"कविता"
दिल के सियाह से तहखाने में,
वो अकेले ही उतर जाती है कभी कभी ....
जहाँ अमूमन जाना नहीं पसंद करता कोई ....॥
हर मासूम सी आरज़ू मेरी ,दौड़ कर चिपक जाती है उससे ....
कई कई बार वो बिन बोले ही समझ जाती है
कि कितनी ज़रूरत है मुझे उसकी .... .
और मुस्काते हुए उठा लेती है वो गोद में ,
मेरे हर नन्हे सी ख्वाहिश को ..
पुचकारते हुए ,दुलारते हुए ......
जैसे " खून के रिश्ते " से भी ज्यादा पवित्र कोई रिश्ता हो उससे ..
इसी तहखाने में एक ओर रहती है
कई शरारती बच्चियाँ - - "हसरतें" कहते हैं जिनको जानने वाले सभी ..
हर बार जब वो (कविता) आती है .. तो लाती है
उनके लिए कुछ न कुछ नया ज़रूर ....
जैसे दादी लाती थी मेरे लिए ..छुटपन में .....
छोटे बेसन के लड्डू ,इमली वाली गोली ....
छोटे बेसन के लड्डू ,इमली वाली गोली ....
कभी किसी अधजगे ख्वाब के पास घंटो बैठ कर
उसके माथे पे वो देती रहती है ठंडी थपकियाँ ...
तो कभी किसी याद के साथ निकल जाती है वो
खेलने बहुत दूर ,उसकी किसी सहेली की तरह ....
कई मजबूरियाँ भी है गुमसुम सी ..
उन बच्चियों की तरह जिनसे नहीं पूछता कभी कोई -
कि कैसा सोचती हैं वो ,
क्या चाहती है वो .....
सबसे ज्यादा सुकून उनको ही मिलता है उसके (कविता के )आने पर ..
क्योंकि उसके पल्लू में छिपकर हर बार वो कह देती है अपना सब कुछ .
जैसे सगी बेटियाँ हो उसकी .......
उसके आने की आहट से लेकर ,
जाने के एहसास तक .......
महकता रहता है , तहखाने का हर एक कोना
अपनेपन की इक अनजानी, सौंधी खुशबू से ...
और कितने भी दिन बीते चाहे ,उसे यहाँ पर आये हुए
उसे बखूबी रहता है याद ....
हर एक चीज़ ,
हर एक चप्पा ,
कि पिछली बार क्या ..,कहाँ ..,किस हाल में रख कर छोड़ गयी थी .....
इसलिए कितना भी ..कागज़ पे लिख लूं मैं उसको
बस यही हूँ कहता ...
"कविता " बस लफ़्ज़ों की कोई रस्म नहीं हैं ...
"कविता"- एक किरदार है खुद में बहुत मुकम्मल ....
"कविता" है एक आग कि जिसमें जलना जीवन ..
"कविता" है एक माँ ,है मुझ पर जिसका आँचल ...॥
अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )
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