Monday, August 29, 2011

अपनी आवाज़

खामोश हवा के ख़त पे मैं ,
कैसे अपनी आवाज़ लिखूँ .?
इन टूटे बिखरे पंखों से 
कैसे अपना परवाज़ लिखूँ ..??
   
मैं खुद खुद से बेगाना सा ,
कैसे अपना अंदाज़ लिखूँ ?
मंजिल है नज़रों परे खड़ी,
कैसे अपना अंजाम लिखूँ?

दिल की हर गुमसुम धड़कन का ,
किस्सा कैसे बेबाक लिखूँ ?
कितनी भी बेचैनी हो पर ,
खुद को कैसे बेताब लिखूँ ..?

कतरा कतरा तरसूँ चाहे ..
खुद को कैसे मोहताज़ लिखूँ ?
कब तक सूरज के संग ढलूँ 
कब तक खुद को महताब लिखूँ ?

कब तक बेरंग से पन्नों पर 
एक रंग मेरा बिखराऊं मैं.?
कब  तक यूँ बिन समझे सोचे 
कदमो संग चलता जाऊं मैं ..?

कब तब सपनो की दुनिया में
सच  के आँचल से खेलूँ मैं..?
हवा जिधर कह दे चल दूँ 
कब तक ये बंदिश झेलूँ मैं ..?

मेरी जिद मेरी अपनी है 
क्यों उसपर अपना नाम लिखूँ ..?
उस खुदा को क्या क्या समझाऊं
कैसे अपना पैगाम लिखूँ ..?

अभी तो कितना कुछ बाकी 
खुद को कैसे नाकाम लिखूँ ..?
क्यों हर ताज़े खिलते सूरज पे 
एक फीकी ,बोझिल शाम लिखूँ ..?

ये हाथ ना बस फ़ैलाने को 
लड़ने की ताकत भी तो है |
मेरा मुझको ना मिला तो क्या 
मेरा है जो मेरा ही है ...|

खामोश हवा के ख़त पे मैं 
इस कदर मैं एक आवाज़ लिखूँ 
हर छोर ,फलक धरती झूमे ..
ऐसा मैं अपना साज़ लिखूँ..||
   

Monday, August 15, 2011

आजादी

आज महकती सी सुबह में ,बिखरी दिखी आजादी ....
चहकते खिलते चेहरों पर ,हँसती दिखी आजादी 
चैनलों पर, गानों में, गाती दिखी आजादी 
ह़र मंच से आवाजों में,आती दिखी आजादी
मॉल में, शोरूम में ,सजती दिखी आजादी 
टोपियों पर, कपड़ों पर ,फबती दिखी आजादी
ठेले पर ,साइकिलों पर, बिकती दिखी आजादी...
अखबार के सूखे रंगों में ,रंगती दिखी आजादी....

पर नहीं दिखी आजादी 
उस सड़क किनारे खड़े
मासूम बच्चे के चेहरे पर 
जो दौड़ दौड़ कर कार वालों को 

बेच रहा था तिरंगे                                              
पाँच रुपये का एक 
आठ रुपये के दो....|
.
नहीं दिखी आजादी 
भीख माँगते उस बच्चे के हाथ में..
जो मंदिर के आगे बैठता है रोज़ ...
कटोरा लेकर..
बहुत कुछ था सिक्को जैसा 
उसके कटोरे में  
मगर आजादी जैसा कुछ नहीं.....

नहीं दिखी आजादी 
उन भूखे तरसते चेहरों पर
जो बेबस आँखों से देख रहे थे ..
वो आँच पर सिंकता भुट्टा ...
चाय में डूबता बिस्कुट 

नहीं दिखी आजादी 
उन सहमी आँखों में ..
जिन्होंने खोया था किसी अपने को
किसी हादसे में बेवजह ...
क्योंकि 
 किसी और को सनक सवार थी 
बेवक्त ,बमों से दीवाली मनाने की
चिता के दीये जलाने की...

नहीं दिखी आजादी 
उस परिवार के नंगे बदन पर
जिसने पिछली 
बरसात भरी रात काटी है
छप्पर के नीचे भीगते भीगते सड़क पर 

नहीं दिखी आजादी 
उस तिरंगे के चेहरे पर जो मायूस खड़ा 
 लड़ रहा था गुलाम हवा के थपेड़ों से ....
जो हर साल ऊपर चढ़ता है
 इस उम्मीद में 
कि आज शायद मंज़र कुछ बदलेगा ||
मगर वही पुराने घाव लिए उतर आता है शाम को
जिसको शायद कभी सुना नहीं ..
आजादी के इस शोर तले..

.........
ना जाने कैसी ये आजादी है....
आधी अधूरी  सी..
अपनी होकर भी, परायी सी..
जो कभी नाचती है हमारे संग ..
हमारी ही धुन पे...
और कभी रोती है कोने में चुपके से 
किसी टूटी टपकती छत के नीचे ...

शायद कुछ घुटन सी है उसके मन में 
जो वो कहती नहीं...
हर बार मुस्कान बन कर ..
बस खिल जाती है चेहरों पर

तभी शायद तिरंगे की अदाओं से, 
आज कुछ कहती दिखी आजादी  
 हवा में सहमी सहमी ,बहती दिखी आजादी....|
आजादी के बावजूद, गुलामी सहती दिखी आजादी..||


  

-- 

मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं


आज़ाद हवा में खुलकर मै,हर चरम शिखर पर लहराऊं  
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं 

इंसान मजहब से ऊपर हो., त्योहार जश्न हर रोज़ मनें  
नफरत के घरौंदों से पहले ,प्रीत के ऊँचे महल बनें   
ऐसा अपनापन बख्श मुझे,सबके दिल में घर कर जाऊं 
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं||



                                                                   
आवाज़ बनूँ माँ मैं तेरी,परवाज़ मेरे पंखों को दो
तेरा संतानें जाग गयी ,हालात पे यूँ ना अब तुम रो..
बस हिम्मत दे इतनी मुझको.,सबसे सच खातिर लड़ जाऊं  ...
ऐसा रंग माँ  अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं||

ओहदा ना बनूँ ना नाम बनूँ,ना सिरों पे चढ़ता जाम बनूँ..
गूंजूँ क्षितिजों के आँगन तक,एक ऐसा मैं कोहराम बनूँ ...
बहरे बहके से कानों में,मैं शोर सरीखे चुभ जाऊं 
ऐसा रंग माँ अपने रंग में,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ...||

ना जुबान बनूँ ना जात बनूँ.,बस खुशियों की सौगात बनूँ 
इंसान को जोडूँ इंसान से,ऐसा सच्चा इंसान बनूँ 
तेरे गीत मेरा ही साज़ बने ,मैं स्वर एक ऐसा बन जाऊं 
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ..||.

हिम्मत मैं बनूँ, हुंकार बनूँ,तेरे गुस्से की ललकार बनूँ 
जो बोयें गुलामी की फसलें,उस गर्दन को तलवार बनूँ 
तेरी आग में बस जल जाने दे,फिर भले राख मैं बन जाऊं 
ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ...||

गुलाम ना हो अब दिल कोई,हर रात जश्न-ए-आजादी हो...
सब खुशियाँ  यूँ  बेमोल बिके ,ना कोई कभी फरियादी हो...
आज़ाद फिजा इतराए जहाँ ,ऐसा भारत मैं बन जाऊं  ..
 ऐसा रंग माँ अपने रंग में ,मैं खुद ही तिरंगा बन जाऊं ..||



  







  



Monday, August 8, 2011

वो सफ़र एक नाव पर





पुरवाई चली एक यादों की  
 कुछ भीगे से  नम मौसम भी 
उड़कर पलकों की खिडकियों से
आ गए आँखों के कमरों  में |
 आवारा टूटे पत्ते सी
 कोई शाम कहीं से बहकर   
आज गिरी
 मेरे सपनों के आँगन  में|  

एक शाम जिसके दामन में 
 वो हसीन  सफ़र है 
जो जहन के खुरदुरें पत्थरों पे 
अभी भी उतना ही ताजा है 
जैसा मिट्टी पर चलायी हो उंगलियाँ किसीने रेशमी 
वक़्त के साथ लिखावटें बदली नहीं है उसकी |

लगता है जैसे कल की ही बात हो 
जब तुमने सफ़र तय किया हो  
इस  दिल की गीली रेत पर..
और तुम्हारे क़दमों  के निशान 
अभी भी जिंदा हो ....

उतने ही खालिस,उतने ही महफूज़ ...||

                                                                       
खामोश से उस मंज़र 
दीवानी सी उस फिजा के अलावा 
कोई ना था जिस  शाम  में|  
चाँद के दिये में भी तेल थोडा कम था
तभी शायद फीका फीका सा रंग था उसकी लौ का ..
हवाएं भीगकर  आयी  थी 
 कहीं से प्रीत की बारिशों  में  ...
हर साँस में घोल दे रही थी 
दीवानगी  थोड़ी सी  |
रोम रोम भीगा था  
उस प्यार की बदरी से |...
क्योंकि तुम बैठी थी सामने 
नाव के दूसरी छोर पर ..
ये एहसास दिलाने के लिए कि
 मेरी हमसफ़र हो तुम 
 सन्नाटों की गूँजती आवाजें अनसुनी कर ,
मैं .सुन रहा था वो साज़ ..
जो सुना रही थी
 तेरी नज़रें मेरी नज़रों को  
धुन तेरी धड़कन की थी ,अलफ़ाज़ थे मेरे नाम के .. ||


मेरे नाम को अपनी मेहंदी में कहीं छिपाकर
छुआ था तुमने जब झील के पानी को 
और हलचल दी थी सौगात में उसको 
तब लगा था जैसे लहरों के संग ..
किनारों को छू लिया हो मेरे नाम ने भी 
तुम्हारी मेहंदी की महक में खोकर ...||
तेरा होकर ....||
......

फिर कुछ पानी के मोतियों को 
अपनी हाथों की गोद में लेकर 
सुस्ताने दिया  था 
उन्हें अपने चेहरे की नर्म सेज पर
जैसे सोती है मखमली  थकी- हारी ओस 
सुबह सुबह घास और हरे पत्तों के बिस्तर  पर 
.......

फिर देखा तुमने 
मेरी ओर
 एक हया समेटे आँखों  में 
जैसे कुछ लफ्ज़  रुके हो आकर  
होठों की सरहद पे तेरे |
 उठकर फिर उस छोर से मेरे पास आयी तुम
चेहरे को पास लाकर 

बादलों में छिपते सूरज सा शरमाकर 
कानों में एक ठण्डे झोंके की तरह 
हलके से बोल दिया 
एक मीठा सा सच |
वो  तीन जादुई लफ्ज़
 जिनपर लिखा तो कई बार..

लेकिन कहा कभी नहीं..
क्योंकि वो अमानत तुम्हारी है...
किसी और को कैसे बेंच देता ..??

फिर  धीरे से सौंप दिया तुमने 
खुद को मेरे आग़ोश में  
कुछ देर ठहरने दिया थके लबों को 
मेरे लबों की चौखट पर...
और मैंने समझ लिया  हर सच
  यूँ ही तेरी ख़ामोशी से  .....|
कुछ देर को जैसे बेखुद हो गया मैं..
अपने ही अक्स में समाकर 
मदहोश हो गया मैं...||
........................ 
तभी सूरज की सुई  सी एक किरण
 चुभ गयी जोर से आँखों में
लगा जैसे कि कुछ  गिरा कहीं फर्श  पर 
और टुकड़ा-टुकड़ा हो गया..
आवाजें तो आयी
पर निशान नहीं मिले,,,||  

देखा तो बगल में तकिये  पर 
सन्नाटा खर्राटे भरकर  सो रहा था...
आजकल वो ही साथ रहता है मेरे 
संग खाता है ,पीता है,हँसता -रोता है....
तुम्हारे जान के बाद से 
अच्छा दोस्त बन गया है मेरा...|
 
उसको बिना जगाये 
 एक तस्वीर निकाली
मेज पर रखी किताब से 
अफ़सोस से एक हाथ फेरा
थोड़ी आँखों की नमी भी वारी उसपर ..
और फिर सहेज कर  रख दिया उसी तरह सोये  पन्नो के बीच ..

............
एक बार फिर समझाया खुद को..
ये नींदों  की दुनिया कभी अपनी नहीं होती..
सपनों के डाकू अक्सर आकर 
लूट जाते है बहुत कुछ....
ये नींदों  की दुनिया कभी अपनी नहीं होती....||