Saturday, November 30, 2013

सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें

Written something like a song after a long time ,
Special Thanks to Vishal O Sharma ji who gave me this beautiful piece to develop 
"सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||"
Maybe I didn't write it how it was meant to be but
After so many days I just went through these lines ,and here is what I tried .
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सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||
शाम से है आँखें धुंआ धुंआ,
तेरा एक ख्वाब है ,जो कबसे न जले||

हाथों की वो थपकियाँ ,
बातों के वो कहकहे ,
पलकों के सिरहानों पे ,
किस्से कुछ उलझे हुए ,

आँखों आँखों बोलना,
रूह से रूह टटोलना,
दिल के सब दरवाजों को,
बिन दस्तक के खोलना,

कितना कुछ है जैसे खो गया
जो गर तुम न मिलो तो कुछ भी न मिले ||
सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||

धूपें कुछ कहती नहीं ,
रातें चुप चुप हो गयी
कश्ती का वो क्या करे
मंजिल जिसकी खो गयी

राहों ने ही लिख दिए
खुदपर इतने फासले ,
मैं कहीं जलता रहूँ ,
तू कहीं जलती रहे

जिंदगी है जैसे धुन कोई ,
हैं जिसके साज़ सब ज़रा बिखरे हुए
सिलवटे कुछ कहती है ये सिलवटें
कि बदली है तुमने भी यहाँ पर करवटें||

-अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )
 — with Kavita Upadhyay and Vishal Om Prakash.

Monday, November 18, 2013

कितना अच्छा होता,काश !!

कितना अच्छा होता,काश !!


अपनी जिंदगी की हथेली की ,

किसी घुमावदार सी लकीर में ,

मैं लिख के छिपा देता तुमको - वक्त की मेहँदी से |

ताउम्र तुम रचती जाती मुझमें ||

-अनजान पथिक

 (निखिल श्रीवास्तव)

Saturday, September 14, 2013

इक खत


"माँ हिंदी ",
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सुनो न माँ.....
सच बताओ ..
तुम्हे ज़रा सा भी गुस्सा नहीं आता  ...
जब मैं खेलते खेलते  खीच लेता हूँ तुम्हारी चोटी ...
बन्दर की पूँछ समझ के ..,

उदास होता हूँ ....
और तुमसे बात भी नही करता ..
दिखाता हूँ झूठ -मूठ के  तेवर ...
तब भी तुम क्यों बैठी रहती हो मेरे पास ...
मेरे सिर पर प्यार से रखकर अपनी हथेलियाँ  ...

क्यों अपने आँचल में लिटाकर ..
मुझे भूलने देती हो मेरी सारी उलझनें ....
जबकि तुमको पता है ...
कि मैं शायद कभी नहीं समझ पाऊंगा ...
तुम्हारा किरदार ,
तुम्हारे सपने ,
तुम्हारी गहराइयाँ ...

मुझसे बिना कुछ मांगे ,बिना कुछ चाहे ...
क्यों मेरे तोतली ज़बां के किस्सों से लेकर..
मेरे इश्क की मीठी महक तक ...
तुमने सब कुछ संभाला ...सँवारा,
है अपने दिल में ...
अपने बच्चे की नन्ही शैतानियों और  खिलौनों की तरह...||

सच कहूँ तो 
मैं शायद कुछ न दे पाऊं तुमको कभी भी ...
पर फिर भी .... 
तुम हमेशा देती रहना ,मुझको  वो प्यारी सी  'झप्पियाँ '
जिनको पाते ही लगता है मुझे कि सारी दुनिया दुलार करती है मुझे ...
सारे चेहरे मुस्कराते है मुझे देखकर...||

मेरी जिस्म की मिट्टी ,और मेरे लहू की रवानगी
ये सब कुछ तुम्हारी ही परवरिश है माँ...
तुमको किताबों में पढूँ ,
किस्सों में सुनूं ,
या तारीखों  में समझूं ...
पता नही...
इक अंश भी नही समझ पाऊंगा तुम्हारा इक पूरी उम्र में 

मैं नही जानता कि तुम कितनी बड़ी ,कितनी पुरानी ,या कितनी गंभीर हो ...

मेरे लिए तुम बस 'माँ 'हो और हमेशा वही रहना ...||
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तुमको तुम्हारे दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं ...माँ
हम सबकी और से ढेर सारा प्यार ....
                                  
                                       -- हर वो बच्चा जो 'माँ हिंदी' की गोद में सोया ,जागा और खेला है ...||

Monday, September 9, 2013

"बहुत अच्छी है वो तुमसे" --


"बहुत अच्छी है वो तुमसे" --
सब कहते है ...||
बेशक, सच भी यही है .... |

"पर इबादत दो बराबर के लोगों में होती भी कब है ....??"

जहाँ तक जानता हूँ- ...
इबादत का सलीका है  ...
कि एक किरदार हो  जो इबादत करने का जूनून रखता हूँ ..--
- वो मैं हूँ...
और दूजा वो जो पूजे जाने की काबिलियत रखता हो ...
-वो तुम हो ...||

-मैं तो कब से कहता हूँ -"इश्क इबादत है" ..||

इश्क इस उम्मीद में नहीं होता --...
कि दो लोग रहेंगे किसी 'बैलेंस्ड तराज़ू' के दो पलडों कि तरह  .....
 
इश्क होता है इस यकीन पर ....
कि दो रूहें अगर रख  दी जायें ..
फलक के दो उलटे सिरों पे भी ....
तो फलक को  खुद सिमटना पड़ जायेगा उन्हें मिलाने के लिए .....

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कभी कभी मैं सोचता हूँ -
मैं खुद को खुश करने के लिए कितनी  अच्छी बातें करता रहता  हूँ ...

पर सच मुझे भी मालूम है -
कि सब सही कहते हैं ....
"वो मुझसे बहुत अच्छी है .."||
                                                       -अनजान पथिक 
                                                      (निखिल श्रीवास्तव )

Thursday, August 29, 2013

रात इक बच्ची ...

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रात की ये छोटी सी बच्ची ...
रोज चली आती  है मेरे पास  ....
तुम्हारे किस्से सुनने ...|

मैं भी ऊँगली थाम के इसकी ....
रोज दिखाने ले जाता हूँ...
वही बेमंजिल से ख्वाहिशों के किनारे ...
जो हमारे सपनों के दरिया से सटकर बहा करते हैं  ...
जिनपर हाथों में हाथ थामे हम  ..
मीलों से मीलों तक  ... 
सदियों सदियों चला करते हैं  ...||

उन किनारों पे बिखरी है गीली सी रेत...
जिसके दाने दाने पर लिखकर तुम्हारा नाम ...
मैं अमर कर आया था अपनी रूह की दीवानगी...

वक्त जब भी आता है ..
उन किनारों पर टहलने ..".खाली वक्त में ..."
तुम्हारे क़दमों के निशाँ , हैं जहाँ जहाँ भी  ..
वहाँ पे सजदे करता गुज़रता है ...||

मैं रात को बताता चलता हूँ ...
वो सारी बातें ...
जो मेरे तेरे बीच शायद कही कभी नहीं गयी ...
उन्हें  सुना गया बस ..फूल की खुशबू की तरह ..
और समझा गया शराब के नशे की तरह ..||

और आखिर में जब रात को भी आने लगती है नींद .
और वो मलने लगती है अपनी अधखुली आँखें ...
अँधेरे की नन्ही नन्ही उँगलियों से ...
मैं सुला देता हूँ उसे ...
उसके माथे पर देकर एक ठंडा सा बोसा..(बोसा =kiss)

वो सो जाती है मेरी आँखों में ही ... मेरी पलकों के नीचे ...

और मैं बंद करके अपनी आँखें 
ओढ़ लेता हूँ लिबास नींद का ..
क्योंकि सोने  से ही  शुरू होता  है ....
तेरे खवाबों में जागने का सफर  ..||

मैं निकल पड़ता हूँ ...फिर से 
तुम्हारे साथ ..उन्ही ख्वाहिशों के किनारों पे ...
जो सपनों के दरिया से सटकर बहा करते है 
जिनपर हाथों में हाथ थामे हम  ..
मीलों से मीलों तक .. 
सदियों सदियों चला करते हैं  ...||

क्योंकि 
रात की ये छोटी सी बच्ची ...रोज चली आती  है मेरे पास  ....
तुम्हारे किस्से सुनने ...
रोज रखना होता है मुझे एक बच्ची का दिल ..

क्योंकि बच्चे सच में होते है फ़रिश्ते 
और फरिश्तों का दिल तोडना अच्छा नहीं होता ..||

                                                       अनजान पथिक 
                                                     (निखिल श्रीवास्तव )

Wednesday, August 28, 2013

मीठी ख्वाहिशें ..



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जिंदगी.....
काश बस एक किताब होती....
जिसके हर सफहे पर लिखा होता तेरा नाम .....(सफहे= पन्ने )

सांसें...
काश बस एक शराब होती..
जिसके हर घूँट में तुमको पीता सुबह शाम...

धूप..
काश बस होती चिट्ठियाँ...
जो हर सुबह लाती तेरा एक पयाम...

दिल..
काश बस होता एक दरिया...
जिसमे मीलों बहा करता तेरा नाम....

और... 
मैं...
मैं काश होता सुरीला एक सजदा...
जो होता मुकम्मल तुझे कर सलाम ....|| (मुकम्मल =पूरा )
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सच में-. 
"  इश्क, भले हो कितना भी आवारा,
   ख्वाहिशों को मीठा तो कर ही देता है ..!!!!!"


                                                 -अनजान पथिक 
                                                (निखिल श्रीवास्तव )



Tuesday, August 27, 2013

मेरा एक दोस्त

-वो बड़ा अजीब सा पागल था ---

वो कहता रहता था सबसे ....
"वक्त को वक्त देना सीखो   ....." 
दिल तो रखो मोम सा ....पर .उसूलों में सख्त रहना सीखो ...

वो अँधेरे में जलते जुगनू को 
सूरज करने के ख्वाब दिखाता था ...
वो आँखों को चुपचाप नज़ारे पीने का हुनर सिखाता था ..

-वो महकती गज़ल था खुद में 
फूलों से बातें करता .., 
धूप पे  किस्से लिखता रहता था ....
वो गलियों गलियों घूम चांदनी जेब में भरता रहता था  .....

-बहुत बेख़ौफ़ मुसाफिर था -...

राहों से यारी करता था ...
और मंजिल से कह देता था ...
"मुझको  तेरी परवाह नहीं.."
है दिल के रास्ते सब जायज़  ....  न मिली वाह तो आह सही ......

- बहुत सिरफिरा  दीवाना था  -
सबको बोला करता था  
इश्क किया नहीं ,निभाया जाता है ...
इश्क में सोचे ,समझे ,परखे जाने से पहले अपनाया जाता है ...

बड़ा अजीब सा शख्स था वो ..
शख्स नहीं ,ख्याल था शायद ..
या फिर रूह की परत था इक ...
या कोई खुदा का टुकड़ा शायद मुझमें धंसा रहा होगा ...
जो भी था ...
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मेरे अंदर मेरा- ऐसा एक दोस्त हुआ करता था ....
जो अरसे से मुझसे मिला नहीं ..
मैं सोचता हूँ  -
रूठा तो नहीं   .... ?????

                                  -अनजान पथिक 
                                   (निखिल श्रीवास्तव )

Sunday, August 4, 2013

"मैं सिगरेट पीना तो नहीं जानता ...

"मैं सिगरेट पीना तो नहीं जानता  ...
पर कश लेने का सुकून समझता हूँ ....||."

वो शाम याद है ..??
जब तुम्हारे होठों पर रखे .....
उस जलते हुए से लम्हे को ....
अपने होठों की एक ही कश में ज़हन तक उतार गया था मैं...

उस कश के साथ जितनी आग उतरी थी सीने में  ..
इक पूरी उम्र छोटी है ,
उसकी आंच धीमी भर करने को....

मेरी धड़कन का हर हिस्सा ......
बाखुशी* फूंक कर आया था खुद को उस आग में  ....(बाखुशी -खुशी के साथ )
क्योंकि उससे उठने वाले धुएँ से ....
आज भी महकता रहता है, मेरे एहसासों का शहर .....

जिंदा रहता है - तुममें उलझा हुआ मेरा वजूद ,
मुस्कराती रहती  है - मुझमें सांस लेती तुम्हारी मौजूदगी ....||

ये आग कितना कुछ जला दे पता नहीं ...
पर जलना हमेशा मेरा शौक रहा और रहेगा ......||
ये कैसे बुझेगी ,कब बुझेगी , खुदा जाने ...
हाँ, पर इतना मालूम है ....
कि ये बुझी तो शायद मैं भी बुझ जाऊँगा इसके साथ ही......||

इसलिए कोशिश करता रहता हूँ रोज  ..
कि फूंकता रहूँ खुद को तेरे ही किसी ख्याल में  ..
ताकि मिल जाये तेरे होठों पर,, उस शाम की तरह ही 
इश्क की आधी सुलगी सी कोई कश ....
जिससे ये जिंदगी ,ये रूह सदियों जलती रहे ....||

सच मानो ,इतना सुकून है जल जाने में ...
कि मेरा मुरझाया चेहरा और सूखे होठ देखते हैं लोग ...
तो पूँछ बैठते हैं ....
"फूंकने की लत है क्या ..??"

और जवाब में मैं कुछ भी झूठ तो नहीं कहता 
बस सच छिपा ले जाता हूँ ..
हाँ ......

"मैं सिगरेट पीना तो नहीं जानता  ...
पर कश लेने का सुकून समझता हूँ .....||"


                                                 -अनजान पथिक 
                                                 (निखिल श्रीवास्तव )


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अँधेरा...

"अँधेरा बुरा होता है ..."कई के मुंह से सुना है .. ...पर मन नहीं मानता ...उन्होंने देखी है शायद सिर्फ वो सख्तमिजाज़ी.......कि जब कोई दिन हँसता खेलता घूमता है ज़मीन पर यहाँ वहाँ बेख़ौफ़ ....तब अँधेरा दिखा के आँखें ,तान के भौंहे कहता है उससे"सीधे जाओ क्षितिज के घर के अंदर ...."उन्होंने देखा है सिर्फ उसका वो पहलू..जिसमें वो अकेला बैठना चाहता है....खुद के साथ ....दुनिया से बहुत दूर .. जो मजबूरी भी हो  ,तो भी जिसे कहते है सब - उसका गुरूर ....||पर सिर्फ देखी सुनी सारी बातें सच कहाँ होती है ....??मैंने देखा है ...-कैसे कोई अकेला होता है जब ,तब होता है वो उसके पास....... उसके दिल में जहाँ सबकी लाडली रौशनी जाने से कतराती है ....वहां जाकर पूँछता है ,वो सारा हाल हर सहमी हुई ख़ामोशी का ..हर चोटिल आरज़ू का ...महसूस किया है मैंने - कैसे हर एक छोटे से चिराग का दिल रखने के लिए ..वो मिटा लेता है खुद को .. अपने वजूद के एक एक कतरे को खुद खिलौना बनाकर वो सौंप के आता है , उस लौ जैसी  बच्ची के नन्हे नन्हे हाथों में .....रात कोई टहलती है जब तनहा सड़कों पर ..शहरों से गुज़रती है ..गाड़ियों से टकराती है ,सोये हुए इंसानों की खिड़कियों पे दस्तक देती हुई इस उम्मीद में ताकती  है कि कोई तो थाम ले उसकी कलाई ...कह दे कि यही थम जाओ ..आज अपने सारे दर्द बाँट लो...तब भी वो अँधेरा ही है ,जो अपनी प्यारभरी बाहों में भर के अपनापन ..पनाह देता है उसे....,माथे पर चूमता है उसे ...दिन भर जिंदगी जैसे महंगे खिलौनों से खेलने वाले शौक़ीन बच्चे जो सोते हैं ..-फुटपाथों को तकिया,,, सड़क को घर ...मान कर ....ये अँधेरा रोज किसी परी की तरह जाता है .. ठंडी थपकियाँ देकर  उन्हें सुलाने .. उन्ही के पास बैठकर ..और सबसे बड़ी बात बोलूँ ...हर बार दिन भर  ..जब दुनिया के मायूसी और थकान भरे रंगों  में..डूब कर आता हूँ मैं वापस .... मानने लगता हूँ किसी कमरे जैसी जगह को अपना घर ..अपना आशियाँ .तो वो सारे रंग उतार कर किसी बोझ की तरह .....वो बुला लेता है मुझे अपने पास ..और घंटों करता है मुझसे बातें ....मेरी भी..... तुम्हारी भी .....शायद एक वही है ,जिससे कह पाता हूँ मैं खुद को इतना ... इसलिए कई के मुंह से सुना है ...."अँधेरा बुरा होता है ..."पर सच बोलूँ तो मन नहीं मानता ...||                                         निखिल श्रीवास्तव                                         (अनजान पथिक  )


वो अक्सर कुछ लिखती रहती है ,

वो अक्सर कुछ लिखती रहती है ,
...........................................
अँधेरे में जब भी निकलती हूँ घर से ...,
तुमसे फोन पे बात करने ...,
इक "रात" यूं ही दिख जाती है रोज , जागती हुई ...

ज़मीन के "पैरेलल"..,
क्षितिज के दोनों सिरों को मिलाता हुआ ..
जो इक फलक का कागज़ है..
उसपर लिखती रखती है वो कुछ मखमली,
रेशम से नाज़ुक ख़याल ..
चाँद के "टेबल लैम्प" की दूधिया सी रोशनी में ..
नन्हे तारों को हर्फ़ बनाकर ..
आहटों की कोहनियों पर,...
अपने अंधेरों के गाल टिकाये ...
वो रोक लेती है वक्त की घडी से गिरते ....
लम्हों की रेत के बारीक से बारीक दाने को ......
और उकेरती रहती है उस पर ...
अपनी उँगलियों से ..
सुलगती साँसों में पिघली हुई ,..
सुबह के इंतज़ार की ...कई मासूम सी कहानियाँ ..

सन्नाटे की मेहँदी से रंगी उसकी हथेलियाँ ...,
दिखा कर भी छिपा ले जाती हैं ,
अपने महबूब का नाम ..,बड़ी सफाई से ....||

पर सहर की छलकती आँखों से गिरते ..,(सहर =सुबह )..
धूप के मीठे आंसुओं से .. ,
जब भीगता है फलक का कागज़...,रेशा रेशा ...
उठने लगती है उससे
उसी मेहँदी में छिपे उस "इक नाम" की खुशबू ..||

एक कागज़ ऐसे ही भीगा था मुझसे भी कल रात शायद ...,
और उठ रही थी उससे भी तुम्हारे नाम की खुशबू ......

एक बात बताओ .....
" लव लेटर्स सारे ऐसे ही होते है .. क्या ... ?? "

- अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव ) 

Thursday, May 30, 2013

मुझको तो एक रोज है जाना

रक्खो(रखो ) या न रक्खो  मतलब  ,मेरे किसी फ़साने से ...
मुझको तो एक रोज है जाना ,किसी न किसी बहाने से ..

साथ हूँ तो दो जाम बना लो ,दर्द है जितना मुझे पिला दो ..
साँसों की ये आंच गरम है .., ख्वाब हैं कच्चे उन्हें पका लो ..
दिल कागज़ है ,हर्फ़* है धडकन , मुझको थोडा पढ़ लेने दो..(हर्फ़ =अक्षर )
मायूसी के चाक पे अपने ,मुझे मोहब्बत गढ़ लेने दो ..
मुझसे वो बेख़ौफ़ कहो   ,जो कहते नहीं ज़माने  से
मुझको तो एक रोज है जाना ,किसी न किसी बहाने से ....

धूपें अपनी मुझें ओढ़ा कर .., पहन लो मेरी छाँव सभी
राहों में थक जाओ अगर तो ,मुझे बना लो पाँव कभी  ...
मय जब दर्द न सुनें तुम्हारा  , मुझसे बातें कर लेना
आंसू ज्यादा हो जायें ,तो मेरी आँखें भर देना ....
मैं बादल,मुझको मतलब लोगों की प्यास बुझाने से
मुझको तो एक रोज है जाना ,किसी न किसी बहाने से ..

शामें बुझने लगें अगर ...,तो मेरी याद जला  लेना ..
अपने गुस्सा हो जायें ,तो मुझको गले लगा लेना ..
गीत,गज़ल जब साथ न दें ,तो मेरे किस्से सुन लेना ..
सर्द तन्हाई काटे तो  ,मेरी ओट की चादर बुन लेना ...
मैं रिंद-ए-दर्द हूँ, होश नहीं खोता मैं  दर्द पिलाने से (रिंद-ए-दर्द = दर्द का प्यासा /पीने वाला )
मुझको तो एक रोज है जाना ,किसी न किसी बहाने से ....

सब "पागल-पागल "कहते है  ,हाँ पागल हूँ , दीवाना हूँ ,
न समझो तो नादान हूँ पर ,समझो तो बहुत सयाना हूँ ...
मुश्किल सारी गाठें खोलूँ, सीधी बातों को उलझा दूं ..
मैं एक ख्याल लिखते लिखते ,लफ़्ज़ों से जुल्फें सुलझा दूं ....
मैं पागल हूँ इक चेहरे पर ,मुझे मतलब इश्क निभाने से ..
मुझको तो एक रोज है जाना ,किसी न किसी बहाने से ....

मैं न चाहूँ कि सदियों तक मैं रहूँ या मेरा नाम रहे ..
मैं चाहूँ जब तक हूँ तब तक जीना ही मेरा काम रहे. ..
रोते के साथ ज़रा हँस लूं ,मरने वालों के साथ जियूँ
प्यासे जो रहे मोहब्बत के ,उनके संग जाम-ए-इश्क पियूं
मैं फ़कीर ,मैं राजा भी ,क्या मांगूं और ज़माने से ...
मुझको तो एक रोज है जाना ,किसी न किसी बहाने से ....
                                                 

                                              -  अनजान पथिक
                                               (निखिल श्रीवास्तव )













  

Thursday, April 25, 2013

तुम्हे याद करना

तुम्हे याद करना
सचमुच किसी हसीं आरज़ू को तराशने सा है ,..

चाँद पिघलकर आँखों में उतर आता है ..
बेरंग पानी सा बनकर ..
तुमको सोचने लगूँ तो ...

लहलहाने लगते हैं 
पलकों की कच्ची पगडंडियों के किनारे...
बसे हुए ख़्वाबों के खेत .. 
और खिल उठती है नन्ही कलियाँ .. 
गुदगुदाती ख्वाहिशों की ...

सांझ की बहती नदी ... क्षितिज के पत्थरों से
टकरा टकरा कर लगती है लौटने ....

रात के हाथ से छूट जाता है पैमाना अँधेरे का ,
छिटक कर बिखर जाती है हर ओर हवा में 
किसी इत्र की तरह तुम्हारे एहसास की खुशबू ...
छाने लगती है हर शय पर तुम्हारे होने की खुमारी .. 

तुम बस कहने को नहीं होते हो साथ ...
वरना सांस का हर रेशा 
बुनता है तुम्हारे नाम के धागे .. 

ज़हन के सारे सवाल ..
बन जाते है जवाब खुद -ब- खुद ...
बुझ जाती हैं मायूसियों की कई जलती शमायें ..

भरने लगती हैं ..
वक़्त की दी हुई कई खराशें .. 

और मानने लगता हूँ मैं ...खुद को 
दुनिया का सबसे खुशनसीब शख्स ..
क्योंकि इतना सच्चा और मासूम है
मेरे ख्यालों का ये हिस्सा .. 

कि चाहे कितना कुछ भी न हो मेरे पास ..
मैं खुद को कभी अधूरा नहीं लगता ...

"मोहब्बत शायद यूं ही पूरे होने का नाम है .."||

-अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव )

Monday, April 22, 2013

जवानी

जवानी
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हर कागज में छिपे फूल की कोई कहानी होती है .
जैसी हो ,जितनी भी हो ,बड़ी मस्त जवानी होती है....

रातें जैसी खीर हो मीठी , ख़्वाबों के बादाम मिली 
सांसें जैसे हो दुआएं मासूम, किसी के नाम लिखी 
चंदा दे आवाज़ ,चांदनी पायल छन छनकाती है ...
एक चेहरे की थाप पे धडकन धक् धक् धक् धक् गाती है ...
हर गुड्डा आवारा... , हर गुडिया दीवानी होती है ...
जैसी हों जितनी भी हों ,बड़ी मस्त जवानी होती है ...

हर एक खिलते चेहरे पे दिल आने जाने लगता है ....
साज़ छिड़े न छिड़े ,ये मनवा झूम के गाने लगता है ....
धूप बर्फ सी लगती है ,बारिश तन को झुलसाती है 
होठों की मुस्कानें अपना कह-कह जब भरमाती हैं ...
किरदार नये हो कितने भी ...पर कशिश पुरानी होती है 
जैसी हो ,जितनी भी हो ,बड़ी मस्त जवानी होती है....

सब कहते हैं इज़हार करो ,पत्थर भी टूटा करते हैं ..
जो अपने ज्यादा होते हैं ,वो ज्यादा रूठा करते है ...
मन साँसों के इक कागज़ पर उम्मीदें रंगता रहता है ...
दिल टूट टूट कर मैखानों को जाकर रोशन करता हैं ...
किसी तरह की भी जल्दी ,बस पानी पानी होती है ..
जैसी हों जितनी भी हों ,बड़ी मस्त जवानी होती है ...

एक मोड़ गली का अपने सारे राज़ संजोने लगता है ..
ढलता सूरज उम्मीदें सारी खुद पर ढोने लगता है ....
सब घरवालों के सोने पर अँखियाँ खुद ही जग जाती है ..
रातों में आकर तन्हाई ज़ोरों से गले लगाती है .... 
सच में नही ,मगर ख़्वाबों में सब मनमानी होती है ..
जैसी हों जितनी भी हों ,बड़ी मस्त जवानी होती है ...

रूठे हुए यार मनाने में सारी रातें कट जाती है ...
अपनी हर जिद के आगे ,उनकी इक जिद अड़ जाती है ..
कोई नखरे करके हँसता है ,कोई चुप रह के गुस्साता है ..
कभी कोई कराते दूजे को चुप ,खुद रोने लग जाता है ..
रिश्तों की नींव ही जब मासूम सी आनाकानी होती है .. 
जैसी हो ,जितनी भी हो ,बड़ी मस्त जवानी होती है....

-अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव )

Monday, April 15, 2013

नसों में दौड़ता जूनून ,आँखों में ख्वाब चाहिए

नसों में दौड़ता जूनून ,आँखों में ख्वाब चाहिए 
ये उलझनें बासी हुई , अब इन्कलाब चाहिए ..

हर नज़र से झांकती ,उम्मीद एक पीढ़ी की 
सवाल सबके मन में है ,सबको जवाब चाहिए ...

हर गली में खून है ,हर राह है सहमी हुई ..
हैवानियत को इससे ज्यादा क्या खिताब चाहिए ...

खुदा के घर के नाम पर ,दैर-ओ-हरम* बने ,गिरे ... 
फिर भी कहाँ वो है बसा ,सबको जवाब चाहिए ...??
*(दैर-ओ-हरम= मंदिर और मस्जिद )

हर महकते चेहरे ने काँटे छिपाये रखे है ....
पसंद करने वालों को भी तो गुलाब चाहिए ... !!!

वो पूजने की मूरत है ,उसे नज़र से समझा करो 
औरत को देखने को ,आँखों में हिज़ाब चाहिए ...(हिज़ाब =पर्दा )

दिल के खाली कागज़ पर खुद सांस से लिखा करो ...
तालीम-ए-इश्क* के लिए ,नहीं किताब चाहिए ...
*(तालीम-ए-इश्क= इश्क की शिक्षा )

मैं झुकूं तो सजदे में ,पर मिन्नतों में न झुकूं ..
गर दुआ मांगूं तो बस इतना रुबाब चाहिए ...||

मैं आज भी एक चेहरे की मायूसियाँ पी लेता हूँ 
मैं रिंद-ए-इश्क हूँ ,मुझे कहाँ शराब चाहिए ....??
*(रिंद-ए-इश्क =(इश्क रुपी शराब का {प्यासा /आसक्त } ) )

-अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव )

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Sunday, April 7, 2013

इबादत

तुम्हारे होठों पर महक रही थी 
मीठी पंखुड़ियां आरती की , 
मेरे लबों पर भी गूँज रहा था, तेरा इक मीठा सा नाम ...

जुड़े हुए हाथों में तुमने 
संभाल रखे थे लिफ़ाफ़े अपनी दुआओं के ..
उठी हुई हथेलियों में मैंने भी लिख रखी थी 
इबारतें तेरी मुस्कानों की ...

सजदे में तुम भी थे ,
मैं भी था 
फर्क इतना था बस ,
बंद आँखों से तुमने अपने खुदा की इबादत की थी ,
खुली आँखों से तुम्हें देखते हुए 
मैंने अपने खुदा को पूजा था ....॥ 

-अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव )

जिंदगी का फैसला


जिंदगी का फैसला
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पहले छोड़ देता था
मैं ज़रा सी जगह
वक़्त के हर इक पन्ने पर .
अपनी सारी कोशिशें ,सारी आरजुएं
लिखने के बाद भी ..
क्योंकि जानता था ..
कुछ भी हो ,ज़िन्दगी लिख ही देगी ..
आखिर अपना फैसला ..
जो उसका मन हो ,जो उसको मंज़ूर हो

पर इस बार ..लिख दी हैं मैंने
हर एक लकीर पर अपनी जिदें ...
हर एक हाशियें पर रख दी है अधूरी हसरतें सारी ....
और लफ़्ज़ों के बीच की खाली सी जगह में
भर दिए हैं नन्हे मुरझाये ख्वाब ..
जो टूट गए थे ,
ज़हन की शाख से,
वक़्त की आँधियों के सिरफिरे से दौर में ॥

इस बार नहीं छोड़ी है मैंने कोई जगह ..
जहाँ लिख सके ज़िन्दगी फिर से अपना फैसला ....

शायद होने लगा हूँ मैं "बागी ".. ...
क्योंकि "बागियों" को ही नहीं जंचते हैं फैसले ज़िन्दगी के ॥

                -अनजान पथिक

Sunday, March 24, 2013

कविता क्या है ..??


"कविता" 
दिल के सियाह से तहखाने में,
वो अकेले ही उतर जाती है कभी कभी ....
जहाँ अमूमन जाना नहीं पसंद करता कोई ....॥ 
हर मासूम सी आरज़ू मेरी ,दौड़ कर चिपक जाती है उससे ....
कई कई बार वो बिन बोले ही समझ जाती है 
कि कितनी ज़रूरत है मुझे उसकी .... .
और मुस्काते हुए उठा लेती है वो गोद में ,
मेरे हर नन्हे सी ख्वाहिश  को ..
पुचकारते हुए ,दुलारते हुए ......
जैसे " खून के रिश्ते " से भी ज्यादा पवित्र कोई रिश्ता हो उससे ..

इसी तहखाने  में एक ओर रहती है 
कई शरारती बच्चियाँ - - "हसरतें"  कहते हैं जिनको जानने  वाले सभी  ..
हर बार जब वो (कविता) आती है .. तो लाती है 
उनके लिए कुछ न कुछ नया ज़रूर ....
जैसे दादी लाती थी मेरे लिए ..छुटपन में .....
छोटे बेसन के लड्डू  ,इमली वाली गोली ....

कभी किसी अधजगे ख्वाब के पास घंटो बैठ कर 
उसके माथे पे वो  देती रहती है ठंडी थपकियाँ ...
तो कभी किसी याद के साथ निकल जाती है वो 
खेलने बहुत दूर ,उसकी किसी  सहेली की तरह ....
 

कई मजबूरियाँ भी है गुमसुम सी ..
उन बच्चियों की तरह जिनसे नहीं पूछता कभी कोई -
कि कैसा  सोचती हैं वो ,
क्या चाहती है वो .....
सबसे ज्यादा सुकून उनको ही मिलता है उसके (कविता के )आने पर ..
क्योंकि उसके पल्लू में छिपकर हर बार वो कह देती है अपना सब कुछ .
जैसे सगी बेटियाँ हो उसकी .......

उसके आने की आहट से लेकर ,
जाने के एहसास  तक .......
महकता रहता है , तहखाने का हर एक कोना 
अपनेपन की इक अनजानी, सौंधी खुशबू से ... 

और कितने भी दिन बीते चाहे ,उसे यहाँ पर  आये हुए 
उसे बखूबी  रहता है याद  ....
हर एक चीज़  ,
हर एक चप्पा ,
कि पिछली बार क्या ..,कहाँ ..,किस हाल में रख कर छोड़ गयी थी .....

इसलिए कितना भी ..कागज़ पे लिख लूं मैं उसको 
बस यही हूँ कहता ...
"कविता " बस लफ़्ज़ों की कोई रस्म नहीं हैं ...
"कविता"- एक किरदार है खुद में बहुत मुकम्मल ....
"कविता" है एक आग कि जिसमें जलना जीवन ..
"कविता" है एक माँ ,है मुझ पर जिसका आँचल ...॥   

                                अनजान पथिक 
                                (निखिल श्रीवास्तव )

Saturday, March 23, 2013

एहसास की जुबां होती अगर ...

एहसास की जुबां होती अगर ... 
सच मानो तुम पर ..
बेसाख्ता लिखता बहुत कुछ..॥ (बेसाख्ता = in an effortless manner)
तुमको लिखने के लिए 
नहीं चाहिए कोई अल्हड सी वजह ...
कोई अधूरी सी ख्वाहिश ...
सदियों से पला कोई अनकहा दर्द ...
किसी मोड़ पे इंतज़ार करती हुई इक मोहब्बत.....
यादों की किताब का कोई अनछुआ किस्सा ..
या मन की जुस्तजू का भूला हुआ इक हिस्सा ....

हर बार आँखों की नमी पे लिखे शब्दों के ..
ढूँढ लेता मायने ..
क्योंकि सब कहते है ..
ये हुनर आ ही जाता है ...मोहब्बत में होने के बाद….
और चुन लेता अपने होठों पे बैठी वो शोख मुस्कुराहटें ...
जो किसी मौसम की तरह छाई रहती है हमेशा
एक अनकहे रिश्ते की सहेजी अमानत की तरह ....||

क्या लिखता , मालूम नहीं ..
कितना लिखता हिसाब नहीं ..
कैसे लिखता ,सोचा नहीं ... ..
पर एहसासों की जुबां होती अगर ...
तो सच मानो
बेसाख्ता तुमपे लिखता बहुत कुछ ...॥

- अनजान पथिक

बहुत खामोश सा हो जाता हूँ उससे बात करते वक्त ...

बहुत खामोश सा हो जाता हूँ उससे बात करते वक्त ... 
खासकर उस वक्त ,
जब वो नींद में सराबोर आँखों से
एक दो पल की मोहलत मांगकर
कुछ भी बोलने की कोशिश करती है तब ....|| 
ऐसा लगता है -
जैसे किसी मासूम से खुदा से रूबरू हो गया हूँ मैं .....॥ 

बहुत प्यारी लगती है वो -
आवाज़ की हर इक उलझी हुई किश्त में ....
कानों तक नहीं पहुँचता कुछ भी ..कहा हुआ उसका
पर दिल पर हर एक लफ्ज़ उतर सा जाता है
दीवारों में सीलन की तरह बिन किसी आहट ...

उसको यूं ही सुनते सुनते बिता सकता हूँ जिंदगी सारी ..
क्योंकि नहीं होती हर किसी की बात इतनी प्यारी...
कि बिन सुने हर एक ख़ामोशी ,
हर एक कतरा आवाज़ का घुल सा जाये ... रूह में ...
पिघल जाये सारी बातों के मायने...
रह न जाए कुछ भी दोनों के दरमियान...
एक पाक से एहसास की डोर के अलावा ....॥

तुम्हे सच बोलूँ एक बात .. -मेरे खुदा...
ऐसी ही बातें मांगी थी अपने हिस्से में मैंने ...हमेशा से
हर सांस में बस इतनी ही मोहब्बत चाही थी ..॥

अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )

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