एक मोड़ पे मिला था मै
न जाने कौन राह पर
जो तन्हा तुम थे खुद, तो हमसफ़र मुझे बना लिया ,
पर आज मंजिलों की महफ़िल में कहीं यूँ खो गए
कि खुद की चाहतों का इक अलग महल बना लिया …..
न जाने थी वो प्यास कैसी
जो पानियों से न बुझी ,
न जाने थी वो आग क्या ..
जिसने दरिया को जला दिया
चाहतों की अर्जी सारी ,गुरूर में ऐसी जली
इस परवाने ने फिर अपनी शमा तुझे बना लिया
पर आज मंजिलों की महफ़िल में कही यूँ खो गए
कि खुद की चाहतों का इक अलग महल बना लिया …..
दुआ की सारी किताबें
तेरे ज़िक्र से ही थी रंगी
माना की काँटे थे मगर
फिर फूल भी कुछ थे हसीं
जो ज़िक्र की न फ़िक्र की , तो आज हालत यूँ हुई
जो था कभी दुआ में अब, खुदा उसे बना दिया
पर आज मंजिलों की महफ़िल में कही यूँ खो गए
कि खुद की चाहतों का इक अलग महल बना लिया …..
रात चाँद तारों को ही घूरते गुज़र गई
यादों के पानी से जाने कब ये आंखें भर गई
जब बेबसी की सेज पर न मिलने आई नींद तो
ख्वाब में तेरी गोद के तकिया पे सिर टिका दिया
पर आज मंजिलों की महफ़िल में कही यूँ खो गए
कि खुद की चाहतों का इक अलग महल बना लिया …..
वैसे तो यूँ चला था मैं
कहीं ज़िन्दगी की खोज में
पर मौत जो पहले मिली
तो उसको गले लगा लिया
जिस मोड़ पर मिला था मैं ,माटी वहीँ की बन गया
टुकड़ों में खुद को मारकर, अमर तुझे बना गया
पर आज मंजिलों की महफ़िल में कही यूँ खो गए
कि खुद की चाहतों का इक अलग महल बना लिया …..
shaaaabaaash
ReplyDeletethnx pari bhai....sab kripa hai tumhari...
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