Wednesday, January 15, 2014

जलना सीख रहा हूँ मैं

भीड़ भरी दुनिया में ,तनहा चलना सीख रहा हूँ मैं ||
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

देख बहारों के रस्ते ही ,
कितने तो मौसम बीते ,
जीवन के जितने भी घट थे ,
रह गये सब के सब रीते ,
तुमने फिर भी देख फलक को ,बारिश की ही आस गढ़ी,
मेरी बादल को धरती पे रख देने की प्यास बढ़ी,   
तुम जीवन को कूप बनाकर ,बारिश के आसार जगाओ ,
मेघा बनकर खुद सावन में ,झरना सीख रहा हूँ मैं |
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

धूप के बाजारों में बिकती छाँव,
तो जाकर लानी होगी ,
पीर में कैसे चल पाते हैं पाँव ,
अदा दिखलानी होगी 
टुकड़ा टुकड़ा मोम है मेरा,पिघलूँगा मैं जीवन सारा 
दीपक हूँ तो ,कतरा कतरा सांस मुझे सुलगानी होगी ,
तुम सूरज से हाथ पसारे ,किरणों की फ़रियाद लगाओ 
अपने अंधेरों में जुगनूं ,बनना सीख रहा हूँ मैं |
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

सच का जंगल आग का दरिया,
बड़ा कठिन है जल जाना ,
और फरेब का दांचा सस्ता ,
बड़ा सरल है ढल जाना ,
पर वो राहें राह कहाँ ,जिनमें काँटों का स्वाद नहीं ,
फूलों का पथ उन्हें लुभाए ,जिनके मन फौलाद नहीं ,
तुम रेशम सी राह पकड़कर ,पग दो पग चल खुश हो जाओ 
चट्टानों को चीर के पर्वत चढ़ना सीख रहा हूँ  मैं |
जलना सीख रहा हूँ मैं ||

  -अनजान पथिक 
                                                (निखिल श्रीवास्तव )