और यही कारण है कि आज आँखों की थकावट मन की थकावट के आगे फीकी सी प्रतीत होती है|नींद अब आवश्यकता नहीं अपितु मजबूरी लगने लगती है |वह मजबूरी जिसका वरण केवल मन के अनबूझे प्रश्नों ,अनकही समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है |
कहने को तो अभी २० वर्ष का ही हूँ और ये कुल आयु का १/३ भी नहीं लेकिन यदि जीवन को सार्थकता की कसौटी पर रखकर देखा जाए तो शायद जिस समयांतराल में संपूर्ण जीवन की दिशा और दशा निर्धारित हो जाती है ,सही मायनों में वो बीत गया|विचारणीय बात ये नहीं कि ये समय बीत गया ,वक़्त तो अपनी अबाध गति से बढता ही रहता है..हम ,आप,या कोई भी इसके लिए कुछ नहीं कर सकता |किन्तु बेबसी तब लगती है जब ये सर्वज्ञ अंतःकरण खुद से एकांत में प्रश्न करता है कि क्या अभी तक जो भी हुआ या जो भी किया वो लक्ष्यगामी था?,उसे करने के बाद जीवन में हमने कुछ पाया ?..और इस तरह के अनगिनत सवालों के जवाब में मन संकुच जाता है |तब डर लगता है,डर इस बात का कि क्या ये मनुष्य जीवन जो चौरासी लाख योनियों के बाद नसीब होता है उसे अपने कर्तृत्व से सार्थक कर भी पाउँगा ?
सामान्यतः तरुणावस्था विकास और विनाश दोनों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है,क्योंकि हमारे अन्दर की संपूर्ण ऊर्जा इसी उम्र में या तो एकीकृत होती है,,या फिर वितरित |विकास के लिए हम खुद प्रयास करते हैं और विनाश अपने आप मौके दे देता है| बचपन से सिखाया गया कि बेटा ये करो तो ये बनोगे ,बड़े आदमी कहलाओगे ,वो बनोगे तो आस -पड़ोस सब जी हुजूरी करेंगे ..इत्यादि ....|किन्तु आज तक कभी किसी को ये कहते हुए नहीं सुन पाया की बेटा तुम ये करो ,तुम इसके लायक हो ..तुम इसमें जाकर प्रसन्न रह सकते हो..,ऐसा कहा भी होगा तो निराशा के स्वर में..न कि कुछ सुधार के विश्वास में|
लेकिन इसमें कहने वालों का भी कोई दोष नहीं |विधाता ने सबको एक ह्रदय और एक मस्तिष्क व्यक्तिगत तौर पर इसीलिए दिया ,ताकि सोचने और समझने का दारोमदार आप खुद ले सकें ,फिर जीवन के निर्णय में किसी का मुँह क्यों ताकना !!इसलिए यह सोचना कर्त्तव्य नहीं अपितु अपरिहार्यता हो जाती है कि जिसे हम विवशता में अपना विकास मार्ग समाज बैठे हैं कहीं वो किसी विनाश या विध्वंस का कारक तो नहीं बनने जा रहा |
सबके मन में आकांक्षाओं का एक ज्वार तो होता ही है, बस देखना ये होता है कि| किसके मन का ज्वार सुनामी बनकर सामने आता है और किसका पल दो पल की लहर बनकर गायब हो जाता है.|इसलिए कोशिश कर रहा हूँ की अपने मन के ज्वार को पहचानूँ ,ज़रूरी नहीं कि अंत तक सुनामी ही बनूँ किन्तु इतना भरोसा ज़रूर है बड़ी लहर ज़रूर बन जाऊँगा जो जब अपना अस्तित्व दिखाती है तो उसके पगचिह्न प्रमाण रूप में अवश्य छूट जाते हैं |
अस्तु अब जो बीत गया वो स्मृति बन चुका है,जो हो रहा है वो कर्म है और जो होगा वो नाम होगा इसी सोच के साथ सबसे आशीर्वाद माँगता हूँ कि कम से कम मैं अपने मन की इस थकावट को दूर कर सकूँ ,कुछ ऐसा कर सकूँ जो मेरा अपना हो,और उस कर्म के आनंद में डूबकर अपना जीवन जी सकूँ |
निखिल श्रीवास्तव
(अनजान पथिक)