Monday, July 2, 2012


इस चेहरे के पौधे को 
सींचते रहना  मुस्कानों के पानी से,..
बहारों के इंतज़ार में कहीं ये न हो ...
इसकी खुशबुएं सिमटी ही रह जायें 
......
क्योंकि बाकी बातें अपनी जगह है...
पर ये  पौधा जब खुल के, लहराकर
खुद की जिंदगी पर इतराता है न....
सच मानो ...
वक्त की ये धूप सजदे में झुक जाती है ..
जिंदादिली की हवाएं तड़प जाती है उसे छूकर गुजरने को 
गुमनामियों की बारिश जड़ों तक जाकर क़दमों पे सर रख देती है...
...
कभी मुस्करा के देखना .,सिर्फ अपने  लिए
बिना किसी शर्त ,बिना किसी वजह के ...
पता चल जायेगा ....
मैं क्यों हमेशा कहता था...
''मुस्कराते रहना''.....||
     -अनजान पथिक

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