Monday, August 20, 2012

ईद का चाँद



घुटने के बल सरक सरक...कर 
बड़ी दूर से आकर उसने ...
पीछे से ...ऊँगली थामी थी ...
और कानों में हौले ,,बोला था  ,
-
---"एक संदेसा लाया हूँ ,.....
ख़ास है..!!!!
पढना चाहोगे ....???  "||--

पलट के देखा ज्यों ही . ..
नन्हा छोटा चाँद खड़ा था.....
हथेली पे, नाज़ुक सी उसकी 
"मेहँदी" से तेरा नाम लिखा  था...
रचा हुआ था-..".मैं" भी उसमें...
और नीचे पैगाम  लिखा  था 
"तुमको भी ये ईद मुबारक....."

आज समझ में आया ...
"ईद के  चाँद का इतना रुतबा क्यों है...!!!!!!! "
                                        -अनजान पथिक 

Sunday, August 19, 2012

मैं जिंदगी का साज़ हूँ ...

मैं जिंदगी का साज़ हूँ ..,होठों पे ठहर जाऊँगा...
साँसों के सुर सजाना तुम ,मैं गीत बनकर आऊंगा ...!!!
हो जिंदगी बेसाज जब ,तब गुनगुनाना मुझको तुम...
मैं गीत हूँ ,जो ज़िन्दगी को सुरमयी कर जाऊँगा..!!

तुम अश्क बन के टूटोगे  ,जब भी मुझसे रूठोगे ..
मैं गीत,गज़ल,हंसी बनकर तुझको फिर मनाऊँगा.. ||

जो तुम कहोगे मुझसे कि मैं प्रीत की एक रस्म हूँ ,
सच मानो तो मैं उम्र भर ,ये रस्म फिर निभाऊंगा...

तुम बोलकर भी सोचोगे ,कुछ रह गया जो ना कहा 
मैं बिन कहे तेरी वो सब खामोशियाँ पढ़ जाऊँगा....

तुम मेरे संग बैठोगे तो खुद को भूल जाओगे..
और मेरे बिन जो बैठोगे ,तो तुमको याद आऊंगा ...
तुम ज़िन्दगी की रातों में ,खुद को जो तन्हा पाओगे..
मैं जुगनू बनके ही सही ,एक रोशनी कर जाऊँगा...

तुम जब भी गुनगुनाते हो , मैं मायने पा जाता हूँ .... 
इक बार गा लेना कभी ,तो मैं अमर हो जाऊँगा...!!!
मैं जिंदगी का साज़ हूँ ..,होठों पे ठहर जाऊँगा...||||
                                                                -अनजान पथिक 

Tuesday, August 14, 2012

साँसों की दस्तक ....



सांसें जब भागी थी 
इस जिस्म के घर से...
बोली थी तब -"तुमको छूकर ही लौटेगी ...."||
साँसों का तो पता नहीं...
हुई लापता कहाँ ....
मगर .......
उम्मीद का दिन ढलने को है...
अँधेरे ..की ...कड़वी हंसी   ...
"चिरागों " के कान के परदे ,,जैसे  फाड़ रही है...
"लौ" की हर धड़कन कहती है ...
"बोलों तुम आओगे सच में ....तो और जलूं मैं...??"
वरना ..तुम बिन जलने का  मतलब ही  क्या है ....??
तुम न हो ....तो फर्क कहाँ हैं...
रोशनी और अंधेरों में....??
रातों में और सवेरों में...??

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रुको,
ज़रा कुछ आहट सी महसूस हुई है दरवाजे पर  ....
देख के आने दो .....
शायद ....कोई सांस ...
पता तेरा .....,खबर तेरी ....., लेकर लौटी हो ....
दुआ करो  ....ये गली में खेलती 
हवा की कोई शरारत न हो ...||
------
"ए दरवाजे ...
जो भी हो....पकड़ के रखना .......
बिठाना ,बातें करना .....
हो सकता है ...
वो ही आये हो.......
साँसों को वापस करने....||"
                               -अनजान पथिक 


Monday, August 13, 2012

सौदा...

उम्मीद के सिक्के जेब में  भरकर 
वक्त की बाज़ारों में निकला ......  ..
सोचके ये .....
कोई सही सी दिखे दुकां (दूकान) जो   ....
थोड़े वक्त के पाक से लम्हें ले लूँगा मैं...
फिर उनको तेरे साथ जियूँगा ...||

पर आज भी चेहरे पर मायूसी लेकर  ..ही लौटा हूँ ...

मुट्ठी भर भी नही मिले पल.....
तुमको देखूं  ,तुमको सोचूं ,
तुमको पा लूं.,या फिर खो दूं 
 या फिर तुमको जी ही लूं....
इतने ज़रा से ....वक्त में, बोलो .....??

 "हर एक ..बात के लिए मेरी जाँ, एक पूरी सी  सदी भी कम है..||"
 
आज समझने लगा हूँ ...ये कि
सच कहते है शायद लोग ..जो  कहते है ये  ....

"ज़माने में महँगाई बहुत है ....."||

                                                  -अनजान पथिक 


Sunday, August 12, 2012

"तुमसे बात "

सुनो ...
एक बात कहूं मैं !!...
ये जो एक लम्बी सी चादर है ना ...
फासले की ...
मेरे दिल से तेरे दिल तक
..आओ इसे ..समेट ले ..थोड़े वक़्त की खातिर 
एक सिरे से तुम पकड़ो 
एक सिरे मैं हाथ लगाऊं .....||
फिर जब ...वक्त दोबारा करने लगे शिकायत ..
फिर से..इसे तान देंगे...||

फिर से उतनी दूर चले जायेंगे ....
जैसे...
एक दूजे के कभी ना थे....
"ये तो हम पहले भी करते आये है ना .."||

बोलो ,,,,क्या दिक्कत है...??
"और वैसे भी हम अलग कहाँ हो पाते ही हैं....!!!!"
                                   -अनजान पथिक ......

पतंग ...



                                                              

पतंग की तरह आसमाँ में दिन भर उड़ता रहा इक सूरज
किस छत से ,,किस डोर से,,किस छोर से...
ये मालूम नहीं... 
मांझा खीच, कभी फलक पे ऊपर तान देता कोई 
तो कभी ढील देकर नीचे कर देता था कोई ...
मज़े मज़े में...||
****
पर अब तो शाम भी  चढ़ आयी है छत पर ..
हाथ में चाँद की पतंग लिये ...
लगता है फिर पेंच लड़ेंगे...!!!!
सुना हैं ..बड़ा तेज़ है .मांझा- चाँद का....
रोज़ पतंग कट जाती है सूरज वाली ...
और कुछ आवारा से ..क्षितिज
नंगे पाँव ही दौड़ जाते  हैं लूटने.उसको ..
..........
आज ज़रा काम है कम  .....
तो मैं भी फुरसत में खड़ा हूँ छत पर,
बस इस  इंतज़ार में  ..
कि..शायद जो पेंच लड़े गर आज ....
और कटे जो सूरज फिर से ...
गुज़रे मेरी गली या छत के ऊपर से ..
तो ..लंगड़ डाल के..,उछल -उचक के.. ..
कैसे भी ...मैं लूट लूँ शायद...
बहुत ज़माना बीता मुझको भी अब तो पतंग उडाये.....
"बड़े शहर में वैसे वरना कहाँ पतंगें उड़ती ही  हैं..???." 
                                                -अनजान पथिक..