जिंदगी का फैसला
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पहले छोड़ देता था
मैं ज़रा सी जगह
वक़्त के हर इक पन्ने पर .
अपनी सारी कोशिशें ,सारी आरजुएं
लिखने के बाद भी ..
क्योंकि जानता था ..
कुछ भी हो ,ज़िन्दगी लिख ही देगी ..
आखिर अपना फैसला ..
जो उसका मन हो ,जो उसको मंज़ूर हो
पर इस बार ..लिख दी हैं मैंने
हर एक लकीर पर अपनी जिदें ...
हर एक हाशियें पर रख दी है अधूरी हसरतें सारी ....
और लफ़्ज़ों के बीच की खाली सी जगह में
भर दिए हैं नन्हे मुरझाये ख्वाब ..
जो टूट गए थे ,
ज़हन की शाख से,
वक़्त की आँधियों के सिरफिरे से दौर में ॥
इस बार नहीं छोड़ी है मैंने कोई जगह ..
जहाँ लिख सके ज़िन्दगी फिर से अपना फैसला ....
शायद होने लगा हूँ मैं "बागी ".. ...
क्योंकि "बागियों" को ही नहीं जंचते हैं फैसले ज़िन्दगी के ॥
-अनजान पथिक
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