Saturday, February 16, 2013

ख्यालों की स्याही जब होती है कभी कभी ...

ख्यालों की स्याही जब होती है कभी कभी ...
मेरे ज़हन की कलम में ...
फलक के कागज़ से रात पोंछकर ...
दिन के उजले अक्षर लिख सकता हूँ मैं ...

हवाओं की तितलियों के परों पे ..
मैं लिख सकता हूँ-
अपने मन के कई रंग ...

लिख सकता हूँ मैं ...
रात की थाली में चाँद को निवाला ..
अँधेरे को सुनहरा ,उजाले को काला ..
धूप के पाँव ,चांदनी के गाँव ..
आँगन में घुटनों के बल सरकती कोई छाँव ...

बादलों के पेड़ों से मैं बारिशें तोड़ लेता हूँ ..
रूह कहीं ,जिस्म कहीं बेख़ौफ़ छोड़ देता हूँ ..
उचकता हूँ तो फलक मेरी ऊँगली पे छू जाता है ..
मन निकल कर सय्यारों के साथ खेल के आता है ..(सय्यारा -planet )

वक्त की नदी में कहीं डूबकर ,कहीं दूर पार निकलता हूँ ..
मैं सातवें आसमान पे चढ़ता, वहाँ से कूदता , फिर संभलता हूँ ....

जाने ऐसा कितना कुछ है ,
जो मुमकिन हो जाता है ..बस यूं ही.. 
दिल को समझा लेने से .. 
कि करनी पड़ती नहीं परवाह मुझे 
कि मेरी सोच की ये पतंग 
कट कर गिरे तो गिरेगी कहाँ ..??
सच या झूठ किसकी गली में ....??

तभी मैं लिख देता हूँ तुमको भी अपना कहकर ....
हर नज़्म में अपनी ...
ख्यालों की स्याही होती है जब कभी कभी ...
मेरे ज़हन की कलम में ...
नहीं मैं सोचता कुछ भी ..
और वैसे भी सब कहते है --

"बात दिल की हो ,तो तरीके की परवाह नहीं की जाती |"

-अनजान पथिक 
(निखिल श्रीवास्तव )
=====================================

No comments:

Post a Comment