Wednesday, March 2, 2011

सैर सपाटा

       "सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ 
                                जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ ||"


तारीख -२९ दिसम्बर  २००८ |शाम पाँच बजे जैसे  ही उस पेपर खत्म होने वाले हूटर ने आवाज़ दी हम सब के दिलों की घंटियाँ बज उठी |कारण -हमारा खट्ठे -मीठे अनुभवों से भरा हुआ ,अनोखा ,इंजीनियरिंग का पहला सेमेस्टर खत्म होने का संकेत हो गया था और अब हम लोग चंडीगढ़  घूमने  जाने  वाले  थे  |तुरंत हम लोग कॉलेज की ओर भागे और हॉस्टल में घुसते ही अपना सामान उठाया जो कि दो दिन पहले से ही बांध  लिया गया था ,क्योंकि हमारी ट्रेन ७:३० बजे की कालका मेल थी |मेरे साथ मेरे दो दोस्त और थे -अभिषेक (कपाल ) और मोहित (गजनी )|भागते -भागते स्टेशन पहुँचे तो भारतीय रेलवे ने अपना रंग दिखाया और ट्रेन ४ घंटे देरी से आई |जनरल  डिब्बा काफी आगे था और हम लोगो के ये भ्रम था कि हम लोग इतने साहसी और नवयुवक तो है ही कि जनरल की भीडभाड  में आसानी से सफ़र कर लेंगे,परन्तु जब हाफतें-2  बमुश्किल चढ़ पाए और दिल्ली पहुँचने पर जगह दिखी तो सारा भ्रम एक पल में चकनाचूर हो गया
 |जगह मिलते ही उस पर ऐसे टूट पड़े जैसे अंग्रेज हमारे भारत पर टूटे थे |उसके बाद कब नींद आ गयी ये तो नहीं मालूम ,लेकिन जब आँख खुली तब हमारा गंतव्य -'चंडीगढ़' आ चुका था |इसी जगह को चुनने का कारण ये था कि यहाँ मोहित के मामाजी का घर था ,तो रहने की कोई दिक्कत नही थी,,और मोहित ने काफी कुछ बता रखा था कि अच्छी जगह है ,घूमने लायक है ,फलां -फलां ........|इसलिए प्रयोग करने के लिए यह अच्छा  विकल्प था |
                      ये पहली बार था जब मैं अपने मम्मी पापा के बिना इतनी दूर घूमने जा रहा था ,तो कौतूहल स्वाभाविक था ;साथ ही साथ थोड़ी सी स्वतंत्रता जो मिलने वाली थी घूमने में ,उसे सोच -२ कर ही मन गदगद हो उठता|चंडीगढ़ पहुँचते ही पंछियों के सुरमयी संगीत ने हमारा स्वागत किया ,और मन ही मन लगा कि हो ना हो ये यात्रा कुछ ख़ास ,कुछ अच्छी  जरूर होगी |सुबह के ठिठुरन भरे कोहरे में बस पकड़कर ,एक बार रास्ता भटककर हम लोग मोहित के मामाजी के घर पहुँचे |पहुँचते ही सबसे पहले नानी ने गले लगाकर हम तीनों का स्वागत किया |नानियों की यही बात शायद उन्हें 'माँ की माँ 'कहने पर  मजबूर करती है क्योंकि जो अपनापन ,वात्सल्य उनके प्यार में होता है ,वो अतुलनीय है |फिर थोडा आराम किया और शाम को "सतरा की  बाज़ार " घूमे |वहाँ  का रहन सहन साफ़ दर्शा रहा था कि क्यों चंडीगढ़ को लोग इतनी सम्मानित  निगाहों  से देखते है ,वैसे भी यह नगरी प्राचीनकाल से ही लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है|हम लोग खाली तीन दिन का समय लेकर चंडीगढ़ घूमने के उद्देश्य से आए थे लेकिन मामाजी के के प्रेमपूर्ण हठ के आगे हमें घुटने टेकने पड़े ,और पांच दिन रुकने की बात तय हो गयी |साथ ही नया साल शुरू होने वाला था इसलिए नानी ने अपनी भक्तिभावना के वशीभूत हो हम सबके सामने  मंदिर और देवी दर्शन करने का विचार रखा |उनकी बात कौन टालता ??अगले दिन हम लोगों की यात्रा ,और उसकी योजना दोनों ही कार्यरूप में रूपांतरित होने को तैयार थी |फिर क्या था ??बस यथासंभव अधिकतम कपडे शरीर पर लादे और निकल पड़े हम चारों (हमारे साथ मामाजी का बड़ा लड़का शोभित भी हो गया था )अपनी मंजिल की ओर  |साथ में दो कम्बल रखे थे क्योंकि हिमांचल जाना था और वैसे भी ठण्ड ज़ोरों की थी |
                                         सुबह ११:३०   बजे हम लोग घर से रवाना हुए और ४:३० बजे आनंदपुर साहिब गुरुद्वारा पहुँचे ,क्योंकि रास्ते में सबसे पहला प्रसिद्द पड़ाव यही था |वहाँ  दर्शन करके ,लंगर खाया और इसी के साथ एक और दिली तमन्ना पूरी हो गई,(गुरुद्वारा देखने की)|वहाँ से निकलते ही  अगला पड़ाव था -नैना देवी मंदिर ,जिसके लिए हम लोग बस स्टैंड पर बस ढूँढने लगे ,तभी सामने एक बस दिखी जिसपर लोग दरवाजे ,खिड़की ,छत हर जगह से चढ़ने की कोशिश कर रहे थे |पहले पहल तो वो दृश्य देखकर सबको बहुत मौज आई ,उसमें  अपने भारतीयपन की साक्षात् झलक जो मिल रही थी ,पर जैसे ही पता चला कि यही नैना देवी को जाने वाली आखिरी बस थी सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी |"बस थी" इसलिए कहा क्योंकि तब तक वो बस भी चल चुकी थी और अब उसे पकड़ने का कोई रास्ता नहीं बचा था |फिर बहुत सोच विचार कर एक "कैब "बुक करायी,क्योंकि वही आखिरी विकल्प बचा था ,और थोड़ी देर बाद ही लगने लगा कि हमारा ये निर्णय काफी सूझ बूझ भरा था  क्योंकि अब हम पहाड़ी रास्ते पर  चल रहे थे |वो बस हमारे थोडा आगे ही चल रही थी और उसे देख कर  लग रहा था कि उसमे  सवार होने के लिए कितना साहस  चाहिए |अँधेरा बहुत था तो कुछ ज्यादा स्पष्ट नहीं दिख रहा था ,परन्तु बाद में पता चला कि गाडी की  एक ओर जो दिख रहा है वो पहाड़ है ,और दूसरी ओर जो नहीं दिख रहा वो खाई.तो एहसास हुआ कि कभी कभी अँधेरा जिंदगी में कितनी अहम् भूमिका निभाता है |
                         फिर रात में लगभग ९:३० बजे हम लोग नैना देवी पहुँचे |सब लोग अपने अनुसार अधिकतम कपडे पहने थे लेकिन फिर भी ठण्ड अपनी शक्ति  का अनुभव कराने में समर्थ थी|हम लोग इतनी अधिक ठण्ड के लिए मानसिक रूप से तो तैयार   थे पर शायद शारीरिक रूप से इतने सबल नहीं कि उसको  झेल सकते |जैसे तैसे ठिठुरते -२ दर्शन किये और घर वालों को जल्दी जल्दी नये  साल की बधाइयाँ दी(क्योंकि फ़ोन में बैलेंस और बैटरी  दोनों ही कम थी )|अंततोगत्वा एक दूसरे से चिपक -चिपक के सो गए क्योंकि ये ज्यादा बेहतर विकल्प था बनिस्बत ठण्ड से ठिठुरकर मरने के |फिर डेढ़ घंटे की नींद के बाद १ जनवरी २००९ ,सुबह ४:१५ बजे हम सब दूसरे मंदिर -छिन्नमस्तिका देवी के लिए रवाना हुए |रास्ते में  भाखड़ा नंगल बाँध पड़ेगा ये जानकर मन तो हर्षित हुआ पर शरीर अभी भी थकावट से भरा था |बस में खड़े होते समय आँखें पूरी तरह से खुल भी नहीं पा रही थी |  तभी अचानक थोड़ी खलबली हुई और हम सबकी नज़रें बस के बाहर के दृश्य पर पड़ी और तब जो आँखों ने देखा उसकी कल्पना भी असंभव है |सतलुज नदी के नीले पानी की घाटी से रक्तवर्णित सूरज पहाड़ों के पीछे से निकल रहा था|पानी में कुछ देर के लिए लालिमा छा गयी और फिर सब कुछ दिव्य|तब एहसास हुआ कि मानव चाहे कितनी भी प्रगति क्यों ना कर लें इस अद्वितीय,अनुपम नैसर्गिक छटा को नहीं बना सकता |फिर आया- भाखड़ा बाँध जिसे देखने के लिए हम सब बेताब थे |किताबों में जैसा पढ़ा था और उसकी जैसी छवि मन में थी वो उससे कुछ ज्यादा ही ऊँचा,अच्छा और दर्शनीय लगा |ऊर्जा का इतना सुदर्शन स्रोत देखकर मन आनंदित हो उठा |मन ही मन विश्वास होने लगा था कि नये साल की इससे अधिक सुन्दर शुरुआत हो ही नहीं सकती |फिर हम लोग छिन्नमस्तिका मंदिर पहुँचे |पहली तारीख थी ,तो कतार के  आकार में कोई कोताही नहीं दिख रही थी  ,परन्तु जैसे-तैसे ४ घंटे बाद हमारी बारी आ ही गयी |
                    वहाँ से हम लोग रवाना हुए ज्वाला देवी मंदिर की ओर |एक बात और, हम लोग कोई तीर्थ यात्रा पर नहीं निकले थे ,ये सब तो बुजुर्गों का काम कहा जाता है ,लेकिन सेमेस्टर खत्म हुआ था ,और परिणाम अच्छा हो इसके लिए भगवान् का आशीर्वाद कितना जरुरी है ये हम बच्चों से बेहतर और कौन जान सकता है !!!!!इसलिए प्रकृति दर्शन के साथ -साथ दुआ मांगने निकले थे ,साथ साथ घूमने का उद्देश्य पूरा हो ही रहा था |बस में बैठे -२ थोड़ी देर तक तो प्राकृतिक सुन्दरता मन को हर्षाती रही ,परन्तु उसके बाद शारीरिक थकावट के आगे उसने घुटने टेक दिए और हम सब सो गए |आँख सीधे ज्वाला जी पहुँचकर खुली |वहाँ दर्शन किये और पूरी यात्रा में पहली बार रूपये देकर खाना खाया ,वरना दो दिनों से काम लंगर पर ही चल रहा था (अब जब लंगर में ही लोग हलवा,छोले , पूड़ी  खिलाने लगे तो बाकी चीज़ें खाने के लिए जगह ही कहाँ बचती है  )|फिर एक कमरा लेकर आराम किया क्योंकि कोहरा अधिक था और संकट को भाँपते हुए मामाजी ने रात में सफ़र ना करने की सख्त हिदायत दी थी |फिर मखमली गद्दे पर आराम से थकावट दूर की|सुबह १२ बजे आँख खुली और तब तक वक़्त हो चुका था वापस लौटने का |सामने ही ज्वाला जी की पहाड़ियों को एक बार फिर प्रणाम किया , अच्छे  रिजल्ट  और सुरक्षित यात्रा के लिए दुआ माँगी,सामन लादा और चल पड़े |
                       रात भर सो चुके थे तो अन्दर अनंत ऊर्जा हिलोरें ले रही थी |मन में जो इच्छा दबी रह गई थी ,खाइयों और पहाड़ों का लुत्फ़  उठाने  की  उसे पूरा करने का वक़्त आ गया था |एक ओर ऊँचाई और दूसरी ओर गहराई का यह  विरोधाभास रोंगटे खड़े कर देने वाला था |मैं रास्ते भर जागा ये सोचकर कि पता नहीं कब अब दोबारा मौका मिलेगा ,वापस ऐसी जगह घूमने का |मन में उत्साह भी था ये सोचकर कि अगर सुरक्षित घर वापस पहुँच गए तो बहुत कुछ दिलचस्प होगा बताने को ,सब लोग बड़ी जिज्ञासा से सुनेंगे मुझे .....|बस रह-रह कर पूरे सफ़र में एक ही चीज़ खल रही थी -एक ठीक ठाक से कैमरे की कमी ,क्योंकि जो पहाड़ियाँ,जो सूर्योदय,जो घाटी,जो दृश्य हमने देखे थे उन्हें हम चाहे जितना प्रयास कर लें अपनी स्मृति में यथावत नहीं संजो सकते |वो  वक़्त के साथ धुंधले होते ही चले जाएँगे|तब ना ही हमारे पास वो क्षमता होगी जो उस दृश्य को बयान कर पाए और ना ही स्मृति जो उसे महसूस कर पाए |इन सब मजबूरियों के बावजूद दावे के साथ कह सकता हूँ कि सचमुच ये सफ़र जीवन पर्यन्त याद रहेगा |कभी हँसायेगा,कभी बीतें अतीत में ले जायेगा जहाँ हम सब जोशपूर्ण तरुण हैं और कभी अपने सौंदर्य से तरसाएगा........
                          तो बताइए अगली बार आप भी घूमने चलेंगे ...........................??????????????????        



                                  
                           


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