंके में आके जैसे हवा के बाहों में मुझको समाये
कैसे जिया को मैं ये बताऊँ ,तू तो यूँ बस तडपाये
रैना बीती जाए....
चौखट पे बैठी ताक रही हूँ राह तेरे आने की
विरह सूखे संग गया ,अब बारी सावन आने की
बादल बन अब बरसो पिया ,अधर ये मेरे झुलसाये ..
रैना बीती जाये ..
रैना बीती जाये ....
पिया बिन
रैना बीती जाये ....
पिया बिन
रैना बीती जाये ....
Friday, July 15, 2011
आखिर कब तक ..???
आखिर कब तक ..???
आखिर कब तक सहेंगे ये घुटन,ये दर्द
रिसने देंगे इसे नसों में ,
बहने देंगे दिलों में खून के साथ-साथ..??
कब तक रंगने देंगे दीवारों को सुर्ख खून से.??
कब तक मुँह फेरेंगे उन घावों से
उन चोटों से, जो बेसबब ही अमानत सी बन गयी है हमारी...??
कब तक सड़ने देंगे सड़कों को ,गलियों को
उन बेजुबान मंज़रों से
जिनमे दम तोड़ता है
हमारा जज्बा
हमारा सब्र,.....
कब तक मरहम लगायेंगे दुखते नंगे घावों पर ??
कब तक लाशों की बिसात पर एक महफूज़ सुबह की झूठी नींव रखेंगे ..??
कब तक अपनी लाचारी का बहाना देकर फुसलायेंगे उन बेज़ार आँखों को
जिन्होंने अभी अभी सीखा है
एक झटके में बेसहारा होना ..??
जिसने अभी अभी समझौता किया है अपने जीने की हसरत से ...
कब तक रंजिशों और तौहीन की आग में जलने देंगे इंसानियत को
एक आम जिंदगी को...???
कब तक करेंगे सौदे जिंदगी के
अपनी बेबसी के बदले ......???
आखिर कब तक....???
बदलना होगा ,मजबूत करना होगा
खुद को ,हौसलों को,
तोड़ने होंगे सब रिवाज़ ,
बदलनी होंगी आदतें,
चीखों को तरानों की तरह सुनने की
दस्तूर बदलना होगा मातम मनाने का..
जिन्दा रखनी होगी हर टीस, हर खलिश
जो दफ़न हो जाती है वक़्त के साथ ..
रोकना होगा दीवारों और दिल पे लगे खून के धब्बों को
धुंधला होने से ,अपना रंग खोने से....
बांधनी होगी हर डोर ,हर एक कड़ी ,
बनना होगा एक आवाज़ एक साज़...
इस बार यही पयाम ,यही इंतकाम .....
आखिर कब तक सहेंगे ये घुटन,ये दर्द
रिसने देंगे इसे नसों में ,
बहने देंगे दिलों में खून के साथ-साथ..??
कब तक रंगने देंगे दीवारों को सुर्ख खून से.??
कब तक मुँह फेरेंगे उन घावों से
उन चोटों से, जो बेसबब ही अमानत सी बन गयी है हमारी...??
कब तक सड़ने देंगे सड़कों को ,गलियों को
उन बेजुबान मंज़रों से
जिनमे दम तोड़ता है
हमारा जज्बा
हमारा सब्र,.....
कब तक मरहम लगायेंगे दुखते नंगे घावों पर ??
कब तक लाशों की बिसात पर एक महफूज़ सुबह की झूठी नींव रखेंगे ..??
कब तक अपनी लाचारी का बहाना देकर फुसलायेंगे उन बेज़ार आँखों को
जिन्होंने अभी अभी सीखा है
एक झटके में बेसहारा होना ..??
जिसने अभी अभी समझौता किया है अपने जीने की हसरत से ...
कब तक रंजिशों और तौहीन की आग में जलने देंगे इंसानियत को
एक आम जिंदगी को...???
कब तक करेंगे सौदे जिंदगी के
अपनी बेबसी के बदले ......???
आखिर कब तक....???
बदलना होगा ,मजबूत करना होगा
खुद को ,हौसलों को,
तोड़ने होंगे सब रिवाज़ ,
बदलनी होंगी आदतें,
चीखों को तरानों की तरह सुनने की
दस्तूर बदलना होगा मातम मनाने का..
जिन्दा रखनी होगी हर टीस, हर खलिश
जो दफ़न हो जाती है वक़्त के साथ ..
रोकना होगा दीवारों और दिल पे लगे खून के धब्बों को
धुंधला होने से ,अपना रंग खोने से....
बांधनी होगी हर डोर ,हर एक कड़ी ,
बनना होगा एक आवाज़ एक साज़...
इस बार यही पयाम ,यही इंतकाम .....
Tuesday, June 7, 2011
एक सुबह तेरे जैसी.....
एक रात ने दस्तक दी , दरवाजे पर,,
कुछ लायी थी मेरे लिए,
अपने दामन में|
खिड़की के बाहर खड़े होकर,
बुलाया एक इशारे से..
और बिखेर दी आब-ओ-हवा में
सुबह थोड़ी सी...
हूबहू तुम्हारी तरह ,
नाज़रीन सी,शोख सी...||
परिंदों के शोर की
पायल पहनी थी उसने
जितना इतरा के चलती ,उतनी छन -छन करती ...||
फलक के आईने में बार-बार, अपना अक्स देखकर
सज रही थी वो (सुबह) ,
जैसे तुम सजा करती हो अक्सर
ड्रेसिंग टेबल के सामने ..
दांतों में क्लिप दबाकर
बालों को गर्दन के पीछे करके.....
पहले रात की काली परत उतारी
फिर थोड़ी कच्ची सी धूप मली गालों पे ,
परत दर परत नूर बिखरता जाता है
रंग निखरता जाता है...|
बार -बार,,अपनी बादल जैसी जुल्फों को
हटाती है अपने होठों से ,
ये नादान लटें एक भी मौका नही छोडती
उसके लबों को छूने का...
फिर ना मानने पर
एक ऊँगली में घुमाकर ,पीछे ले जाती है इन्हें कान के..
सच बताओ.. तुमने ही सजना सिखाया है ना इसे...??
कुछ दूर मकानों की एक बस्ती के पीछे तभी एक सूरज दिखा ,
एडियों पे खड़ा होकर उचकता हुआ..
मुझे हाथ हिलाकर "गुड मॉर्निंग" कहता हुआ
वैसे ही जैसे हर सुबह तुम कहती हो...एक दिलनशीं अंदाज़ में..
उस सुबह का हर एक झोंका छूता था तो लगता था
जैसा अपनी साँसों से छू लिया हो तुमने .
फिर एक सिहरन सी मच जाती थी सिर से पाँव तलक
लगता था जैसे तुम्हारा वो ठंडा सा आँचल अभी अभी
गुज़रा हो मेरे होठों को छूता हुआ...सिर के ऊपर से.फिसलता हुआ.......
फिर ये बादलों को संवारती है ,हर एक सिलवट को सुधारते हुए
जैसे तुम सँवारा करती थी सिकुड़नें अपनी साडी की ...
सचमुच ये तुम्हारी हमशकल ही तो है
इसलिए रोज़ सुबह के बहाने मिलने आ जाता हूँ तुमसे
मालूम है ,कि इससे कुछ ख्वाबों की बस्तियां जल जाती है
लेकिन हकीकत की कुछ तो कीमत होती है ना.........
कुछ लायी थी मेरे लिए,
अपने दामन में|
खिड़की के बाहर खड़े होकर,
बुलाया एक इशारे से..
और बिखेर दी आब-ओ-हवा में
सुबह थोड़ी सी...
हूबहू तुम्हारी तरह ,
नाज़रीन सी,शोख सी...||
परिंदों के शोर की
पायल पहनी थी उसने
जितना इतरा के चलती ,उतनी छन -छन करती ...||
फलक के आईने में बार-बार, अपना अक्स देखकर
सज रही थी वो (सुबह) ,
जैसे तुम सजा करती हो अक्सर
ड्रेसिंग टेबल के सामने ..
दांतों में क्लिप दबाकर
बालों को गर्दन के पीछे करके.....
पहले रात की काली परत उतारी
फिर थोड़ी कच्ची सी धूप मली गालों पे ,
परत दर परत नूर बिखरता जाता है
रंग निखरता जाता है...|
बार -बार,,अपनी बादल जैसी जुल्फों को
हटाती है अपने होठों से ,
ये नादान लटें एक भी मौका नही छोडती
उसके लबों को छूने का...
फिर ना मानने पर
एक ऊँगली में घुमाकर ,पीछे ले जाती है इन्हें कान के..
सच बताओ.. तुमने ही सजना सिखाया है ना इसे...??
कुछ दूर मकानों की एक बस्ती के पीछे तभी एक सूरज दिखा ,
एडियों पे खड़ा होकर उचकता हुआ..
मुझे हाथ हिलाकर "गुड मॉर्निंग" कहता हुआ
वैसे ही जैसे हर सुबह तुम कहती हो...एक दिलनशीं अंदाज़ में..
उस सुबह का हर एक झोंका छूता था तो लगता था
जैसा अपनी साँसों से छू लिया हो तुमने .
फिर एक सिहरन सी मच जाती थी सिर से पाँव तलक
लगता था जैसे तुम्हारा वो ठंडा सा आँचल अभी अभी
गुज़रा हो मेरे होठों को छूता हुआ...सिर के ऊपर से.फिसलता हुआ.......
फिर ये बादलों को संवारती है ,हर एक सिलवट को सुधारते हुए
जैसे तुम सँवारा करती थी सिकुड़नें अपनी साडी की ...
सचमुच ये तुम्हारी हमशकल ही तो है
इसलिए रोज़ सुबह के बहाने मिलने आ जाता हूँ तुमसे
मालूम है ,कि इससे कुछ ख्वाबों की बस्तियां जल जाती है
लेकिन हकीकत की कुछ तो कीमत होती है ना.........
Saturday, June 4, 2011
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा
...कि जितना ढकता हूँ खुद को
उतना ही खुलता जाता हूँ ...||
करता हूँ कोशिश हर बार
छू लूँ तुझे चुपके से मैं ,
एक बार तो जी लूँ ज़रा |
कुछ बूँदें तेरी बारिश की
मीठी सी मैं पी लूँ ज़रा ||
पर कैसी ना जाने प्यास ये
कि जितना बरसता है बादल
उतना तरसता जाता हूँ..||
जिंदगी ये आँचल कैसा है तेरा...
हर एक टुकड़ा कतरा कतरा
महफूस करने की है जिद ...
लम्हों के सारे ये मोती
रखता हूँ दिल से बाँधकर|
कहीं खो ना जाये कुछ अपना
इस बात का लगता है डर|
पर ना जाने धागे ये
कैसे अजब से है तेरे
कि जितना बाँधता हूँ इन्हें
उतना ही बिखरता जाता हूँ| ....
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा.....
कितने समाये रंग तुझमें
सबकी अलग अपनी अदा
रंगीन सब मौसम तेरे
रंगीन तेरी हर फिजा...
पर ये कैसे रंग तेरे..
कुछ में कभी सँवरता हूँ
तो कुछ में खुद ही गुम हो जाता हूँ
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा....
है दरिया तू बहता हुआ
थामे हुए हर छोर को
चुप्पी से पी जाता है तू
हर उफनते शोर को ..
जो मैं किनारे पर खड़ा
तो कुछ मज़ा आता नही
लहरों का लेने को मज़ा
खुद को डुबाता जाता हूँ..
पर ना जाने दरिया का उसूल कैसा ये गजब
कि जितना जाता अन्दर हूँ,उतना उबरता जाता हूँ |
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा .......
...कि जितना ढकता हूँ खुद को
उतना ही खुलता जाता हूँ ...||
करता हूँ कोशिश हर बार
छू लूँ तुझे चुपके से मैं ,
एक बार तो जी लूँ ज़रा |
कुछ बूँदें तेरी बारिश की
मीठी सी मैं पी लूँ ज़रा ||
पर कैसी ना जाने प्यास ये
कि जितना बरसता है बादल
उतना तरसता जाता हूँ..||
जिंदगी ये आँचल कैसा है तेरा...
हर एक टुकड़ा कतरा कतरा
महफूस करने की है जिद ...
लम्हों के सारे ये मोती
रखता हूँ दिल से बाँधकर|
कहीं खो ना जाये कुछ अपना
इस बात का लगता है डर|
पर ना जाने धागे ये
कैसे अजब से है तेरे
कि जितना बाँधता हूँ इन्हें
उतना ही बिखरता जाता हूँ| ....
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा.....
कितने समाये रंग तुझमें
सबकी अलग अपनी अदा
रंगीन सब मौसम तेरे
रंगीन तेरी हर फिजा...
पर ये कैसे रंग तेरे..
कुछ में कभी सँवरता हूँ
तो कुछ में खुद ही गुम हो जाता हूँ
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा....
है दरिया तू बहता हुआ
थामे हुए हर छोर को
चुप्पी से पी जाता है तू
हर उफनते शोर को ..
जो मैं किनारे पर खड़ा
तो कुछ मज़ा आता नही
लहरों का लेने को मज़ा
खुद को डुबाता जाता हूँ..
पर ना जाने दरिया का उसूल कैसा ये गजब
कि जितना जाता अन्दर हूँ,उतना उबरता जाता हूँ |
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा .......
Sunday, April 24, 2011
कुछ आज तुमसे कह दूँ.....
कुछ आज तुमसे कह दूँ,
मै फिर ये सोचता हूँ |
जब खुद खुदा ने अपने घर से मुझे निकाला,
तब कोख में महीनों ,तूने ही मुझको पाला
सहकर वो दर्द मेरा ,आँसूं पिए वो सारे
मुझपे वो सारी जन्नत ,सब रिश्ते मुझपे वारे
तब से है कहना चाहा ,जो अब मैं सोचता हूँ
कुछ आज तुमसे कह दूँ ,
मै फिर ये सोचता हूँ||
जब हाथों में लेकर अपने
छोटे से मेरे तन को,
अपने होठों के काजल से ,टीका लगाया तुमने
ताकि नज़र ना लग जाये मुझे कहीं किसी की |
अपनी साड़ी के पल्लू ,से मुँह से छलकते दूध को पोंछा था तुमने
ताकि गन्दा ना हो जाये मेरा चेहरा कहीं |
पूरी रात उन दो छोटे तकियों के बीच मुझे लिटाकर ,
खुद मेरी ही ओर करवट करके जागती रही तुम
ताकि तुम्हारी ममता को भेदकर कोई परेशानी ना छू जाये मुझे |
मुझे बिस्तर पे लिटाकर ,ज़मीन पे बिठाकर ,
तेरा रसोई में जाना
ये जानकर भी ,मुझे कुछ ना होगा
हर पांच मिनट बाद मेरी तरफ एक फ़िक्र भरी निगाह से देखना और मुस्कराना |
मुझसे दो कदम दूर खड़े होकर पास बुलाना ,
मेरा ललकना तेरी ओर ,लड़खड़ा के फिर गिर जाना
फिर उठना तुझे छूने की कोशिश में
और मेरे पास पहुँचते ही तेरा फिर से दूर हो जाना |
है याद कैसे मुझको चलना सिखाया तुमने ....
हाथों में ले कटोरी ,मुझे सामने बैठाना ,कहानियाँ सुनाना
और इसी बहाने से मेरे पेट का भर जाना
मेरी पढाई के बारे में ज्यादा ना जानकर भी मुझे बार-2 कोंचना,
कैसे भी करके मुझको लायक बनाया तूने
सुबह नींद को हरा कर जल्दी से जाग जाना ,
कि कहीं मुझे भूखा ही स्कूल ना जाना पड़ जाये
भरी दोपहर में अपनी साड़ी से मुह ढँककर ,मेरी बस की राह तकना
और आते ही मेरे थके कन्धों से वो बोझा उतार लेना ||
मेरी गन्दी आदत पे मुझे पैसे देने से मना कर देना ,
पर मेरी बर्थ -डे पर अपने जोड़े हुए पैसों से चुपके से मेरे लिए साइकिल मँगाना,
मेरी हर गलत आदत पर डाँटना मुझको,
पर बुखार के समय
घंटों मेरे बगल में बैठकर वो सिर पर पट्टियाँ बदलना|
मुझसे अनबन हो जाने पर एक जोर का थप्पड़ मारना ,
पर बाद में चुपके से रसोई में जाकर खुद आटा सानते -सानते आँसूं बहाना
कॉलेज में आ गया ,बड़ा भी हो गया हूँ
मालूम है ये तुमको भी ,
पर फिर भी हर रात फ़ोन पे ये पूछती हो- "आज खाना खाया???"
मेरी आवाज़ की उदासी को .फ़ोन के साज़ से ही समझ जाना
ना जाने कितनी यादें हैं
ना जाने कितनी बातें हैं
जिनके लिए पूजूँ तुझे
हर बार सोचता हूँ
पर हूँ बड़ा नालायक ,कुछ कह नही हूँ पाता
तो आज तुमसे कह दूँ .मै फिर ये सोचता हूँ ....
यही था मुझको कहना ,यही मै सोचता हूँ |||
मै फिर ये सोचता हूँ |
जब खुद खुदा ने अपने घर से मुझे निकाला,
तब कोख में महीनों ,तूने ही मुझको पाला
सहकर वो दर्द मेरा ,आँसूं पिए वो सारे
मुझपे वो सारी जन्नत ,सब रिश्ते मुझपे वारे
तब से है कहना चाहा ,जो अब मैं सोचता हूँ
कुछ आज तुमसे कह दूँ ,
मै फिर ये सोचता हूँ||
जब हाथों में लेकर अपने
छोटे से मेरे तन को,
अपने होठों के काजल से ,टीका लगाया तुमने
ताकि नज़र ना लग जाये मुझे कहीं किसी की |
अपनी साड़ी के पल्लू ,से मुँह से छलकते दूध को पोंछा था तुमने
ताकि गन्दा ना हो जाये मेरा चेहरा कहीं |
पूरी रात उन दो छोटे तकियों के बीच मुझे लिटाकर ,
खुद मेरी ही ओर करवट करके जागती रही तुम
ताकि तुम्हारी ममता को भेदकर कोई परेशानी ना छू जाये मुझे |
मुझे बिस्तर पे लिटाकर ,ज़मीन पे बिठाकर ,
तेरा रसोई में जाना
ये जानकर भी ,मुझे कुछ ना होगा
हर पांच मिनट बाद मेरी तरफ एक फ़िक्र भरी निगाह से देखना और मुस्कराना |
मुझसे दो कदम दूर खड़े होकर पास बुलाना ,
मेरा ललकना तेरी ओर ,लड़खड़ा के फिर गिर जाना
फिर उठना तुझे छूने की कोशिश में
और मेरे पास पहुँचते ही तेरा फिर से दूर हो जाना |
है याद कैसे मुझको चलना सिखाया तुमने ....
हाथों में ले कटोरी ,मुझे सामने बैठाना ,कहानियाँ सुनाना
और इसी बहाने से मेरे पेट का भर जाना
मेरी नन्ही काँपती उँगलियों को सहारा देकर उन्हें अक्षरों का खेल सिखाना|
है याद कैसे मुझको लिखना सिखाया तूने मेरी पढाई के बारे में ज्यादा ना जानकर भी मुझे बार-2 कोंचना,
कैसे भी करके मुझको लायक बनाया तूने
सुबह नींद को हरा कर जल्दी से जाग जाना ,
कि कहीं मुझे भूखा ही स्कूल ना जाना पड़ जाये
भरी दोपहर में अपनी साड़ी से मुह ढँककर ,मेरी बस की राह तकना
और आते ही मेरे थके कन्धों से वो बोझा उतार लेना ||
मेरी गन्दी आदत पे मुझे पैसे देने से मना कर देना ,
पर मेरी बर्थ -डे पर अपने जोड़े हुए पैसों से चुपके से मेरे लिए साइकिल मँगाना,
मेरी हर गलत आदत पर डाँटना मुझको,
पर बुखार के समय
घंटों मेरे बगल में बैठकर वो सिर पर पट्टियाँ बदलना|
मुझसे अनबन हो जाने पर एक जोर का थप्पड़ मारना ,
पर बाद में चुपके से रसोई में जाकर खुद आटा सानते -सानते आँसूं बहाना
कॉलेज में आ गया ,बड़ा भी हो गया हूँ
मालूम है ये तुमको भी ,
पर फिर भी हर रात फ़ोन पे ये पूछती हो- "आज खाना खाया???"
मेरी आवाज़ की उदासी को .फ़ोन के साज़ से ही समझ जाना
ना जाने कितनी यादें हैं
ना जाने कितनी बातें हैं
जिनके लिए पूजूँ तुझे
हर बार सोचता हूँ
पर हूँ बड़ा नालायक ,कुछ कह नही हूँ पाता
तो आज तुमसे कह दूँ .मै फिर ये सोचता हूँ ....
यही था मुझको कहना ,यही मै सोचता हूँ |||
Tuesday, April 19, 2011
एक चाँद देखा मैंने ......
एक चाँद देखा मैंने ,
बिन चाँदनी तड़पता|
तन्हाई में ,गुमसुम सा
आसमाँ में भटकता.......
है आज पूरा गोल वो,
लगता है सेहरा बाँधकर ,
कुछ कहने किसीको आया है..
या फिर खुद चाँदनी ने चुपके से उसे बुलाया है...???
मायूस सा फिरता है, तारों के उस शहर में ,
उन बेगानों की भीड़ में कोई अपना कहाँ मिलेगा ???
जो थामे हाथ हर मोड़ पर ,हर पल जो संग चलेगा.........
ये सब तो बस आवारा है ,
आ जाते है रात बिताने , इस आसमाँ की छत तले...|
सुबह होते ही इन सबको निकल जाना है ..
तो फिर इन गैरों से क्या दिल लगाना है...
बस बादलों की चादर से
खुद को ज़रा सा ढककर,
कोशिश थी की उसने ,
फलक के तकिये पे सिर रखकर ,
कि नींद के बहाने आये फिर से उसका सपना ..
जिसको कहा है उसकी धड़कन ने उसका अपना....
मन में थी कुछ तड़प..
आँखों में आसूँ भी थे
कुछ चेहरे पे निशा उसकी उदासी के भी थे |
जो लगता था दूर से कि ,उसके चेहरे पे दाग है बड़े ..
वो आज देखा मैंने कि रोया है वो इतना
अपनी चाँदनी की तड़प में
कि आँखों के नीचे उसकी काले घेरे हैं पड़े.....
कोई चाँदनी से कह दे,कि है कोई आवारा..
जो बस उसी की खातिर, फिरता है मारा -मारा
जो ख़ामोशी से हर रात उसकी राहों को तकता है
उसकी हर आहट,हर हरकत पे, जिसका दिल वो धड़कता है....
---------------------
तभी सुबह के हाथों ने इन गालों को थपथपाया
जब तक मै कुछ समझता,
सूरज था निकल आया||
हुआ एक और क़त्ल ..
एक रात फिर से जल गयी..
कुछ कहने की वो आरज़ू
कश्मकश में ही पिघल गयी...
है फिर भी ये भरोसा ,ये फिर भी आरज़ू है
जो आज हुई सुबह ,तो कल फिर से रात होगी
जो आज रह गयी अनकही अनसुनी,
तेरे मेरे दरमियान, कल फिर से वही बात होगी....
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