Sunday, March 24, 2013

कविता क्या है ..??


"कविता" 
दिल के सियाह से तहखाने में,
वो अकेले ही उतर जाती है कभी कभी ....
जहाँ अमूमन जाना नहीं पसंद करता कोई ....॥ 
हर मासूम सी आरज़ू मेरी ,दौड़ कर चिपक जाती है उससे ....
कई कई बार वो बिन बोले ही समझ जाती है 
कि कितनी ज़रूरत है मुझे उसकी .... .
और मुस्काते हुए उठा लेती है वो गोद में ,
मेरे हर नन्हे सी ख्वाहिश  को ..
पुचकारते हुए ,दुलारते हुए ......
जैसे " खून के रिश्ते " से भी ज्यादा पवित्र कोई रिश्ता हो उससे ..

इसी तहखाने  में एक ओर रहती है 
कई शरारती बच्चियाँ - - "हसरतें"  कहते हैं जिनको जानने  वाले सभी  ..
हर बार जब वो (कविता) आती है .. तो लाती है 
उनके लिए कुछ न कुछ नया ज़रूर ....
जैसे दादी लाती थी मेरे लिए ..छुटपन में .....
छोटे बेसन के लड्डू  ,इमली वाली गोली ....

कभी किसी अधजगे ख्वाब के पास घंटो बैठ कर 
उसके माथे पे वो  देती रहती है ठंडी थपकियाँ ...
तो कभी किसी याद के साथ निकल जाती है वो 
खेलने बहुत दूर ,उसकी किसी  सहेली की तरह ....
 

कई मजबूरियाँ भी है गुमसुम सी ..
उन बच्चियों की तरह जिनसे नहीं पूछता कभी कोई -
कि कैसा  सोचती हैं वो ,
क्या चाहती है वो .....
सबसे ज्यादा सुकून उनको ही मिलता है उसके (कविता के )आने पर ..
क्योंकि उसके पल्लू में छिपकर हर बार वो कह देती है अपना सब कुछ .
जैसे सगी बेटियाँ हो उसकी .......

उसके आने की आहट से लेकर ,
जाने के एहसास  तक .......
महकता रहता है , तहखाने का हर एक कोना 
अपनेपन की इक अनजानी, सौंधी खुशबू से ... 

और कितने भी दिन बीते चाहे ,उसे यहाँ पर  आये हुए 
उसे बखूबी  रहता है याद  ....
हर एक चीज़  ,
हर एक चप्पा ,
कि पिछली बार क्या ..,कहाँ ..,किस हाल में रख कर छोड़ गयी थी .....

इसलिए कितना भी ..कागज़ पे लिख लूं मैं उसको 
बस यही हूँ कहता ...
"कविता " बस लफ़्ज़ों की कोई रस्म नहीं हैं ...
"कविता"- एक किरदार है खुद में बहुत मुकम्मल ....
"कविता" है एक आग कि जिसमें जलना जीवन ..
"कविता" है एक माँ ,है मुझ पर जिसका आँचल ...॥   

                                अनजान पथिक 
                                (निखिल श्रीवास्तव )

Saturday, March 23, 2013

एहसास की जुबां होती अगर ...

एहसास की जुबां होती अगर ... 
सच मानो तुम पर ..
बेसाख्ता लिखता बहुत कुछ..॥ (बेसाख्ता = in an effortless manner)
तुमको लिखने के लिए 
नहीं चाहिए कोई अल्हड सी वजह ...
कोई अधूरी सी ख्वाहिश ...
सदियों से पला कोई अनकहा दर्द ...
किसी मोड़ पे इंतज़ार करती हुई इक मोहब्बत.....
यादों की किताब का कोई अनछुआ किस्सा ..
या मन की जुस्तजू का भूला हुआ इक हिस्सा ....

हर बार आँखों की नमी पे लिखे शब्दों के ..
ढूँढ लेता मायने ..
क्योंकि सब कहते है ..
ये हुनर आ ही जाता है ...मोहब्बत में होने के बाद….
और चुन लेता अपने होठों पे बैठी वो शोख मुस्कुराहटें ...
जो किसी मौसम की तरह छाई रहती है हमेशा
एक अनकहे रिश्ते की सहेजी अमानत की तरह ....||

क्या लिखता , मालूम नहीं ..
कितना लिखता हिसाब नहीं ..
कैसे लिखता ,सोचा नहीं ... ..
पर एहसासों की जुबां होती अगर ...
तो सच मानो
बेसाख्ता तुमपे लिखता बहुत कुछ ...॥

- अनजान पथिक

बहुत खामोश सा हो जाता हूँ उससे बात करते वक्त ...

बहुत खामोश सा हो जाता हूँ उससे बात करते वक्त ... 
खासकर उस वक्त ,
जब वो नींद में सराबोर आँखों से
एक दो पल की मोहलत मांगकर
कुछ भी बोलने की कोशिश करती है तब ....|| 
ऐसा लगता है -
जैसे किसी मासूम से खुदा से रूबरू हो गया हूँ मैं .....॥ 

बहुत प्यारी लगती है वो -
आवाज़ की हर इक उलझी हुई किश्त में ....
कानों तक नहीं पहुँचता कुछ भी ..कहा हुआ उसका
पर दिल पर हर एक लफ्ज़ उतर सा जाता है
दीवारों में सीलन की तरह बिन किसी आहट ...

उसको यूं ही सुनते सुनते बिता सकता हूँ जिंदगी सारी ..
क्योंकि नहीं होती हर किसी की बात इतनी प्यारी...
कि बिन सुने हर एक ख़ामोशी ,
हर एक कतरा आवाज़ का घुल सा जाये ... रूह में ...
पिघल जाये सारी बातों के मायने...
रह न जाए कुछ भी दोनों के दरमियान...
एक पाक से एहसास की डोर के अलावा ....॥

तुम्हे सच बोलूँ एक बात .. -मेरे खुदा...
ऐसी ही बातें मांगी थी अपने हिस्से में मैंने ...हमेशा से
हर सांस में बस इतनी ही मोहब्बत चाही थी ..॥

अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )

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तुझको बयाँ करने का बेहतर ढंग बता -ऐ इश्क ..
आवाजों में ,शक्लों में ,तो ढलता है खुदा भी ....!!!

अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव )