Sunday, February 27, 2011

शयनं परम सुखं

"टिर्र टिर्र" -एक चुभन भरे शोर ने नींद के सुरमयी  संगीत में खलल पैदा की और आँखों के आराम का शीशा फर्श पर गिरकर टुकडा -टुकडा  हो गया| कड़वाई हुई ,अधखुली आँखों ने गुस्से से एक नज़र घडी या मोबाइल  पर डाली और परशुराम की तरह तुरन्त ही उस आवाज का सिर कलम कर दिया गया |कारण -"अभी उठने का समय ही कहाँ हुआ है ,थोडा सा और सो लेना चाहिए "| यही आरजू  होती है न हर दिल की, उस समय ,जब नींद से उठना जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य काम होता है |
        अब महापुरुषों की बात छोड दीजिये,तो हम ,आप,सामान्य मनुष्यों की तो यही कहानी है |रोजाना जब नींद अपने चरम पर होती है ,जब ख्वाब में कुछ बहुत अच्छा या बहुत बुरा  होने वाला होता है|तब  एकदम  से  कोई  ना  कोई  अड़चन पैदा हो ही जाती है |क्यों ना हो??-रात के बाद दिन की व्यवस्था जो कर रखी है प्रकृति ने अपने टाइम-टेबल(समय सारणी ) में |अगर सोते ही रह गए ,तो काम कब करेंगे ?काम नहीं करेंगे तो जिंदगी कैसे चलेगी? और अगर जिंदगी चलायमान ना हो तो जीने का फायदा ही क्या????? इसलिए दिन में काम करिए रात में आराम ,बाकी मदद के लिए सूरज और चाँद आपके साथ रहेंगे |लेकिन मानव जीवन की विवशता या यूँ कहें ,विडंबना यही है कि जो चीज़, जो काम होने चाहिए ,जो करणीय है उसमे मन कम लगता है अपेक्षाकृत उन कामों के जिन्हें नहीं करना चाहिए| उदाहरण देखने  हो तो पूरा सागर भरा पड़ा है -सुबह समय से उठना चाहिए ,रोज़ नहाना चाहिए,योग व्यायाम करना चाहिए,पढना चाहिए और भी बहुत कुछ ......;लेकिन सुबह नींद  आती है ,सोचते है -कौन बिस्तर से उठकर योग व्यायाम करे ,रोज़ पानी खर्च करके नहाने का पाप कौन अपने सिर मढ़े,किताबों को रोज़ पढेंगे तो मौज कब करेंगे?????    ऐसे ना जाने कितने ही भाव मन में उठते है जो उसकी कर्मासु प्रवृत्ति को फलीभूत होने ही नहीं देते |"करना चाहिए "के भाव से अंत होने वाले वाक्य विपरीतार्थक  "करते है "के भाव से ख़त्म होने लगते है ?क्यों -क्योंकि ये सब करना हमें अच्छा  लगता है|
                      किसी खेल में मन लग जाए तो रोज खिलवा लो,किसी से 'फेसबुक ' या 'ऑरकुट ' पर बात करनी हो तो रात भर जगवा लो,कोई मन को भा जाये तो उससे रोज़ मिलवा लो ....इत्यादि-इत्यादि |ऐसे ना जाने कितने ही काम है जो उस पड़ाव तक तो पहुँचते ही नहीं ,जिसमें ये निर्धारित किया जाता है ,कि इन्हें करना चाहिए भी या नहीं |अगर प्रश्न फिर से वही है क्यों ??तो उत्तर भी वही -क्योंकि ये सब हमे सुख देता है ,मन को अच्छा  लगता है |
                 इस श्रेणी का सबसे महत्त्वपूर्ण काम ,जिसका कॉलेज में आने के बाद से सर्वाधिक अभ्यास किया गया है ,वो है -"पेपर(परीक्षाओं ) के समय सोना |"इंजीनियरिंग कॉलेजों की शायद ये परंपरा है ,जिसका आप अनायास ही अंग बन जाते हैं |जो आपको कर्म पथ से विचलित कर बार -बार अपने अभीप्सित की ओर ढकेल देती है|जिस समय जागना चाहिए उस समय सोने की आदत तो हम पहले ही डाल लेते है ,लेकिन जिस समय 'जागना ' जरुरत हो ,और तब भी 'जरुरत' को 'तवज्जो 'ना देकर 'इच्छा 'का पक्ष लेने का मन करे -तो क्या कहा जा सकता है !!!!!!!!!!  खासकर सर्दियों में जब रजाई  के गरम आगोश  से अधिक  अपनापन  और कहीं  नहीं लगता ,और उसे  ठुकराना  निष्ठुरता  बन जाये ,सोना संसार  की सर्वाधिक  सुखदायी  क्रिया  बन जाती है |पढाई  के लिए अत्यंत  गंभीर  लगने  वाला  हमारा  मन एक  दो  बार तो पलकों  को संभालता  है ,लेकिन फिर इच्छाओं  के बोझ  तले  पलकें खुद  को गिरने  से  रोक  नहीं पाती  |किताब  खुली  हो,बंद  हो,या तकिया  बनी  हो इसका  होश  रखने  का तो वक़्त  ही नहीं  मिलता  |फिर दोबारा  जब  नींद खुलती है  तो आंखें  सच- मुच  खुली की खुली  ही रह जाती है क्योंकि तब एहसास  होता  है कि सारा  समय तो हमने आराम  फरमाने  में  ही गुज़ार  दिया  |हडबडाहट  में बची  कुची नींद भी भाग जाती है  और तब किताब ही सारी दुनिया नज़र आती है |तरह-तरह से मन को हौसला  दिया जाता है ,और तब पढाई शुरू होती है इस जज्बे के साथ कि- कोई नहीं जो हो गया सो हो गया ,सब ढंग से करेंगे तो अब भी पढ़ लेंगे |
           लेकिन धीरे -२ जैसे जैसे वक़्त बीतता है ये जज्बा ,ग्लानि में परिवर्तित होने लगता है क्योंकि तब तक हमे एहसास हो चुका होता है कि हम वक़्त से तेज नहीं|मन में दुःख बहुत होता है ये सोचकर कि काश थोडा पहले से पढ़े होते  !! पछतावा होता है ये जानकर कि कितनी मक्कारी की हमने जो आज ऐसी हालत हो गई |
पर क्या करें???उस नींद में जितना मजा है उतना और कहाँ ?????




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Sunday, February 20, 2011

वो माली फूलों का

हम सब के लिए वो स्कूल  का पहला दिन था |नया दिन ,नई जगह -तो सबके मन में उथल -पुथल स्वाभाविक थी |कोई गुमसुम सा एकदम शांत ,तो कोई नये माहौल में खुद को ढालने की कोशिश करता हुआ |हम सब प्रार्थना कक्षा में बैठे ,एक दूसरे से बातें करे जा रहे थे |हर बच्चा बहुत धीरे ही बोल रहा था लेकिन वो छोटी -छोटी खुसफुसाहट मिलकर एक चुभन भरा शोर लगने लगी थी|
     ना जाने एकाएक क्या हुआ ?पर सब कुछ एकदम शांत ,जो पुराने थे वो अपने आप चुप हो  गए और हम नये  लोगो को भी देखा-देखी साँप सूंघ गया |मैं  कुछ समझ पाता इससे पहले ही सामने खड़े एक व्यक्तित्व पर नज़र पड़ी |सबल और गठीला शरीर ,सफ़ेद धोती कुरता ,कलाई में सोने की घडी जो लगता जैसे उसी कलाई के लिए ही बनी थी,आँखों पर चश्मा और हाथ में चाभियों का एक गुच्छा|
     यही  वो पहली  मुलाकात  थी ,मेरी  उस  व्यक्ति  से जिनका आज  मैं सबसे  बड़ा  मुरीद  हूँ  |जिन्होंने  मेरे  जीवन  ,जीवन  के प्रति  मेरे  दृष्टिकोण  और मुझको  एक नया आयाम  दिया  |नाम  -श्री  ओमशंकर  त्रिपाठी  (तत्कालीन  प्रधानाचार्य )|पहली  बार  देखा तो लगा  की स्वभाव  गंभीर ,डांट -डपटने  वाले  एक सख्तमिजाज़  हेडमास्टर  की तरह  होगा  ,लेकिन धीरे-2 जैसे -2 उनको  जाना तो महाकवि  तुलसीदास  का एक दोहा मस्तिष्क पटल  से गुज़र  गया -
                                       "कुलिसहूँ चाही कठोर ,अति कोमल कुसुमहु चाही    
                                        चित्त खगेस राम करी ,समुझी परई कहू काही   || " 
                  हो सकता है किसी को ये लगे की इस दुनिया में इस तरह के अनेक व्यक्तित्व ,अनेक सफलता की प्रतिमूर्तियाँ है ,फिर एक स्कूल के प्रिंसिपल में  ऐसा क्या ख़ास? तो उत्तर ये है कि-बाकी लोगों को मैंने निकट से नहीं जाना ,ना ही उनके साथ रहा हूँ इसलिए हो सकता है विश्वासपूर्वक उनकी प्रशंसा ना कर पाऊं पर इनका जीवन मैंने खुद देखा और खुद जाना है |अस्तु ना ही मुझे जरा  भी संदेह है और ना ही थोड़ी सी शंका |ऐसा नहीं कि उनमें बुराइयां नहीं थी ,किन्तु अच्छाइयों की तुलना में नगण्य |
                 ११ वी और १२ वी की कक्षाओं में हिंदी पढ़ाते और विद्यालय के प्रधानाचार्य का पद सँभालते ,वो भी इतनी बखूबी कि आज भी मैं और मेरे से पहले के कई लोग उन्हें उनके पद के नाम से ही संबोधित करते है  |सुबह -सुबह जल्दी उठ जाते ,फिर योग,प्राणायाम ,ध्यान ,स्नान करते और उसके बाद सारी ख़बरों को अन्तःस्थ करने के लिए अखबार पर एक निगाह डालते |९ बजे अपने ऑफिस जाते ,जिसमे घुसने से पहले प्रार्थना कक्ष में स्थित हनुमान जी को प्रणाम करते ,फिर दरवाजे का ताला खोलते ,अन्दर घुसते और घुसते ही सबसे पहले उनकी नज़र दीवारों ,दरवाज़ों और पर्दों के कोनों पर जाती ,ताकि यदि कहीं मकड़ी का जाला या गन्दगी हो तो उसे तुरंत साफ़ कराया जा सके |ऐसा इसलिए नहीं कि उस गन्दगी से उनकी स्वच्छता थोड़ी घट जाएगी बल्कि इसलिए कि ये एक अच्छी आदत थी और उनके अनुसार आप जहाँ भी बैठो उसके चारों   तरफ सफाई करके बैठना अच्छा था|फिर पूरे दिन विद्यालय और उसके बाद अपने आवास (घर जो विद्यालय के अन्दर ही बना था )चले जाते |
               सुबह सुबह प्रार्थना में रोज़ कोई ना कोई अच्छी  बात बताते,शिष्टाचार सिखाते ,कुछ ऐसा जो शायद हम लोगों को आजतक बाकी स्कूलों  के बच्चों से अलग बनाता है|कक्षा में पढ़ने आते ,तो हमेशा यही समझाते कि कभी "पेट  के गुलाम  ना बनो  "|उस समय  ये बात थोडा  कम  समझ में आती  थी ,लेकिन आज जब  तीसरे  और 5 वें  सेमेस्टर  से हम लोग सब कुछ छोड़ नौकरी पाने की कोशिश में जुट जाते हैं तब लगता है कि क्यों हर बार वो आगाह करते थे इस बात से ....|हमेशा किताबी ज्ञान से हटकर कुछ अलग बताते |कोशिश करते कि हम लोग पढाई के प्रति अपना नजरिया बदले ,कभी कभी खीझते भी ये देखकर कि हम सब लोगों को कोचिंग  और बाकी चीज़ों से ही फुरसत नहीं पर फिर भी ना जाने किस आशा में माली की तरह अपने ज्ञान जल से हमे सीचते रहते |खुद बहुत अच्छे  कवि,लेखक ,विचारक  और समीक्षक  थे लेकिन उनकी प्रसिद्धि-परान्मुख ने कभी उन्हें अपने विचार छापने या बेचने  को मजबूर नहीं किया| बच्चों  के साथ  हँसते -खेलते , हम तरुण  वर्ग  के लोगों के बीच  होते  तो हमें  अपने अन्दर छिपी  क्षमता  का एहसास  दिलाने  की कोशिश करते ,कुछ और बड़े लोगों के बीच होते तो उनकी समस्याओं का हल प्रस्तुत करते और अपने आयुवर्ग में एक गंभीर चिन्तक की भूमिका  निभाते |
             इसलिए उनकी छाँव में रहते हुए जितना भी जिया वो अब तक का सबसे स्वर्णिम समय लगता है |गुरु क्या होता ,क्यों होता है ,और क्या करता है -ये तीनों ही बातें उनसे ही जानने को मिली |इसलिए भले ही किसी को ना लगे कि ऐसे साधारण जीवन में कोई अनोखापन या विशिष्टता  हो सकती है पर जो उनके साथ रहे हैं  उनके लिए वो एक प्रेरणास्रोत है ,थे और रहेंगे ......
बस वही बात है -"आग की गर्मी उतनी ही लगती है  जितना कि आप उसके पास जाओ "|          
इसलिए शत शत नमन उनको.......
-- 

                                                  
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Saturday, February 19, 2011

शौक- ए- दीदार


 "
शौक-ए-दीदार है अगर
                                तो नज़र पैदा कर  .|"
                            
                           ये पंक्तियाँ  मैंने अपनी  नवी  कक्षा  में  पढ़ी  थी  |उस  समय अनुभव  थोडा कम  था ,तो  अर्थ ज्यादा  नहीं  समझ  आया ,लेकिन  पाठ्यक्रम  की  बाकी  चीज़ों  की  तरह  इसे  भविष्य  के  लिए  टालना अच्छा  नहीं लगा |कारण- साधारण होते हुए भी ये शब्द अपने अन्दर  छिपे किसी गूढ़ सत्य का मूक व्याख्यान करते हुए लगते|छटपटाहट  बहुत  हुई,कोशिश  भी  बहुत  की ,पर  मन  को  संतुष्ट  करने  लायक  कोई  उत्तर  ना  मिला  ....
                          अभी   कुछ  दिनों  पहले  ही  अपने लैपटॉप  पर  कुछ  वीडियो  देख  रहा  था |पता  नहीं  मै  ज्यादा हताश  था ,या  फिर  वो  विडियो ज्यादा  प्रेरणादायी ..पर कुल मिलाकर लग रहा था कि मै कुछ ऐसा देख रहा हूँ जो कम से कम समय का सदुपयोग तो कहा ही जा सकता है |बमुश्किल ३-४ मिनट की ही विडियो रही होगी , लेकिन उसमें  जो दिखाया गया वो मैं समझता हूँ कि हम सबको जानना चाहिए|यद्यपि वो सब कुछ हम सबको पता ही होगा पर यहाँ उसका जिक्र करने का उद्देश्य कुछ और है| 

  •  -एडिसन को बल्ब के लिए अपने प्रयोगों में १००० से ज्यादा बार असफलता मिली ,पर उसके बावजूद उसने 'आविष्कार ' किया 'विद्युत् बल्ब 'का |
  • -'माइकल जोर्डन' जिसे अपनी दसवी में अपनी स्कूल कि बास्केटबाल टीम से निकाल दिया गया था ,वो आज दुनिया का सबसे बेहतरीन बास्केटबाल खिलाडी बना |
  • -'वाल्ट डिज्नी ' को एक अखबार ने इसलिए निकाल दिया ,क्योंकि उनके अनुसार उनमें कल्पना कि कही कुछ कमी थी |...........
और इसी तरह से कई लोगों के बारे में कुछ प्रेरक बताया गया था...
विडियो ख़त्म  हुआ नहीं ,कि मैं ख़ुशी से झूम उठा ,क्योंकि मुझको मेरी छटपटाहट शांत होती दिखने लगी थी |फिर  एहसास हुआ कि क्या मतलब था असली में उन पंक्तियों का !!!!!
हम सपने बहुत कुछ देखते है ,बहुत जल्दी  ये समझ लेते है कि इससे फलां व्यक्ति को प्रसिद्धि मिली तो हमे भी मिल जाएगी |कुछ दिन उसके लिए जूझते है |अपना सब कुछ लुटा देने का नाटक करते हैं और आखिरकार जब कुछ नहीं मिलता तो मन हारकर रह जाते है |लेकिन उस वक़्त समझ में आया कि 'शौक-ए -दीदार' क्या है और उसके लिए  'नज़र ' कैसे पैदा कि जाए ??  
जिंदगी में हम जो कुछ भी पाना चाहते है ,पैसा ,रुतबा ,प्यार,खुदा ..........कुछ भी, वो सब कुछ 'शौक-ए-दीदार'-और इसे तय करने में ज्यादा वक़्त भी नहीं लगता है क्योंकि शौक का क्या है कोई भी पाल लो ....लेकिन अगर उस शौक को पूरा करना है तो फिर वैसी  नज़र पैदा करनी   होगी|'नज़र ' जो शायद सब लोग नहीं समझ  पाते ,और इसलिए  अरबों  लोगों की इस   दुनिया में  कुछ ही चुनिन्दा  लोग उँगलियों  पर गिने  जाते हैं...|ये सब लोग  महान  इसलिए ही बने  क्योंकि इन्होने  जो करना चाहा  खाली  उसीको  देखने  के लिए अपनी नज़रों  को तैयार  किया..|उसीको  पाने  के सारे  रास्ते  चुने|इसलिए अब कुछ भी पाना हो तो बस एक ही मंत्र जान लीजिये ---

" शौक-ए-दीदार है अगर
                                तो नज़र पैदा कर  .|"
                            
"       
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अब वो बात कहाँ??

वैसे  तो सामान्य लोगों की भाँति मुझे भी सौभाग्य नहीं मिला उस सुखद पल का साक्षात् गवाह बनने का,जिस पल मैं खुद एक नवजात शिशु बनकर इस धरती पर आया था और कई कोमल बाहों  ने अपने अतिकोमल स्पर्श से इनमें जीवन रस भरा था ,पर फिर भी एक बात विश्वास के साथ कह सकता हूँ -"आई वास बोर्न इंटेलिजेंट "(I was born intelligent)|उस नन्ही सी आयु में ,जब इन आँखों ने दुनिया देखी तक ना हो,अपनी माँ के आँचल में शांति का एहसास करना मैं अच्छी तरह से जानता था |किसकी गोद में रोना है ,किसमें हँसना ,किसमें शांत रहना ये सब महत्त्वपूर्ण निर्णय मैं खुद ही लेता |अपनों का प्यार ,पुचकार सब कुछ अनजान होते  हुए भी अपनापन महसूस करा जाता था |इसलिए कह सकता हूँ कि पैदा होते ही इस जड़ जगत को चेतन मनुष्य कि भांति मैं भांप सकता था,और यही दंभ लेकर मैं धीरे धीरे बड़ा भी होता रहा |ये केवल मेरी बात नहीं ,हम, आप सब ,सारे लोग इसी श्रेणी में आते है .............
                             फिर आती है स्कूल की बारी |माँ की अनौपचारिक पढाई के बाद -औपचारिकता जो पूरी करनी होती है  |वहाँ जाते ही हम सब धीरे -२ नई नई बातें सीखने लगते हैं |हिंदी के 'अ ','आ ' और अंग्रेजी के 'ऐ ','बी ','सी' से शुरुआत कर ज्यामिति ,त्रिकोणमिति के कठिन सूत्रों और संस्कृत के श्लोकों को ना जाने क्या -क्या तो नहीं ठूंसा जाता  इस दिमाग में !!!!!जो समझ में आ  गया वो अच्छा ,जो नहीं आया उसे रट लो और कॉपी पर उतार आओ|ऐसा नहीं है की ये पारंपरिक चलन बेकार है  परन्तु कहीं ना कहीं कुछ कमी तो है  |
                              हम पढ़ते हैं ,खूब मेहनत करते हैं  ,पर फिर भी सफल 'नौकर' बनते हैं ,'मालिक' नहीं |आधी जिंदगी  इसी दौड़ भाग में गुज़र जाती है कि बची हुई थोड़ी जिंदगी सुकून से कैसे जी  सके ??इतनी व्यस्तता हो जाती है ,कि खुद के बारे में सोचने का कभी वक़्त ही नहीं !!!इसलिए कभी अपने आप, खुद को हम  बुरे लगते ही नहीं |मैं यहाँ पे कोई "थ्री इडियट्स "सरीखा भाषण ना पेश करूँगा, लेकिन गौर करिए तो कितनी गलत बात है ,कि हम लोग अपनी जिंदगी का बहुत थोडा सा भाग ही  जीते हुए निकालते है?? एक अरसा  बीत जाता है ये समझने में कि हमे क्या करना चाहिए ?हम किस लिए बने हैं और कभी कभी तो पूरी जिंदगी ???
कुछ अच्छे कॉलेजों  में जाने के लिए मरते है तो कुछ वहाँ जाकर |कुछ जिंदगी का बोझ इसलिए ढोते रहते है कि आज तक किसी ने उन्हें ये बताया नहीं वो किसी चीज़ के मालिक बन सकते है .......... 
              "विद्ययामृतम अश्नुते "ऐसा कहते हैं ,लेकिन ये कैसी विद्या है जो हमे मजबूर कर देती है अपने प्राण गंवानें को|कभी अपने आप को सशक्त महसूस करते है तो डर लगता है कि कहीं कोई दूसरा इस घमंड को तार-तार ना कर दे |सर्वसम्पन्न होते हुए भी दूसरे का मुँह ताकना पड़ता है |लोग हँसना हँसाना भूल जाते हैं ये सोचकर कि इससे समय बर्बाद होगा ,किसी रोते हुए के साथ  दो पल के लिए नहीं बैठते क्योंकि वक़्त बर्बाद होगा|कई ओर बिना सोचे समझे भागते हैं, फिर जब मुँह के बल गिरते हैं तो गलती का एहसास होता है , लगता है कि जैसे जिंदगी बर्बाद हो गई |फिर हताश होते हैं तो किसी गुरु या ऐसे व्यक्ति कि शरण में  भागते हैं,जो मन की सारी दुविधा दूर कर दे .....पर क्या करें ये सब जीवन के महत्वपूर्ण नियम कहीं सिखाये ही नहीं जाते ....ना किसी पाठशाला ,ना किसी मदरसे में,ना ही किसी कॉलेज में |बचपन कि सारी कुशाग्रता इस बनावटी ज्ञान के आगे हार मानती सी दिखने लगती है |
               इसीलिए लगता है कि उम्र के साथ खाली हमारा तजुर्बा बढता है , ज्ञान नहीं |  जितने स्वछन्द  हम पैदा होते है, उस पर धीरे -धीरे परत दर परत बंधन बनता जाता है,वो भी इसलिए क्योंकि हम चीज़ों को एक दायरे में रखकर  समझने लगते है | ऐसा लगता है मानो मजबूर हो गए हो ,एकदम बेबस .....
                  ऐसे समय में बचपन का वो दंभ ही याद आता है जिसमे हम सबसे अच्छे  सबसे न्यारे होते हैं,और उसी से हिम्मत मिलती है ये सोचकर कि अगर पैदा होते ही हम बुद्धिमान थे तो इतने बेबस होकर  घुटने कैसे टेक सकते हैं ???और एक बार फिर जिंदगी की खोज में  निकल पड़ते हैं ........        
   



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नव -निर्माण


                                                           नव -निर्माण 




है लहू जो बनकर दौड़ रहा,
       वो कण-कण तुझे पुकार रहा|
जागोबेटो भारत माँ के 
       माँ को देखो कोई मार रहा| 

तलवार ,धनुष और तीरों में 
       अब जंग नहीं लगने देना
लुट चुका है पहले  बार कई                    
       इस बार ना तुम ठगने देना| 

जरा सुनो शिवाजी,राणा का 
       तेजस तुमसे ये बोल रहा,
थामो संस्कृति की बागडोर 
       उसपे है संकट डोल रहा|

 पद्मावति के जौहर, 
       झाँसी की रानी का सम्मान करो 
गुरु तेग बहादुर सदृश पुत्र के
            त्याग पे कुछ अभिमान करो|

चाणक्य,पाणिनि,सुश्रुत के
            ग्रंथो को अब तो खोलो तुम
फिर विश्वगुरु का पद पाकर
            दो शब्द ज्ञान के बोलो तुम|

अब तुलसी ,सूर कबीरा के
            छंदों की वर्षा तुम कर दो
जो आँगन भय से सूख गए 
       उन्हें प्रेम भक्ति जल से भर दो|

इसके हिमगिरि सा मुकुट कहाँ 
       हिंदसागर सी  है पायल
जिनके सौंदर्य के दर्शन की
       पूरी दुनिया ही है कायल|

है सब ऋतुओं का वास यहाँ
       सब धर्म यहाँ पर बसते हैं 
कभी सजती  ईद में है मस्जिद 
       कभी नवरात में मंदिर सजते हैं|

यहाँ गुरबानी के उपदेशों से 
       पाप कई रुक जाते हैं|
जीसस मैरी के चरणों में 
            कभी शीश कई झुक जाते हैं|

यहाँ धर्मजातिभाषाबोली
            
गढ़ते रहते हैं रूप अनेक

 समृद्धि सूत्र में बँधकर पर 
            
लगते ये मोतीमाल  हैं एक|


लाल किला और ताजमहल
            
की ईटें सब ये कहती हैं 

 क्यों 'धर्म' नाम पर लड़ते हो
            
जब खून की नदियाँ बहती हैं |


सदियों से गुफा अजंता की
            
कान्हा के मंदिर बोल रहे है

 प्रेम सार बस जीवन का
            
क्यों नफरत सब में घोल रहे|


मंदिर,मस्जिद ,गुरुद्वारों की
            
मर्यादा का भी कुछ सोचो
जो परत जम गयी जख्मों पर
            
अब फिर से उनको मत  नोचो


तुम नालन्दा और तक्षशिला
            
की ज्ञान ज्योति,बन जल जाओ 

कोणार्क,सूर्य मंदिर सबको
            
स्तूप साँची का दिखलाओ|


इसके गौरव को जानो तुम                                  
            
अक्षुण ये इसकी थाती है 

वैविध्य है जो सबके अन्दर
            
वो बात ही सबको भाती है|


ना खून बहेना हो क्रंदन
            
अब बने ना हिंसा मनोरंजन
समृद्धि,शांति की बाहों में ही
            मानव का  हो आलिंगन|

तुम 
उठो,बढ़ो अब पग-पग कर 
            बदले भारत का मान बनो
 
जो 
खोया है इस जगती ने 
            लौटा हुआ वो सम्मान बनो | 
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Wednesday, February 16, 2011

क्या पाया हूँ क्या खोया हूँ??


यादों  के सिरहाने  पर,मै सिर रखकर  के सोया  हूँ  
गिनता  हूँ  बीते  लम्हों  में ,क्या  पाया  हूँ ,क्या  खोया  हूँ ???

है बचपन  भी वो याद मुझे  ,जब गिरकर रोया  सिसक  -सिसक 
चाहा  हसरत  हर पूरी  हो ,पर माँगा  उसको  झिझक -झिझक | 
जब लगी  चोट  कोई  तो  फिर ,माँ  के आँचल  में रोया  हूँ 
गिनता  हूँ  बीते  लम्हों  में, क्या  पाया  हूँ  क्या  खोया  हूँ ||

 दुनियादारी  सब बेईमानी  ,एक  दौर  हुआ  वो करता  था
जब धन -दौलत  का  लोभ  नहीं  ,मन दो लड्डू  पे मरता  था|
जब मौज  बरसती  बादल से, तो  'रेनी  डे'  मन जाता  था
जब कागज़ की नावों  से ही,हर सपना सच बन  जाता  था|
उन झूठे सपनों  की  बस्ती  में, भटक  कहाँ  मैं खोया  हूँ 
गिनता  हूँ  बीते  लम्हों  में ,क्या  पाया  हूँ  क्या  खोया  हूँ  ???

जब दादी  नानी  बैठ  प्यार से,खाना  मुझे  खिलाती  थी ,
हर एक  कौर पर घोडा,हाथी  बन्दर  सब याद दिलाती  थी| 
जब तारों  को तकते -तकते,पलकें यूँ  ही गिर  जाती   थी  
जब गोद  में रखकर  सिर 'अम्मा ',परियों  के घर  ले  जाती  थी | 
अब  कट  जाती  है रातें ,बस पलकों के झूठे  नाटक  से
बस ढूँढूं  है  वो गोद  कहाँ ,जिसपे  सुकून  से सोया  हूँ| 
गिनता   हूँ  बीते  लम्हों  में, क्या  पाया  हूँ  क्या  खोया हूँ | 
                                                        


जब पापा  कंधो  पर बैठा,'घुम्मी'  करवाया  करते  थे  |
जब खुद  घुटनों  पर बैठ ,सवारी  मुझे  कराया  करते  थे 
 जब ना पढता  ,तो  आँख दिखाकर  गुस्से  से थे  डरवाते  
फिर बाद  में  टॉफी  दे  देकर , फुसलाने  में ही थक  जाते|
उस डांट भरी फुसलाहट को, कर याद बहुत मैं रोया हूँ 
गिनता हूँ बीते लम्हों में ,क्या पाया हूँ क्या खोया हूँ |

ना जाने वो सब झूठा था ,या वर्तमान का सार नहीं 
पर था जो भी सब अच्छा था,बचपन मिलता सौ बार नहीं |
उन मीठी कडवी यादों को ,इक पल में नहीं भुला सकता 
उन बचपन की गलियों में फिर, चाहूं तो भी ना जा सकता 
इसलिए ना इनको छोड़ सका थककर भी अबतक ढोया हूँ
गिनता हूँ बीते लम्हों में, क्या पाया हूँ क्या खोया हूँ|
--                                                                                
                   


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Tuesday, February 15, 2011

आज जो बादल बरसा फिर से

आज जो बादल बरसा  फिर से
            आँख मेरी भर आई है 
इस मिलने के मौसम में फिर 
             जाने कैसी तन्हाई है???

छम -छम  बादल बरस रहा 
            और पल पल मन ये तरस रहा 
तेरा जो भी ख्वाब था देखा 
            सच  होने को तड़प रहा
 ख़ुशी मिली उन ख्वाबों  में जो
           फिर पानी बन झर आई है|
आज जो ------
                                                              
निकल पड़ा उन राहों पे फिर ,
         कभी जिसपर तुमने साथ दिया|
जब गिरकर चूमा धरती को
          उठने को अपना हाथ दिया|
ना साथ रहा, ना हाथ रहा
          बस याद तेरी रह पाई है|
आज जो----------------


है याद वो पलकें  फेर
         तेरा गिरती बूंदों में शर्माना |
है याद वो तेरा झूम -झूम 
         नटखट बालक सा इठलाना |
है याद वो हाथों को फैला 
         झरती बारिश में रम जाना |
और याद है  उनका अगले पल 
         छाता बन सिर पे थम जाना|
 हर वो तेरी याद अदा बन 
         दिल में फिर से गहराई है
आज जो ---------------

संग -संग यूँ सब घूम रहे 
        मस्ती के रंग में झूम रहे| 
कभी पलकों को कभी हाथों  को 
        कभी माथे को ही चूम रहे|
अपनी भी ऐसी मस्ती कुछ 
        आँसू बनकर मुस्काई है|

आज जो बादल बरसा फिर से 
आँख मेरी भर आई है|
इस मिलने के मौसम में फिर 
जाने कैसी तन्हाई है  !!!!!!!!!!!!!!!!!!

                                                

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