कल एक ज़ख़्मी नज़्म मिली ,कागज पे औंधे पड़ी हुई |
टूटे फूटे अशारों से अभी भी रिस रहे थे मानी ,(मानी =अर्थ )
घुटने छिले हुए थे लफ़्ज़ों के ,
ऊँगली से छू भी दो चींखती थी नज़्म |
पर पास जाकर देखा तो वो नज़्म नहीं थी
किसी का अनकहा ,नाजायज दर्द था शायद |
अपना नहीं सकता था तो यूँ ,
नज़्म के लिबास में रखकर फेंक गया |
बिना ये सोचे कि वक़्त ज़रा भी तरस नहीं खायेगा ,इसका जिस्म नोंच खाने में |
सहते सहते मर गयी वो नज़्म !!!!!!
मैंने डायरी में वहीँ दफना दिया इसे भी ,
जहाँ तुम पर लिखी बाकी नज्में सोती हैं |
डायरी पढ़ते पढ़ते तुम गुज़रना कभी इसकी कब्र से,
तो रोना मत |
नज्में जाग जाती है आंसुओं की आहट से |
-अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )