Friday, February 15, 2013

वक्त का एक नन्हा परिंदा

वक्त का एक नन्हा परिंदा 
उड़ता उड़ता कहीं से..
आकर बैठ जाता है ,ज़हन के आँगन में ..
दिन ढलने के बाद से ही ....

इस आँगन में कितने ही दाने हैं बिखरे से ..
तेरी खट्टी मीठी बातों के ,
चुगता रहता है ये जिनको
धीरे धीरे चोंच से अपनी ......||

वक्त का ये पंछी भी जाने कैसा है ..
रोकूँ तो रुकता भी नहीं .,उड़ जाता है ..
बिना बुलाए फिर हर शाम लौट आता है ..

जैसा भी है .. आने देता हूँ इसको मैं . ..
क्योंकि जाने क्यों लगता है मुझको 
ये उसी पेड़ पे रहता है .....
जहाँ हमारे एहसासों के नन्हे घोंसले हुआ करते थे ..|| ..

अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव ) 

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