Tuesday, June 7, 2011

एक सुबह तेरे जैसी.....

एक रात ने दस्तक दी , दरवाजे पर,,
कुछ लायी थी मेरे लिए,
अपने दामन में|
खिड़की के बाहर खड़े होकर,
बुलाया एक इशारे से..
और बिखेर दी आब-ओ-हवा में
सुबह थोड़ी सी...
हूबहू तुम्हारी तरह ,
नाज़रीन सी,शोख सी...||
परिंदों के शोर की
पायल पहनी थी उसने
जितना इतरा के चलती ,उतनी छन -छन  करती ...||

फलक के आईने में बार-बार, अपना अक्स देखकर
सज रही थी वो (सुबह) ,
जैसे तुम सजा करती हो अक्सर
ड्रेसिंग टेबल के सामने ..
दांतों में क्लिप दबाकर
बालों को गर्दन के पीछे करके.....


                                              

पहले रात की काली परत उतारी
फिर थोड़ी कच्ची सी धूप मली गालों पे ,
परत दर परत नूर बिखरता जाता है
रंग निखरता जाता है...|
बार -बार,,अपनी  बादल जैसी जुल्फों को
हटाती है अपने होठों से ,
ये नादान लटें एक भी मौका नही छोडती
उसके लबों को छूने का...
फिर ना मानने पर
एक ऊँगली में घुमाकर ,पीछे ले जाती है इन्हें कान के..
सच बताओ.. तुमने ही सजना सिखाया है ना इसे...??
कुछ दूर मकानों की एक बस्ती के पीछे तभी एक सूरज दिखा ,
एडियों पे खड़ा होकर उचकता हुआ..
मुझे हाथ हिलाकर "गुड मॉर्निंग" कहता हुआ
वैसे ही जैसे हर सुबह तुम कहती हो...एक दिलनशीं अंदाज़ में..
उस  सुबह का हर एक झोंका छूता था  तो लगता  था
जैसा अपनी साँसों से छू लिया हो तुमने . 
फिर एक सिहरन सी मच जाती थी सिर से पाँव तलक
लगता था जैसे तुम्हारा वो ठंडा सा आँचल अभी अभी
गुज़रा हो मेरे होठों को छूता हुआ...सिर के ऊपर से.फिसलता हुआ.......

फिर ये बादलों को संवारती है ,हर एक सिलवट को सुधारते हुए
जैसे तुम सँवारा करती थी सिकुड़नें अपनी साडी की ...
सचमुच ये तुम्हारी हमशकल ही तो है
इसलिए रोज़ सुबह के बहाने मिलने आ जाता हूँ तुमसे
मालूम है ,कि इससे कुछ ख्वाबों की बस्तियां जल जाती है
लेकिन हकीकत की कुछ तो कीमत होती है ना.........

Saturday, June 4, 2011

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा
...कि जितना ढकता हूँ  खुद को
   उतना ही खुलता  जाता हूँ ...||
करता हूँ कोशिश हर बार
छू लूँ  तुझे चुपके से मैं ,
 एक  बार तो जी लूँ  ज़रा |
कुछ  बूँदें  तेरी  बारिश की
मीठी सी मैं पी लूँ ज़रा ||
पर कैसी ना जाने प्यास ये
कि जितना बरसता है बादल
उतना तरसता जाता हूँ..||
जिंदगी ये आँचल कैसा है तेरा...

हर एक टुकड़ा कतरा कतरा
महफूस करने की है जिद ...
लम्हों के सारे ये मोती
रखता हूँ दिल से बाँधकर|
कहीं खो ना जाये कुछ अपना
इस बात का लगता है डर|
पर ना जाने धागे ये
 कैसे अजब से है तेरे
कि जितना बाँधता हूँ  इन्हें
उतना ही बिखरता जाता हूँ| ....
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा.....


कितने समाये रंग तुझमें
सबकी अलग अपनी अदा
रंगीन सब मौसम तेरे
रंगीन तेरी हर फिजा...
पर ये कैसे रंग तेरे..
कुछ में कभी सँवरता हूँ
तो कुछ में खुद ही  गुम हो जाता हूँ
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा....

है दरिया तू बहता हुआ
थामे हुए हर छोर को
चुप्पी से पी जाता है तू
हर उफनते शोर को ..
जो मैं किनारे पर खड़ा
तो कुछ मज़ा आता नही
लहरों का लेने को मज़ा
खुद को डुबाता जाता हूँ..
पर ना जाने दरिया का उसूल कैसा ये गजब
कि जितना जाता अन्दर हूँ,उतना उबरता जाता हूँ |
ज़िन्दगी ये आँचल कैसा है तेरा  .......