Monday, August 8, 2011

वो सफ़र एक नाव पर





पुरवाई चली एक यादों की  
 कुछ भीगे से  नम मौसम भी 
उड़कर पलकों की खिडकियों से
आ गए आँखों के कमरों  में |
 आवारा टूटे पत्ते सी
 कोई शाम कहीं से बहकर   
आज गिरी
 मेरे सपनों के आँगन  में|  

एक शाम जिसके दामन में 
 वो हसीन  सफ़र है 
जो जहन के खुरदुरें पत्थरों पे 
अभी भी उतना ही ताजा है 
जैसा मिट्टी पर चलायी हो उंगलियाँ किसीने रेशमी 
वक़्त के साथ लिखावटें बदली नहीं है उसकी |

लगता है जैसे कल की ही बात हो 
जब तुमने सफ़र तय किया हो  
इस  दिल की गीली रेत पर..
और तुम्हारे क़दमों  के निशान 
अभी भी जिंदा हो ....

उतने ही खालिस,उतने ही महफूज़ ...||

                                                                       
खामोश से उस मंज़र 
दीवानी सी उस फिजा के अलावा 
कोई ना था जिस  शाम  में|  
चाँद के दिये में भी तेल थोडा कम था
तभी शायद फीका फीका सा रंग था उसकी लौ का ..
हवाएं भीगकर  आयी  थी 
 कहीं से प्रीत की बारिशों  में  ...
हर साँस में घोल दे रही थी 
दीवानगी  थोड़ी सी  |
रोम रोम भीगा था  
उस प्यार की बदरी से |...
क्योंकि तुम बैठी थी सामने 
नाव के दूसरी छोर पर ..
ये एहसास दिलाने के लिए कि
 मेरी हमसफ़र हो तुम 
 सन्नाटों की गूँजती आवाजें अनसुनी कर ,
मैं .सुन रहा था वो साज़ ..
जो सुना रही थी
 तेरी नज़रें मेरी नज़रों को  
धुन तेरी धड़कन की थी ,अलफ़ाज़ थे मेरे नाम के .. ||


मेरे नाम को अपनी मेहंदी में कहीं छिपाकर
छुआ था तुमने जब झील के पानी को 
और हलचल दी थी सौगात में उसको 
तब लगा था जैसे लहरों के संग ..
किनारों को छू लिया हो मेरे नाम ने भी 
तुम्हारी मेहंदी की महक में खोकर ...||
तेरा होकर ....||
......

फिर कुछ पानी के मोतियों को 
अपनी हाथों की गोद में लेकर 
सुस्ताने दिया  था 
उन्हें अपने चेहरे की नर्म सेज पर
जैसे सोती है मखमली  थकी- हारी ओस 
सुबह सुबह घास और हरे पत्तों के बिस्तर  पर 
.......

फिर देखा तुमने 
मेरी ओर
 एक हया समेटे आँखों  में 
जैसे कुछ लफ्ज़  रुके हो आकर  
होठों की सरहद पे तेरे |
 उठकर फिर उस छोर से मेरे पास आयी तुम
चेहरे को पास लाकर 

बादलों में छिपते सूरज सा शरमाकर 
कानों में एक ठण्डे झोंके की तरह 
हलके से बोल दिया 
एक मीठा सा सच |
वो  तीन जादुई लफ्ज़
 जिनपर लिखा तो कई बार..

लेकिन कहा कभी नहीं..
क्योंकि वो अमानत तुम्हारी है...
किसी और को कैसे बेंच देता ..??

फिर  धीरे से सौंप दिया तुमने 
खुद को मेरे आग़ोश में  
कुछ देर ठहरने दिया थके लबों को 
मेरे लबों की चौखट पर...
और मैंने समझ लिया  हर सच
  यूँ ही तेरी ख़ामोशी से  .....|
कुछ देर को जैसे बेखुद हो गया मैं..
अपने ही अक्स में समाकर 
मदहोश हो गया मैं...||
........................ 
तभी सूरज की सुई  सी एक किरण
 चुभ गयी जोर से आँखों में
लगा जैसे कि कुछ  गिरा कहीं फर्श  पर 
और टुकड़ा-टुकड़ा हो गया..
आवाजें तो आयी
पर निशान नहीं मिले,,,||  

देखा तो बगल में तकिये  पर 
सन्नाटा खर्राटे भरकर  सो रहा था...
आजकल वो ही साथ रहता है मेरे 
संग खाता है ,पीता है,हँसता -रोता है....
तुम्हारे जान के बाद से 
अच्छा दोस्त बन गया है मेरा...|
 
उसको बिना जगाये 
 एक तस्वीर निकाली
मेज पर रखी किताब से 
अफ़सोस से एक हाथ फेरा
थोड़ी आँखों की नमी भी वारी उसपर ..
और फिर सहेज कर  रख दिया उसी तरह सोये  पन्नो के बीच ..

............
एक बार फिर समझाया खुद को..
ये नींदों  की दुनिया कभी अपनी नहीं होती..
सपनों के डाकू अक्सर आकर 
लूट जाते है बहुत कुछ....
ये नींदों  की दुनिया कभी अपनी नहीं होती....||









3 comments:

  1. I am loving it ... Bahut Sundar bahut pyari rachna.
    Laga apne meri hi kahani kah di ho ....
    thanks

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  2. @neeraj ..thnkuu so much bhaiya...
    @himantika...thnkuuu so much....keep appreciating

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