Monday, December 13, 2010

मन की थकावट

घडी   रात के १:३० बजा रही है| यह समय सोने के लिए ज्यादा उपयुक्त है लेकिन ये सर्वमान्य सिद्धांत है कि जब तक आँखों में थकान अथवा मन में चैन न हो तब तक  निद्रा देवी प्रसन्न नहीं होती|दिन भर अन्यान्य  क्रियाओं से भरा एक अच्छा ख़ासा थकावट का एहसास  दिला सकने वाला वक़्त बीत चुका है लेकिन फिर भी मन ये मानने को तैयार ही नहीं कि जो कुछ भी किया वह सब कुछ अपने विकास,अपनी शांति और सर्वोपरि अपनी इच्छा के लिए किया गया|लगता है अभी भी कुछ बंधन तो हैं  कहीं न कहीं ,अदृश्य  से,अनभिज्ञ  से जो बरबस  ही अपने पाश से मुक्त होकर स्वतंत्र उड़ान भरने देना ही नहीं चाहते |लगता है कि मानो हर कार्य केवल इसलिए कर दिया गया जैसे ये इसका प्रारब्ध   था|


  और यही कारण है कि आज आँखों की थकावट मन की थकावट   के आगे फीकी  सी प्रतीत होती है|नींद अब आवश्यकता नहीं अपितु मजबूरी लगने लगती है |वह मजबूरी जिसका वरण केवल मन के अनबूझे  प्रश्नों ,अनकही समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है |

कहने को तो अभी २० वर्ष का ही हूँ और ये कुल आयु का १/३ भी नहीं लेकिन यदि जीवन को सार्थकता  की कसौटी  पर रखकर देखा जाए तो शायद जिस समयांतराल  में संपूर्ण जीवन की दिशा और दशा निर्धारित हो जाती है ,सही मायनों में वो बीत गया|विचारणीय  बात ये नहीं कि ये समय बीत गया ,वक़्त तो अपनी  अबाध गति से बढता  ही रहता है..हम ,आप,या कोई भी इसके लिए कुछ नहीं कर सकता |किन्तु बेबसी तब लगती है जब ये सर्वज्ञ  अंतःकरण  खुद से एकांत  में प्रश्न करता है कि  क्या अभी तक जो भी हुआ या जो भी किया वो लक्ष्यगामी था?,उसे करने के बाद जीवन में हमने कुछ पाया ?..और इस तरह के अनगिनत सवालों के जवाब में मन संकुच   जाता है |तब डर लगता है,डर इस बात का कि क्या ये मनुष्य जीवन जो चौरासी लाख योनियों  के बाद नसीब होता है उसे अपने कर्तृत्व  से सार्थक  कर भी पाउँगा ?

सामान्यतः  तरुणावस्था   विकास और विनाश दोनों के  लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है,क्योंकि हमारे  अन्दर  की संपूर्ण  ऊर्जा इसी उम्र में या तो एकीकृत होती है,,या फिर वितरित  |विकास के लिए हम खुद प्रयास करते हैं  और विनाश अपने  आप मौके दे देता है| बचपन  से सिखाया  गया कि  बेटा  ये करो  तो ये बनोगे  ,बड़े  आदमी  कहलाओगे  ,वो बनोगे   तो आस -पड़ोस  सब जी हुजूरी    करेंगे ..इत्यादि ....|किन्तु  आज तक कभी  किसी  को ये कहते  हुए  नहीं सुन  पाया की बेटा  तुम  ये करो  ,तुम  इसके लायक  हो ..तुम  इसमें  जाकर  प्रसन्न   रह  सकते  हो..,ऐसा  कहा  भी होगा  तो निराशा  के स्वर  में..न कि  कुछ सुधार  के विश्वास  में|

लेकिन इसमें  कहने वालों  का भी कोई दोष  नहीं |विधाता  ने  सबको  एक ह्रदय और एक मस्तिष्क  व्यक्तिगत  तौर  पर  इसीलिए  दिया ,ताकि  सोचने  और समझने  का दारोमदार   आप खुद ले  सकें  ,फिर जीवन के निर्णय  में किसी  का मुँह क्यों  ताकना  !!इसलिए यह सोचना  कर्त्तव्य  नहीं अपितु अपरिहार्यता   हो जाती है कि  जिसे  हम विवशता    में अपना  विकास मार्ग  समाज  बैठे  हैं  कहीं वो  किसी    विनाश या विध्वंस  का कारक   तो नहीं बनने जा  रहा |
सबके   मन में आकांक्षाओं  का एक ज्वार  तो होता ही है, बस  देखना  ये होता है कि| किसके  मन का ज्वार  सुनामी  बनकर  सामने  आता  है और किसका  पल  दो  पल  की लहर  बनकर  गायब   हो जाता है.|इसलिए कोशिश  कर रहा  हूँ की अपने मन के ज्वार  को पहचानूँ  ,ज़रूरी  नहीं कि  अंत  तक सुनामी  ही बनूँ  किन्तु  इतना  भरोसा   ज़रूर   है बड़ी  लहर  ज़रूर  बन  जाऊँगा जो जब अपना  अस्तित्व  दिखाती  है तो उसके  पगचिह्न   प्रमाण  रूप  में अवश्य  छूट  जाते  हैं  |

अस्तु अब जो बीत गया वो  स्मृति   बन  चुका है,जो हो रहा  है वो  कर्म  है और जो होगा  वो  नाम  होगा  इसी सोच के साथ  सबसे  आशीर्वाद  माँगता  हूँ कि  कम  से कम  मैं   अपने मन की इस थकावट को दूर  कर सकूँ  ,कुछ ऐसा  कर सकूँ  जो मेरा  अपना  हो,और उस  कर्म   के आनंद  में डूबकर   अपना  जीवन जी  सकूँ |   

                                                                                                      निखिल श्रीवास्तव 
                                                                                                      (अनजान पथिक)

Wednesday, December 8, 2010

मेरा परिचय




मैं राहों से 'अनजानचला
एक 'पथिक' ज़रा आवारा हूँ.
मैं पाशों से उन्मुक्त स्वयं की
मति-कृति का रखवारा हूँ.

मैं हूँ ऊषा की अरुण लाली
जो तम को पल में चीर दे,
मै हूँ जल का वह सरस प्रवाह
जो प्यासों को भी नीर दे..


है कहीं राह कोई नियत मेरी
जो मुझको  पास बुलाती है
पग कितने ही हो क्लांत मेरे
कर विवश मुझे चलवाती है
उन राहों का हो अंत जहाँ
उस अंत का मैं अन्वेषी हूँ
जिन भावो में सद्भाव भरा
उन भावो का संप्रेषी हूँ

पाताल की न है सुध मुझको
न स्वर्ग की मुझको अभिलाषा
बस चाह कि बोले निखिल विश्व
वसुधैव कुटुम्बकम की भाषा

जो करना ,वो है कर्म मेरा;
जो सोचूँ,वो है मर्म मेरा,
जो बाँटू,बिखराऊं जग में 
मैं  ख़ुशी ,वही है धर्म मेरा

उत्ताल लहर मैं सागर की,
दरिया का एक किनारा हूँ.
अनगढ़ माटी का पुंज नहीं
भावो का एक पिटारा हूँ..

मैं राहों से 'अनजान' चला
एक 'पथिक' ज़रा आवारा हूँ.
मैं पाशों से उन्मुक्त स्वयं की
मति-कृति का रखवारा हूँ.


                                                 -निखिल श्रीवास्तव
                                                   (अनजान पथिक)

Saturday, December 4, 2010

ख्वाहिश

नींदों को भी सपनो का घर
 अब रास नहीं आता
लफ़्ज़ों के बंद दरवाज़े भी
अरसे से नहीं खुले.
अरमानों की कश्ती भी
डूबी ऐसी भंवर में
की लगता है जैसे ख्वाब सारे
मिटटी में घुले.

फिर भी हसरत का दामन
साथी बन थामे बैठा हूँ
जीवन की हर करवट में
जितना सिकुड़ा हूँ ऐठा हूँ...
उतनी ही लहर है ऊँची
मन में सपनो को पाने की
मंजिल मेरी होगी  फिर
बारी उस दिन के आने की..
बस ख्वाहिश उस दिन को,
मौत से पहले ही जी लूं मैं,
गंगाजल चखने से पहले
 जीवनरस भी पी लूं मैं.....




                              निखिल श्रीवास्तव
                               (अनजान पथिक)
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