"टिर्र टिर्र" -एक चुभन भरे शोर ने नींद के सुरमयी संगीत में खलल पैदा की और आँखों के आराम का शीशा फर्श पर गिरकर टुकडा -टुकडा हो गया| कड़वाई हुई ,अधखुली आँखों ने गुस्से से एक नज़र घडी या मोबाइल पर डाली और परशुराम की तरह तुरन्त ही उस आवाज का सिर कलम कर दिया गया |कारण -"अभी उठने का समय ही कहाँ हुआ है ,थोडा सा और सो लेना चाहिए "| यही आरजू होती है न हर दिल की, उस समय ,जब नींद से उठना जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य काम होता है |
Vote for me now! Blogomania 2011 sponsored by CommonFloor.com - India’s Leading portal to find apartments for sale and apartments for rent अब महापुरुषों की बात छोड दीजिये,तो हम ,आप,सामान्य मनुष्यों की तो यही कहानी है |रोजाना जब नींद अपने चरम पर होती है ,जब ख्वाब में कुछ बहुत अच्छा या बहुत बुरा होने वाला होता है|तब एकदम से कोई ना कोई अड़चन पैदा हो ही जाती है |क्यों ना हो??-रात के बाद दिन की व्यवस्था जो कर रखी है प्रकृति ने अपने टाइम-टेबल(समय सारणी ) में |अगर सोते ही रह गए ,तो काम कब करेंगे ?काम नहीं करेंगे तो जिंदगी कैसे चलेगी? और अगर जिंदगी चलायमान ना हो तो जीने का फायदा ही क्या????? इसलिए दिन में काम करिए रात में आराम ,बाकी मदद के लिए सूरज और चाँद आपके साथ रहेंगे |लेकिन मानव जीवन की विवशता या यूँ कहें ,विडंबना यही है कि जो चीज़, जो काम होने चाहिए ,जो करणीय है उसमे मन कम लगता है अपेक्षाकृत उन कामों के जिन्हें नहीं करना चाहिए| उदाहरण देखने हो तो पूरा सागर भरा पड़ा है -सुबह समय से उठना चाहिए ,रोज़ नहाना चाहिए,योग व्यायाम करना चाहिए,पढना चाहिए और भी बहुत कुछ ......;लेकिन सुबह नींद आती है ,सोचते है -कौन बिस्तर से उठकर योग व्यायाम करे ,रोज़ पानी खर्च करके नहाने का पाप कौन अपने सिर मढ़े,किताबों को रोज़ पढेंगे तो मौज कब करेंगे????? ऐसे ना जाने कितने ही भाव मन में उठते है जो उसकी कर्मासु प्रवृत्ति को फलीभूत होने ही नहीं देते |"करना चाहिए "के भाव से अंत होने वाले वाक्य विपरीतार्थक "करते है "के भाव से ख़त्म होने लगते है ?क्यों -क्योंकि ये सब करना हमें अच्छा लगता है|
किसी खेल में मन लग जाए तो रोज खिलवा लो,किसी से 'फेसबुक ' या 'ऑरकुट ' पर बात करनी हो तो रात भर जगवा लो,कोई मन को भा जाये तो उससे रोज़ मिलवा लो ....इत्यादि-इत्यादि |ऐसे ना जाने कितने ही काम है जो उस पड़ाव तक तो पहुँचते ही नहीं ,जिसमें ये निर्धारित किया जाता है ,कि इन्हें करना चाहिए भी या नहीं |अगर प्रश्न फिर से वही है क्यों ??तो उत्तर भी वही -क्योंकि ये सब हमे सुख देता है ,मन को अच्छा लगता है |
इस श्रेणी का सबसे महत्त्वपूर्ण काम ,जिसका कॉलेज में आने के बाद से सर्वाधिक अभ्यास किया गया है ,वो है -"पेपर(परीक्षाओं ) के समय सोना |"इंजीनियरिंग कॉलेजों की शायद ये परंपरा है ,जिसका आप अनायास ही अंग बन जाते हैं |जो आपको कर्म पथ से विचलित कर बार -बार अपने अभीप्सित की ओर ढकेल देती है|जिस समय जागना चाहिए उस समय सोने की आदत तो हम पहले ही डाल लेते है ,लेकिन जिस समय 'जागना ' जरुरत हो ,और तब भी 'जरुरत' को 'तवज्जो 'ना देकर 'इच्छा 'का पक्ष लेने का मन करे -तो क्या कहा जा सकता है !!!!!!!!!! खासकर सर्दियों में जब रजाई के गरम आगोश से अधिक अपनापन और कहीं नहीं लगता ,और उसे ठुकराना निष्ठुरता बन जाये ,सोना संसार की सर्वाधिक सुखदायी क्रिया बन जाती है |पढाई के लिए अत्यंत गंभीर लगने वाला हमारा मन एक दो बार तो पलकों को संभालता है ,लेकिन फिर इच्छाओं के बोझ तले पलकें खुद को गिरने से रोक नहीं पाती |किताब खुली हो,बंद हो,या तकिया बनी हो इसका होश रखने का तो वक़्त ही नहीं मिलता |फिर दोबारा जब नींद खुलती है तो आंखें सच- मुच खुली की खुली ही रह जाती है क्योंकि तब एहसास होता है कि सारा समय तो हमने आराम फरमाने में ही गुज़ार दिया |हडबडाहट में बची कुची नींद भी भाग जाती है और तब किताब ही सारी दुनिया नज़र आती है |तरह-तरह से मन को हौसला दिया जाता है ,और तब पढाई शुरू होती है इस जज्बे के साथ कि- कोई नहीं जो हो गया सो हो गया ,सब ढंग से करेंगे तो अब भी पढ़ लेंगे |
लेकिन धीरे -२ जैसे जैसे वक़्त बीतता है ये जज्बा ,ग्लानि में परिवर्तित होने लगता है क्योंकि तब तक हमे एहसास हो चुका होता है कि हम वक़्त से तेज नहीं|मन में दुःख बहुत होता है ये सोचकर कि काश थोडा पहले से पढ़े होते !! पछतावा होता है ये जानकर कि कितनी मक्कारी की हमने जो आज ऐसी हालत हो गई |
पर क्या करें???उस नींद में जितना मजा है उतना और कहाँ ?????