Wednesday, March 9, 2011

नया क्षितिज

'कौन कहता है आसमाँ में ,छेद नहीं हो सकता
.                                      एक पत्थर तो हिम्मत से उछालों यारों |'

                                        

                                            




किसी शायर ने जब ये मिसरे कहे होंगे , तब ये ना सोचा होगा कि इनके भावों की गहराईयों में खोकर ये जिंदादिल इंसान क्या खूबसूरती नहीं गढ़ देगा ???लेकिन आज जब मानव की परिकल्पनाएँ उसके अद्भुत ज्ञान के साथ मिलकर नित नवीन रूप धारण करती हैं ,तब निश्चित ही उस शायर की रूह मुस्का देती होगी |पुरातन काल के उस नग्न मानव से लेकर आज के इस सफल परिवर्तक तक ,मानव ने क्या नहीं किया???जो भी हो सकता था ,जितना वो सोच सकता था ,जितनी कल्पनाओं की सीमा थी उतनी दूर गया,किन्तु उसके बाद भी उसकी अनुसंधिषु प्रवृत्ति उसे सदा ही नये रास्तों की ओर ढकेलती रही ,एक नये क्षितिज के दर्शन कराती रही जो उसके लिए अब भी अनछुआ था ,अज्ञात था |
मानव की यही आदत ,किंवा उसकी यही काबिलियत उसे बाकी चेतन जातियों से इतर करती रही |इसका साक्षात् प्रमाण हम देखते है आजकल के समय में उसकी बनायीं हुई चीज़ों में| जब आज एक बटन के दबने पर कोसों दूर बैठे व्यक्ति से बात होने लगती है ,जब घर बैठे -२ अपने फ़ोन से सारी दुनिया उँगलियों का खेल बन जाती हैं ,जब असंभव से लगने वाले कई काम विवशतः संभव की श्रेणी में आकर गिरने लगते हैं तब लगता है कि सचमुच 'मानव विधाता की  सर्वश्रेष्ठ कृति है ' |
ऐसा ही कुछ हाल ही के समय में मानव ने मोबाइल फ़ोन की दुनिया में किया |अपने करामाती हाथों से इस क्षेत्र को जितनी बारीकी से उसने सजाया वो काबिल ए तारीफ है |यहाँ हम बात कर रहे है आधुनिक ३-जी मोबाइल तकनीक की, जिसने अंतर्राष्ट्रीय मोबाइल संचार प्रणाली(International Mobile Telecommunication) में अविश्वसनीय परिवर्तन या यों कहे कि परिमार्जन किये | जो सीमाएँ २-जी तकनीक को बाँधे हुए थी ,उन्हें विस्तार देना कोई मजाक नहीं | अब हम तीव्र गति से इन्टरनेट का उपयोग कर सकते हैं, सजीव प्रसारण (मोबाइल टीवी )देख सकते हैं,विडियो कॉल कर सकते हैं,और ना जाने क्या-क्या ......|ये सब कुछ बताना इतना जरुरी इसलिए नहीं लगता ,कि अब ये बातें शायद वर्णन की मोहताज नहीं रही|हमारी आधुनिक पीढ़ी ने कितने सत्कार के साथ इसका स्वागत किया है ,ये इस तकनीक के मोबाइल फ़ोन के आंकडें बता देते हैं|
सारस्वरूप बस यही कहना है - ' सर्वाइवल ऑफ़ दा फिटेस्ट' का सिद्धांत तो हम सब जानते है ,३-जी तकनीक ने बस इसे थोडा सा और भावसम्मत कर दिया है| जो सुविधा इसके कारण हमें मिली उसके लिए सबकी ओर से एक हार्दिक प्रणाम- मानव को|आशा करता हूँ कि आगे भी हम इसी तरह अपने ज्ञान को मानव जीवन के श्रृंगार में लगा पाएँगे |

                                               

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Friday, March 4, 2011

परहित सरिस धर्म नहीं भाई

आँख- खुली  है या बंद इसका निर्णय अक्सर वो संसार करता है जो इनके झरोखे से देखा जाता है |खुली आँखों से कोई वास्तविक संसार देख लेता है ,तो बंद आँख से किसी की कल्पनाओं को पर मिल जाते है|थकान भरे दिन के बाद जब पलकों से नींद का बोझ सहा नहीं जाता और वो आँखों को ढकने पर ही आमादा हो जाती हैं तब ये पता ही नहीं चलता कि इस बार कौन सी कल्पना स्वप्न का रूप लेगी ???कारण कोई भी व्यक्ति,वस्तु या घटना विशेष हो सकती है |कभी हम अपनी वास्तविकता से परे किसी दूसरे लोक में चले जाते है तो कभी किसी सुंदर चेहरे की कल्पना और उससे मिलने के प्रयास में ही रात बीत जाती है |कभी कोई भयानक दृश्य पलकों को डरा देता है तो कभी किसी से अलग होने के दुःख में डूबते -डूबते ही सूर्य उग जाता है  |
                               एक दिन स्कूल से बहुत थका हारा लौटा |क्षमता से ज्यादा ही खेल लिया था इसलिए  हाँफने तो  लगा ही था ,साथ ही साथ एक -एक कदम बढाने में लाले पड़े जा रहे थे |गला ऐसा सूख रहा था जैसे पृथ्वी पर पानी के सारे स्रोत ख़त्म ही हो गए हो |आते ही बस्ता एक ओर कोने में फेंका ,जूते मोज़े उतारकर तुरंत ही बिस्तर पर गिर पड़ा |घर में घुसते समय ही शर्ट की बटन खोल ली थी ताकि थोड़ी राहत मिले |सोचा थोड़ी देर सुस्ता लूँ  फिर हाथ मुँह धो लूँगा| थकावट ज्यादा थी इसलिए नींद आने में समय कम लगा |...
                             एकदम से क्या देखता हूँ कि मैं एक धुएँ से भरी जगह पर खड़ा हूँ ,दो लोग मेरे अगल बगल मेरे हाथों को इस तरह पकडे खड़े हैं जैसे मरने से पहले किसीने किसीसे क़र्ज़ लिया हो और अब वो अंतिम साँसें गिन रहा हो|सामने एक अजीब सा व्यक्ति ऊँचे, सिंहासन  सरीखे सोफे पर  बैठा  है |गले में माला |,हाथ कुर्सी पर इस कदर टिकाये हुए जैसे मिस्टर इंडिया का अमरीश पुरी हो |उसके सामने एक दूसरा आदमी भी खड़ा था ,वेश एकदम राजाओं जैसा था लेकिन बातें एकदम भिखारी जैसी कर रहा था वो| इससे पहले कि मैं कुछ भी समझ पाता या पूँछता उस सिंहासन वाले आदमी ने कड़कती आवाज़ में अपना परिचय देते हुए बोला -"मै यमराज |||बोलो क्या दिक्कत है  ................??"इतना बोलते ही वो आदमी गिड़-गिड़ाने लगा और बोला ....''महाराज मेरे राज्य में सब बहुत पीड़ित हैं ,बहुत दुखी ,जबकि पड़ोस के राज्य में चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली है |हर कोई अपने जीवन से संतुष्ट और सुखी दिखता है|दोनों ही राज्यों के पास समान शक्ति ,संसाधन और लोग हैं ,फिर मेरी प्रजा के साथ ऐसा अन्याय क्यों ? "
                       उस समय उसकी वाणी सुदृढ़ होती लग रही थी ,क्योंकि शायद वो उसके अनुसार अपने या अपने लोगों के अधिकार की माँग कर रहा था |  इतना सुनते ही उस तथाकथित  यमराज के किरदार ने  अपने आदमियों से कुछ इशारा किया ,जो मेरे दोनों हाथ पकडे हुए थे |वो किस बात का इशारा था मुझे नहीं पता ,लेकिन उसके बाद एक ने मेरा एक हाथ छोड़ा और जाकर उस आदमी  का हाथ  पकड़ लिया|फिर वो उसे खींच कर एक जगह ले जाने लगा |मै अपना दिमाग दौड़ा पाता उससे पहले ही यमराज ने मुझे भी साथ ले जाने का निर्देश दे दिया |वो आदमी चिल्लाने लगा- "महाराज ये तो अन्याय है|और मैं ये समझने में ही लगा था कि आखिर मेरे साथ हो क्या रहा है ?मैं तो बेवजह पिस रहा था |(पिसता भी क्यों ना!!!स्वप्न मेरा ही था ,तो सुभाष घई की तरह 'गेस्ट अपियरंस' तो देनी ही थी  )

                    मै कुछ नहीं कर सकता था ,इसलिए बस चलता रहा ,जहाँ भी ले जाया गया |पहली बार कदम जहाँ जाकर रुके ,वहाँ देखा कि एक बड़ी सी मेज सजी है खाने के लिए| खूब बड़े बड़े दोने है जिनमें खूब सारा स्वादिष्ट खाना भरा है| मेज पर खूब बड़ी बड़ी चम्मचें (जिनका आकार हाथ से भी बड़ा) रखी हुई हैं|और जो लोग उस खाने को खाने वाले थे वो सब हम ही लोगों के बराबर |सब के दोनों हाथ एक साथ बँधे हुए थे |खाने की शर्त ये थी कि खाना चम्मच से ही खाना है |हर व्यक्ति खाने पर टूट पड़ रहा था लेकिन चम्मच इतनी बड़ी थी कि उनसे कोई खा ही ना पाता ,आपस में सब लड़े जा रहे थे|एक दूसरे को गुस्से से घूरते सब अपनी भूख मिटाने की कोशिश में जुटे ,इस कद्र परेशान थे कि लग रहा था ,जैसे एक दूसरे को मार ही डालेंगे |

                     हम लोगों को ये दृश्य दिखाया गया |फिर बिना कुछ बताये हमें किसी दूसरी जगह ले जाने का प्रयास किया जाने लगा |खैर हम तो बंधक थे ,दिमाग क्या चलाते !!बढ चले जिस ओर हाँका गया |दूसरी जगह पहुँचे तो वहाँ भी परिस्थितियाँ वही थी, लेकिन दृश्य एकदम विपरीत था|वहाँ भी बड़ी सी मेज,बड़े दोनों में खाना ,बड़ी चम्मचें इत्यादि थी | लोगों के हाथ अब भी बँधे थे और खाने की शर्त यहाँ भी वही थी ,परन्तु आश्चर्य की बात तो यह थी यहाँ पहले की तरह खाने के लिए  कोई मारामारी नहीं मची हुई थी |सब लोग प्रसन्न थे ,संतुष्ट थे और खाना खा रहे थे |यहाँ कोई भी भूखा नहीं दिख रहा था |
      
                   मुझे समझ में नहीं आया कि ऐसा क्या था जो सब कुछ समान होने के बावजूद दोनों जगह के हालातों में इतना अन्तर था ???? हिम्मत करके मैंने उन दोनों आदमियों से पूँछा |तभी यमराज वहाँ आए और उन्होंने जो कहा उससे हर बात एकदम साफ़ हो गयी |उन्होंने बताया कि जिस जगह हम लोग पहले आये  थे वहाँ हर आदमी भूखा,दुखी  इसलिए था क्योंकि वो सिर्फ  अपना पेट भरने के बारे में सोच रहा था |चम्मचें इतनी बड़ी थी कि उनसे कोई व्यक्ति खुद नहीं खा सकता था |इसलिए कोई भी अपनी चम्मच से खुद नहीं खा पा रहा था |दूसरी जगह हर व्यक्ति दूसरे का पेट पहले भर रहा था |हर व्यक्ति अपनी चम्मच से दूसरे के मुँह में खाना डाल रहा था और इस तरह से सबको बारी बारी से खाने को मिल रहा था | 
      
                    ये सब सुनते ही वो दूसरा आदमी जो राजा था सब कुछ समझ गया |बोला-'महाराज ,मैं जान गया |मेरे राज्य में सब लोग बड़े लोभी हैं ,स्वार्थी हैं ,अपना हित पहले देखते  हैं ,और शायद यही कारण है कि हम सब हमेशा पीड़ित रहते है |दूसरे राज्य में लोग अपना हित बाद में ,पहले दूसरे का हित देखते  हैं इसलिए ही वो लोग खुश रह पाते हैं |किसीको किसीसे द्वेष नहीं है ,और यही उनके सुखी होने का कारण| .........,'
                    तभी मम्मी के एक थप्पड़ से मेरी नींद टूट गयी,खाली इतना सुनाई दिया - 'ए नालायक ,चल हाथ मुँह धो जल्दी ,बिस्तर पर पसरा है...........|  
            
     
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बचपन की मजबूरी

                  बचपन -मस्ती का एक ऐसा पर्याय जिसमें कल्पनाओं को हम सीमा की रेखाओं में नहीं बाँध सकते ;जिसमें मन की सारी प्रवृत्तियाँ ,सारी इच्छाएँ अपने भोलेपन से रह -रह कर हर एक भावपूर्ण ह्रदय को आनंदित करती रहती हैं ;जिसमें ख़ुशी के लिए किसी बड़े आकर्षण की अपरिहार्यता नहीं रहती ,ह्रदय कागज़ के बने हवाई जहाजों को उड़ते और कागज़ की नावों को पानी में बहता देखकर ही झूम उठता है |पर क्या होगा यदि ये बचपन अपनी मस्ती,अपनी स्वभावगत स्वछंदता ,अपना भोलापन ही खो दे ??प्रश्न गंभीर है और आधुनिक सुधियों के लिए चिंतन का विषय भी |
                  बड़े बुजुर्गों को अक्सर ये कहते सुना होगा -" अब वो बात नहीं रही ,हमारा वक़्त कुछ और था..... |"ये बात निस्संदेह वो अपने समय के पिछड़ेपन की शिकायत करने के  लिए नहीं कहते अपितु उन्हें शिकायत होती है उस कृत्रिम बोझिलता से जिसे हमने आधुनिकता का बहाना देकर ढो रखा है|जिस मासूमियत को उन्होंने जिया वो कहीं खो ना जाये -इस बात का डर है उन्हें |जब कॉलेज से पहली बार घर लौटा ,तो वापस वो गलियाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई जिनमें हम सब अपने में ही मग्न खेलते-कूदते रहते थे |ना उम्र का कोई बंधन था ,ना ही औपचारिकता की कोई जरुरत |कोई हमें आवारा कहता,कोई हमारा लड़कपन देखकर झूम उठता ,तो कोई हमारी मस्ती देख मन ही मन अपने बचपन में कहीं खो जाता |कोई ये सोचकर मुस्कुराता कि हमें भी ये वक़्त बार -बार नहीं मिलना |
                   कितना मजा आता था ,उन दिनों, जब सडको को मैदान मानकर उनमें ईंटों से बना स्टंप लगाकर खेला,जिसमें एक छोटी सी क्रिकेट की गेंद को फुटबॉल मानकर २२ -२४ लोग उसके पीछे भागते रहते ,जहाँ एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक एक दूसरे से छिपने छिपाने का स्वांग रचते रहते |जहाँ एक कटी पतंग को पकड़ने(लूटने ) पूरा कारवां निकल पड़ता था |शाम होते ही नज़रें जब घडी की सुइयों पर ही टिक जाती कि कब कोई खेलने की आवाज़ देना वाला मसीहा बुलाने आ जाए |अपनी आप से पहल करने में अपने ही घरवाले विरोध कर देते थे इसलिए दूसरे का सहारा लेना जरूरी था |एक छोटी सी गली में ही ना जाने क्या क्या खेल लिया जाता था |पर अब जब वो गलियाँ देखता हूँ ,तो कुछ सूना सा लगता है |वो खाली पड़ी सडकें अब दिन भर इन्तजार  में ही वक़्त काट देती हैं -कि कब कोई चहकती आवाज़ आये और अपने चंचल क़दमों से उसकी शांति को भंग कर दे | 
                         शाम अब भी उतनी ही सुनहरी होती है ,पर वो मौज अब नहीं दिखती |छोटे बच्चे कभी -कभार दिखते हैं ,लेकिन हाथ में गेंद या बल्ला लिए नहीं ,बल्कि कन्धों पर  बस्ता टाँगे हुए ,क्योंकि अब वो समय उनके ट्यूशन या कोचिंग  के लिए निर्धारित कर दिया गया है |बेचारे थक हार के आते है ,तो मूड सही करने के लिए घर में विडियो गेम और टी.वी. की व्यवस्था कर दी जाती है |हाँ मैं मानता हूँ की ऐसा हर जगह नहीं होता ,पर जहाँ होता है वहाँ इस बात को गंभीरता से लिया ही नहीं जाता ,समस्या ये है.....|बच्चा नर्सरी में जाता है और उसको बहला फुसला कर किसी जान पहचान के भैया,दीदी,बुआ किसी भी नाम के व्यक्ति के घर भेज दिया जाता है ताकि वो पढना सीख सके ,टिक कर एक जगह रहना सीख सके और फिर  ये परंपरा सी बन जाती है | भोला मन कभी विरोध नहीं करता इसलिए धोखा खाता ही है|लोगों का मत भी सुनिए तो अजीब लगता है जब वो ये कहते हैं कि इससे होता ही क्या है ...?बच्चा ट्यूशन  जाएगा तो कम से कम पढ़ेगा ,लिखेगा ,अच्छा  बनेगा |ऐसे गलियों में खेलकर क्या मिलेगा, आवारा ही तो बनेगा |अपनी इस नासमझी भरी  जिद में हम शायद कई जीवनों से उनका बचपन छीन लेते हैं|जब तक समझ आती है ,तब तक देर  हो चुकी होती है|
                       पढाई लिखाई,सब अपनी जगह महत्वपूर्ण है ,लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है ये जानना  कि इन्हें जीवन की कीमत अदा करके सीखा नहीं  जाता |एक बार वक़्त चला गया तो फिर वापस नहीं आयेगा ,इसलिए माना कि आधुनिक दौर में पढाई का बहुत बोझ है ,बच्चो के ऊपर,और उससे ज्यादा सम्मान बचाने का माता-पिता के ऊपर पर फिर भी बच्चों को बचपन जीने का कुछ वक़्त तो हम दे ही सकते है |बेहतर होगा कि उन्हें उसी मासूमियत के साथ पनपने दे ,जिसके लिए वो जानें जाते है और जिसकी वजह से बचपन ,जीवन का  सर्वाधिक यादगार समय  माना जाता है |उनपर बोझ ना डाले .....अभी तो खेलने -कूदने की उम्र है उनकी.....    
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Thursday, March 3, 2011

कीमत

सात साल हो गए इस बात को लगभग |मैं अपने  पापा के साथ कानपुर से लखनऊ जाने के लिए स्टेशन पर खड़ा ट्रेन का इन्तजार कर रहा था |परम्परानुसार ट्रेन देर से आई और फिर लोकल ट्रेन की खूबी तो सब जानते ही हैं |भयानक धक्का मुक्की ,जोर जबरदस्ती के बाद डिब्बे में घुसने को मिल ही गया |हम लोगों के लिए भले ही ये संघर्ष रहा हो पर कई लोगों के लिए ये उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा है |लोकल ट्रेन के डिब्बे में सफ़र करिए तो दुनिया भर के अनुभव आपको अपने इर्द गिर्द नाचते मिलेंगे |कोई बूढ़े बाबा अपने किस्से बाँटते हुए ,तो कुछ आंटियाँ  अपनी स्त्री -सुलभ पंचायत में व्यस्त ,कुछ मनचले लड़के अपनी शरारती खुसुर फुसुर में मगन और कुछ पिताजी की उम्र के लोग अपने स्वभाव की कृत्रिम गंभीरता छलकाते हुए|सबका अपना अलग ही अंदाज़ होता है |भीड़ में परेशान,उमस और घुटन से भरे हुए मनों में बस असंतुष्टि का एक तड़का ही लड़ाई की प्रखर ज्वाला का काम कर देता है |
                                       मैं पापा के साथ खड़ा ये सब देख रहा था क्योंकि बाकी लोगों की ओर नज़र दौडाने का काम वही लोग करते है जो खुद सीट नहीं पाते ,जो पा जाते हैं उन्हें नींद के अलावा और कुछ नहीं सूझता | अगर जागते भी है तो आँखों में ये स्वाभिमान लिए कि उनको जगह मिल गयी और जो खड़ा है वो उनके सामने दया का पात्र है|गाडी धीरे -२ खिसक रही थी और जब तक लय पकडती तब तक दूसरा स्टेशन आ जाता |वक़्त इसी गति- परिवर्तन के आनंद को महसूस करते हुए कट रहा था |
                    थोड़ी देर बाद एक ७-८ साल का लड़का वहाँ आया |शरीर पर एक फटी सी गन्दी कमीज ,हॉफ मटमैली पैंट ,पैर नंगे ,चेहरे पर धूल की परतें जमा ,हाथ में झाड़ू |उसने किसी  से कुछ ना कहा और फर्श पर झाड़ू लगाना शुरू कर दिया |ना जाने उस दिन भीड़ कम थी ,या वो ज्यादा अभ्यस्त था पर धीरे-धीरे उसने उस माहौल में भी फर्श को चमका दिया |फिर एक ईमानदार श्रमिक की भाँति उसने अपनी हथेली आगे की|लोगों से तरस माँगने के लिए नहीं  ,बल्कि अपने काम की कीमत माँगने के लिए , पर देखकर आश्चर्य  हुआ कि उसको देने के लिए बहुत कम ही लोगों की जेबों से एक सिक्का निकला |बमुश्किल ४-५ रुपये ही मिले होंगे ;पर वो कुछ नहीं बोला ,मन में संतोष और चेहरे  पर मुस्कान लिए वो दूसरे डिब्बे में चला गया ,बिना कोई याचनापूर्ण बात किये |
                लगभग १५ मिनट ही बीते थे कि एक भिखारी उस डिब्बे में आया |कर्कश सी आवाज़ में चिल्लाता हुआ जिसे वो गीत की संज्ञा दे रहा था|बस एक बार वो डिब्बे के एक कोने से दूसरे कोने तक अपना वही दुखभरा राग गाता हुए निकला  और हर सीट के आगे अपना सिक्कों वाला कटोरा छनकाया|सबने तो नहीं पर २४-२५ लोगों ने उसके कटोरे में अपनी मेहनत का एक अंश टपका दिया |मै ये देखकर हैरान था ,क्योंकि थोड़ी देर पहले उस छोटे लड़के  ने काम के बदले पैसे माँगे थे तो किसी के हाथ नही खुल रहे थे और इस भिखारी के करुणापूर्ण ,भिक्षा के स्वर ने लोगों से ज्यादा पैसा जीत लिया था |ये बात मेरे समझ में नहीं आई कि काम के बदले माँगने वाले के प्रति ऐसा रुक्ष व्यवहार और जिसने अपने हाथ याचना के स्वर में फैला दिए उसपर इतनी कृपा ????लोगों की संवेदना दिशा भटक गई थी या मेरी चेतना कुछ अधिक ही मासूम हो गयी थी , ये समझ में नहीं आया पर जो भी हुआ वो मेरे अनुसार अन्याय था ,उस नन्हे बालक की कर्मठता के साथ |खैर उस वक़्त मैं शायद इतना बड़ा नहीं था इन बातों को सोचने के लिए  या फिर यों कहूँ कि इतना समर्थ नहीं था कि बात की गंभीरता और मूलभूत वास्तविकता को समझ सकता |
                   दो साल बाद एक बार फिर मैं लोकल से सफ़र कर रहा था |एकदम से फिर से वही भिखारी अपने पुराने अंदाज़ में भीख माँगता हुआ डिब्बे में घुसा |वक़्त के साथ उसकी राग तो नहीं बदली थी लेकिन आवाज़ की कर्कशता को पंख लग गए थे |उसकी क्रिया और जनता की प्रतिक्रिया भी वक़्त के साथ बदली नहीं |इस बार मैं बैठा था तो थोडा अधिक आनंद उठा सकता था उस कडवाहट का |तभी एक आवाज़ ने धीरे से कहा-"भैया, पैर खिसका लो थोडा ...साफ़ करना है "|मैं एकदम से हडबडाया , फिर आवाज़ की ओर देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ |ये आवाज़ उसी लड़के की थी,जिसे दो साल पहले मैंने इसी तरह किसी डिब्बे में यही काम करते देखा था|लड़का भी थोडा बड़ा हो गया था लेकिन चेहरे से अब  भी वही खुद्दारी झलक रही थी |अतीत खुद को दोहराता है ये तो मालूम था पर इतनी जल्दी, ये नहीं सोचा था |सफाई करने के बाद उसने फिर से हथेली उसी ईमानदारी से आगे बढाई| इस बार मेरे पास पैसे थे तो देना मेरा फर्ज था |मै जेब से पैसे निकाल ही रहा था कि तभी वहाँ   खड़े किसी व्यक्ति ने मजाक में कह दिया ,कि "अरे झाड़ू मारने से कुछ नहीं होता ,गाना सीख ले छोटू| वो देख बाबा को ,एक गाना सुनाया और कट लिया पैसा उड़ा के .................."उसकी  इस बात पर  सब लोग हँसने लगे |समझ में नहीं आया कि इस बात में व्यंग्य ज्यादा था  या मूर्खता ,लोग सहमती में हँस रहे थे या  बात की इज्जत रखने के लिए  पर उसके बाद जो उस लड़के ने बोला वो सबको चुप कर गया |
                        एक मंद सी मुस्कान चेहरे पर लिए ,उस लड़के ने आत्मसम्मान से सिर उठाया और बोला -"साहब ,केवल पैसा कमाना हो तो , मैं भी इस देश के हर गली में भीख माँगते  लड़के की तरह अपने फटे हाल की गाथा सुनाता फिरूँ ,लोगों से याचना  करूँ और भरोसा दिलाता हूँ कि  बड़े आराम से जिंदगी काट लूँगा |इस देश में ये कोई बड़ी बात नहीं |पर छोटे में सुबह जब मै घर से निकलता , तो बीमार  माँ बस  यही बोलती कि  बेटा आज शाम को जो रोटी  लाना वो मेहनत के पैसे की लाना |मेरी माँ की तबियत खराब  रहती और मै खुद जानता  था  कि  वो ज्यादा दिन नहीं बच पाती ,पर फिर भी अपनी भूख मिटाने से पहले उसे मेरी  जिंदगी सँवारने की फ़िक्र थी |जब माँ बीमार थी  तब मेरा बाप कहीं भीख के पैसों से खरीदी शराब में ही धुत पड़ा रहता था |उसकी इसी हालत के कारण  शायद माँ ने  मुझे ये सिखाया था |कुछ दिन बाद माँ चल बसी लेकिन इस भरोसे के साथ कि उसका बेटा उसका कफ़न अपने मेहनत के पैसों से ही लायेगा |मै उस माँ का भरोसा कैसे तोड़ता ??दो दिन बाद  माँ के शरीर को मैंने आग दी और तबसे उसकी चिता की हर चिंगारी मुझसे  ये कहती है कि मै उससे किया हुआ वो वादा हमेशा निभाऊँ |मैं चाहूँ तो कैसे भी पैसे  कमा सकता हूँ ,लेकिन वो कैसे कमाए गए हैं इसका हिसाब किसी ना किसी को तो देना ही पड़ेगा..........."|

                                    इतना कहकर वो लड़का चला गया |सबके अन्दर सुन्सुनी सी छा गयी,कोई भी ५ मिनट तक कुछ भी नहीं बोल पाया |शायद वो लड़का जो बात सिखा गया था वो सीखने और समझने में हम पढ़े लिखे लोगों को सालों लग जाते हैं |....अब जब भी कभी किसी चीज़ को अनायास ही पा जाता हूँ,या बेईमानी से पैसा कमाने का ख्याल मन में आता है  तो उस लड़के की बातें मस्तिष्क पटल से गुज़र जाती है और मैं भी यही सोचकर रुक जाता हूँ कि इन सबका हिसाब कही ना कही तो किसी को देना ही पड़ेगा  ..............                                 

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Wednesday, March 2, 2011

सैर सपाटा

       "सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ 
                                जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ ||"


तारीख -२९ दिसम्बर  २००८ |शाम पाँच बजे जैसे  ही उस पेपर खत्म होने वाले हूटर ने आवाज़ दी हम सब के दिलों की घंटियाँ बज उठी |कारण -हमारा खट्ठे -मीठे अनुभवों से भरा हुआ ,अनोखा ,इंजीनियरिंग का पहला सेमेस्टर खत्म होने का संकेत हो गया था और अब हम लोग चंडीगढ़  घूमने  जाने  वाले  थे  |तुरंत हम लोग कॉलेज की ओर भागे और हॉस्टल में घुसते ही अपना सामान उठाया जो कि दो दिन पहले से ही बांध  लिया गया था ,क्योंकि हमारी ट्रेन ७:३० बजे की कालका मेल थी |मेरे साथ मेरे दो दोस्त और थे -अभिषेक (कपाल ) और मोहित (गजनी )|भागते -भागते स्टेशन पहुँचे तो भारतीय रेलवे ने अपना रंग दिखाया और ट्रेन ४ घंटे देरी से आई |जनरल  डिब्बा काफी आगे था और हम लोगो के ये भ्रम था कि हम लोग इतने साहसी और नवयुवक तो है ही कि जनरल की भीडभाड  में आसानी से सफ़र कर लेंगे,परन्तु जब हाफतें-2  बमुश्किल चढ़ पाए और दिल्ली पहुँचने पर जगह दिखी तो सारा भ्रम एक पल में चकनाचूर हो गया
 |जगह मिलते ही उस पर ऐसे टूट पड़े जैसे अंग्रेज हमारे भारत पर टूटे थे |उसके बाद कब नींद आ गयी ये तो नहीं मालूम ,लेकिन जब आँख खुली तब हमारा गंतव्य -'चंडीगढ़' आ चुका था |इसी जगह को चुनने का कारण ये था कि यहाँ मोहित के मामाजी का घर था ,तो रहने की कोई दिक्कत नही थी,,और मोहित ने काफी कुछ बता रखा था कि अच्छी जगह है ,घूमने लायक है ,फलां -फलां ........|इसलिए प्रयोग करने के लिए यह अच्छा  विकल्प था |
                      ये पहली बार था जब मैं अपने मम्मी पापा के बिना इतनी दूर घूमने जा रहा था ,तो कौतूहल स्वाभाविक था ;साथ ही साथ थोड़ी सी स्वतंत्रता जो मिलने वाली थी घूमने में ,उसे सोच -२ कर ही मन गदगद हो उठता|चंडीगढ़ पहुँचते ही पंछियों के सुरमयी संगीत ने हमारा स्वागत किया ,और मन ही मन लगा कि हो ना हो ये यात्रा कुछ ख़ास ,कुछ अच्छी  जरूर होगी |सुबह के ठिठुरन भरे कोहरे में बस पकड़कर ,एक बार रास्ता भटककर हम लोग मोहित के मामाजी के घर पहुँचे |पहुँचते ही सबसे पहले नानी ने गले लगाकर हम तीनों का स्वागत किया |नानियों की यही बात शायद उन्हें 'माँ की माँ 'कहने पर  मजबूर करती है क्योंकि जो अपनापन ,वात्सल्य उनके प्यार में होता है ,वो अतुलनीय है |फिर थोडा आराम किया और शाम को "सतरा की  बाज़ार " घूमे |वहाँ  का रहन सहन साफ़ दर्शा रहा था कि क्यों चंडीगढ़ को लोग इतनी सम्मानित  निगाहों  से देखते है ,वैसे भी यह नगरी प्राचीनकाल से ही लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है|हम लोग खाली तीन दिन का समय लेकर चंडीगढ़ घूमने के उद्देश्य से आए थे लेकिन मामाजी के के प्रेमपूर्ण हठ के आगे हमें घुटने टेकने पड़े ,और पांच दिन रुकने की बात तय हो गयी |साथ ही नया साल शुरू होने वाला था इसलिए नानी ने अपनी भक्तिभावना के वशीभूत हो हम सबके सामने  मंदिर और देवी दर्शन करने का विचार रखा |उनकी बात कौन टालता ??अगले दिन हम लोगों की यात्रा ,और उसकी योजना दोनों ही कार्यरूप में रूपांतरित होने को तैयार थी |फिर क्या था ??बस यथासंभव अधिकतम कपडे शरीर पर लादे और निकल पड़े हम चारों (हमारे साथ मामाजी का बड़ा लड़का शोभित भी हो गया था )अपनी मंजिल की ओर  |साथ में दो कम्बल रखे थे क्योंकि हिमांचल जाना था और वैसे भी ठण्ड ज़ोरों की थी |
                                         सुबह ११:३०   बजे हम लोग घर से रवाना हुए और ४:३० बजे आनंदपुर साहिब गुरुद्वारा पहुँचे ,क्योंकि रास्ते में सबसे पहला प्रसिद्द पड़ाव यही था |वहाँ  दर्शन करके ,लंगर खाया और इसी के साथ एक और दिली तमन्ना पूरी हो गई,(गुरुद्वारा देखने की)|वहाँ से निकलते ही  अगला पड़ाव था -नैना देवी मंदिर ,जिसके लिए हम लोग बस स्टैंड पर बस ढूँढने लगे ,तभी सामने एक बस दिखी जिसपर लोग दरवाजे ,खिड़की ,छत हर जगह से चढ़ने की कोशिश कर रहे थे |पहले पहल तो वो दृश्य देखकर सबको बहुत मौज आई ,उसमें  अपने भारतीयपन की साक्षात् झलक जो मिल रही थी ,पर जैसे ही पता चला कि यही नैना देवी को जाने वाली आखिरी बस थी सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी |"बस थी" इसलिए कहा क्योंकि तब तक वो बस भी चल चुकी थी और अब उसे पकड़ने का कोई रास्ता नहीं बचा था |फिर बहुत सोच विचार कर एक "कैब "बुक करायी,क्योंकि वही आखिरी विकल्प बचा था ,और थोड़ी देर बाद ही लगने लगा कि हमारा ये निर्णय काफी सूझ बूझ भरा था  क्योंकि अब हम पहाड़ी रास्ते पर  चल रहे थे |वो बस हमारे थोडा आगे ही चल रही थी और उसे देख कर  लग रहा था कि उसमे  सवार होने के लिए कितना साहस  चाहिए |अँधेरा बहुत था तो कुछ ज्यादा स्पष्ट नहीं दिख रहा था ,परन्तु बाद में पता चला कि गाडी की  एक ओर जो दिख रहा है वो पहाड़ है ,और दूसरी ओर जो नहीं दिख रहा वो खाई.तो एहसास हुआ कि कभी कभी अँधेरा जिंदगी में कितनी अहम् भूमिका निभाता है |
                         फिर रात में लगभग ९:३० बजे हम लोग नैना देवी पहुँचे |सब लोग अपने अनुसार अधिकतम कपडे पहने थे लेकिन फिर भी ठण्ड अपनी शक्ति  का अनुभव कराने में समर्थ थी|हम लोग इतनी अधिक ठण्ड के लिए मानसिक रूप से तो तैयार   थे पर शायद शारीरिक रूप से इतने सबल नहीं कि उसको  झेल सकते |जैसे तैसे ठिठुरते -२ दर्शन किये और घर वालों को जल्दी जल्दी नये  साल की बधाइयाँ दी(क्योंकि फ़ोन में बैलेंस और बैटरी  दोनों ही कम थी )|अंततोगत्वा एक दूसरे से चिपक -चिपक के सो गए क्योंकि ये ज्यादा बेहतर विकल्प था बनिस्बत ठण्ड से ठिठुरकर मरने के |फिर डेढ़ घंटे की नींद के बाद १ जनवरी २००९ ,सुबह ४:१५ बजे हम सब दूसरे मंदिर -छिन्नमस्तिका देवी के लिए रवाना हुए |रास्ते में  भाखड़ा नंगल बाँध पड़ेगा ये जानकर मन तो हर्षित हुआ पर शरीर अभी भी थकावट से भरा था |बस में खड़े होते समय आँखें पूरी तरह से खुल भी नहीं पा रही थी |  तभी अचानक थोड़ी खलबली हुई और हम सबकी नज़रें बस के बाहर के दृश्य पर पड़ी और तब जो आँखों ने देखा उसकी कल्पना भी असंभव है |सतलुज नदी के नीले पानी की घाटी से रक्तवर्णित सूरज पहाड़ों के पीछे से निकल रहा था|पानी में कुछ देर के लिए लालिमा छा गयी और फिर सब कुछ दिव्य|तब एहसास हुआ कि मानव चाहे कितनी भी प्रगति क्यों ना कर लें इस अद्वितीय,अनुपम नैसर्गिक छटा को नहीं बना सकता |फिर आया- भाखड़ा बाँध जिसे देखने के लिए हम सब बेताब थे |किताबों में जैसा पढ़ा था और उसकी जैसी छवि मन में थी वो उससे कुछ ज्यादा ही ऊँचा,अच्छा और दर्शनीय लगा |ऊर्जा का इतना सुदर्शन स्रोत देखकर मन आनंदित हो उठा |मन ही मन विश्वास होने लगा था कि नये साल की इससे अधिक सुन्दर शुरुआत हो ही नहीं सकती |फिर हम लोग छिन्नमस्तिका मंदिर पहुँचे |पहली तारीख थी ,तो कतार के  आकार में कोई कोताही नहीं दिख रही थी  ,परन्तु जैसे-तैसे ४ घंटे बाद हमारी बारी आ ही गयी |
                    वहाँ से हम लोग रवाना हुए ज्वाला देवी मंदिर की ओर |एक बात और, हम लोग कोई तीर्थ यात्रा पर नहीं निकले थे ,ये सब तो बुजुर्गों का काम कहा जाता है ,लेकिन सेमेस्टर खत्म हुआ था ,और परिणाम अच्छा हो इसके लिए भगवान् का आशीर्वाद कितना जरुरी है ये हम बच्चों से बेहतर और कौन जान सकता है !!!!!इसलिए प्रकृति दर्शन के साथ -साथ दुआ मांगने निकले थे ,साथ साथ घूमने का उद्देश्य पूरा हो ही रहा था |बस में बैठे -२ थोड़ी देर तक तो प्राकृतिक सुन्दरता मन को हर्षाती रही ,परन्तु उसके बाद शारीरिक थकावट के आगे उसने घुटने टेक दिए और हम सब सो गए |आँख सीधे ज्वाला जी पहुँचकर खुली |वहाँ दर्शन किये और पूरी यात्रा में पहली बार रूपये देकर खाना खाया ,वरना दो दिनों से काम लंगर पर ही चल रहा था (अब जब लंगर में ही लोग हलवा,छोले , पूड़ी  खिलाने लगे तो बाकी चीज़ें खाने के लिए जगह ही कहाँ बचती है  )|फिर एक कमरा लेकर आराम किया क्योंकि कोहरा अधिक था और संकट को भाँपते हुए मामाजी ने रात में सफ़र ना करने की सख्त हिदायत दी थी |फिर मखमली गद्दे पर आराम से थकावट दूर की|सुबह १२ बजे आँख खुली और तब तक वक़्त हो चुका था वापस लौटने का |सामने ही ज्वाला जी की पहाड़ियों को एक बार फिर प्रणाम किया , अच्छे  रिजल्ट  और सुरक्षित यात्रा के लिए दुआ माँगी,सामन लादा और चल पड़े |
                       रात भर सो चुके थे तो अन्दर अनंत ऊर्जा हिलोरें ले रही थी |मन में जो इच्छा दबी रह गई थी ,खाइयों और पहाड़ों का लुत्फ़  उठाने  की  उसे पूरा करने का वक़्त आ गया था |एक ओर ऊँचाई और दूसरी ओर गहराई का यह  विरोधाभास रोंगटे खड़े कर देने वाला था |मैं रास्ते भर जागा ये सोचकर कि पता नहीं कब अब दोबारा मौका मिलेगा ,वापस ऐसी जगह घूमने का |मन में उत्साह भी था ये सोचकर कि अगर सुरक्षित घर वापस पहुँच गए तो बहुत कुछ दिलचस्प होगा बताने को ,सब लोग बड़ी जिज्ञासा से सुनेंगे मुझे .....|बस रह-रह कर पूरे सफ़र में एक ही चीज़ खल रही थी -एक ठीक ठाक से कैमरे की कमी ,क्योंकि जो पहाड़ियाँ,जो सूर्योदय,जो घाटी,जो दृश्य हमने देखे थे उन्हें हम चाहे जितना प्रयास कर लें अपनी स्मृति में यथावत नहीं संजो सकते |वो  वक़्त के साथ धुंधले होते ही चले जाएँगे|तब ना ही हमारे पास वो क्षमता होगी जो उस दृश्य को बयान कर पाए और ना ही स्मृति जो उसे महसूस कर पाए |इन सब मजबूरियों के बावजूद दावे के साथ कह सकता हूँ कि सचमुच ये सफ़र जीवन पर्यन्त याद रहेगा |कभी हँसायेगा,कभी बीतें अतीत में ले जायेगा जहाँ हम सब जोशपूर्ण तरुण हैं और कभी अपने सौंदर्य से तरसाएगा........
                          तो बताइए अगली बार आप भी घूमने चलेंगे ...........................??????????????????        



                                  
                           


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'कल'-युग ...स्वप्न या सच्चाई

                                 
  "क्षिति जल पावक गगन समीरा
                                     पञ्च तत्त्व मिल बना सरीरा ||"


मनुष्य हो या मशीन -इस संसार में हर जड़- चेतन शरीर किसी ना किसी प्रकार से इन पाँचों तत्वों का सम्मिलन ही है |संसार में जब मनुष्य की रचना हुई तो उसको एक अनुपम शक्ति से नवाज़ा गया -अपने आस पास के वातावरण को अपने अनुसार उपयोग करना |इसी शक्ति के कारण उसने पत्थर से आग निकाली,मिट्टी से पहिया बनाया ,लोहे से औजार बनाये और ना जाने क्या-क्या.........|उसकी बुद्धि,उसकी जिज्ञासा ,उसकी जरुरत उसे जिस ओर भी ले गयी उस ओर ही उसने अपनी मेधा के पगचिह्न छोड़े|
                                       निरंतर विकसित होने किंवा अपने वर्तमान से पूर्णतया संतुष्ट ना होने की उसकी प्रवृत्ति ,लगातार उसे प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों और अनावृत्त विषयों की ओर ढकेलती रही और प्रयासोपरांत उसने अपने लिए नये -२ साधन बनाये ,नये विकल्प खोजे |उन्हीं विकल्पों के समूह में एक उपसमूह है-मशीन |
                                      "मशीन "-जिसे सरल साधारण शब्दों में परिभाषित करें तो 'एक ऐसा यन्त्र जो मनुष्य के प्रयासों (ह्यूमन एफ्फोर्ट्स )को कम करता है '|उदाहरणार्थ -एक साधारण सिलाई मशीन की कार्यविधि देखिये तो आपको  खुद ही समझ आ जायेगा |मनुष्य ने इनको बनाया भी इसी उद्देश्य से |दूर तक पैदल ना चलना पड़े ,इसलिए उसने पहिये का आविष्कार किया जो आज फरारी ,लैम्बर्गिनी  जैसी द्युत गति कारों का एक आभूषण बन चुका है |निश्चय ही मनुष्य को कुछ आराम था इसलिए आज ये मशीनीकरण इस स्तर तक पहुँचा|
                               परन्तु दुविधा ये है कि जिस मानव ने अपने आराम के लिए ,सुविधाओं के लिए तरह तरह की मशीनों का निर्माण किया वो आज स्वयं ही उन मशीनों के आगे मजबूर दिखाई  देने लगा है |"सृजक की ये कैसी विवशता की अपनी रचना के आगे ही घुटने टेक दे |" कंप्यूटर इस परिप्रेक्ष्य में सर्वोपयुक्त उदहारण है |जिस कंप्यूटर को मानव ने तेज गति ,कार्यक्षमता और विश्वसनीयता के कारण चुना ,आज उसकी  ही वजह से विश्व शांति पर संकट मंडराने लगा है |सुरक्षा के लिए बनायीं गयी मिसाइलें अब विध्वंस का संकेतक बनकर सबके ह्रदय में बैठ गयी  है |
                         परन्तु  मशीनों का केवल यही विध्वंसकारी पक्ष नहीं है |सृजनात्मकता -उनका एक आभूषण है और इसके लिए उदाहरण देने की भी आवश्यकता नहीं |और तो और अब तो  कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर भी प्रयोगों और परिणामों की होड़ लगी हुई है |इसलिए मशीनों का एक मानवीय स्वरुप भी अस्तित्व में आने और पहचान बनाने की कोशिश में जुटा है|
                      प्रश्न ये है अब इतनी उपयोगिताओं के बाद क्या  मशीनों को मानव के  समकक्ष मानना उचित है ? निस्संदेह मशीनें आज कई स्थानों पर मानव से ज्यादा सफल,बेहतर और सक्षम सिद्ध हुई हैं लेकिन इसका ये अर्थ तो नहीं कि मानव की उपयोगिता कम हो गयी है |हमें ये कदापि नहीं भूलना चाहिए कि मानव खाली मिट्टी का ढाँचा नहीं जो सुबह से शाम, एक निश्चित पूर्वनिर्धारित क्रमानुसार कार्यों को करता है ;वो भावना ,चेतना ,समझ और परिकल्पनाओं का एक समूह है और ये सब मशीन में लाना फिलहाल उस हद तक संभव नहीं जितना ये मानव के अन्दर है..|
                        और हाँ ,यदि हम ये सोचते हैं कि मशीनें इतनी सक्षम हैं कि मानव की उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न उठ जाए तो ये जान लेना चाहिए कि  विज्ञान कभी वर्तमान पर खत्म नहीं होता ,उसे भविष्य की अँधेरी कन्दराएँ ज्यादा सुहाती और आकर्षित करती हैं और इस काम के लिए मानवीय परिकल्पनाओं की ही जरुरत है |ये बात हर प्रगतिशील चिन्तक समझ सकता है |साथ ही साथ  संपूर्ण मशीनीकरण से मात्र हम सामाजिक नैसर्गिकता तो खो देंगे ही ,चैतन्यता भी शून्य हो जाएगी ,और कुछ नहीं |
                                    इसलिए सार रूप में ध्यान रखिये -"घोडा कितना भी द्रुतगामी हो ,लगाम कितनी ही कसी हो ,जब तक दोनों का नियंत्रण सही हाथों में नहीं होता ,तब तक सब व्यर्थ है ................."       
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