Thursday, March 3, 2011

कीमत

सात साल हो गए इस बात को लगभग |मैं अपने  पापा के साथ कानपुर से लखनऊ जाने के लिए स्टेशन पर खड़ा ट्रेन का इन्तजार कर रहा था |परम्परानुसार ट्रेन देर से आई और फिर लोकल ट्रेन की खूबी तो सब जानते ही हैं |भयानक धक्का मुक्की ,जोर जबरदस्ती के बाद डिब्बे में घुसने को मिल ही गया |हम लोगों के लिए भले ही ये संघर्ष रहा हो पर कई लोगों के लिए ये उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा है |लोकल ट्रेन के डिब्बे में सफ़र करिए तो दुनिया भर के अनुभव आपको अपने इर्द गिर्द नाचते मिलेंगे |कोई बूढ़े बाबा अपने किस्से बाँटते हुए ,तो कुछ आंटियाँ  अपनी स्त्री -सुलभ पंचायत में व्यस्त ,कुछ मनचले लड़के अपनी शरारती खुसुर फुसुर में मगन और कुछ पिताजी की उम्र के लोग अपने स्वभाव की कृत्रिम गंभीरता छलकाते हुए|सबका अपना अलग ही अंदाज़ होता है |भीड़ में परेशान,उमस और घुटन से भरे हुए मनों में बस असंतुष्टि का एक तड़का ही लड़ाई की प्रखर ज्वाला का काम कर देता है |
                                       मैं पापा के साथ खड़ा ये सब देख रहा था क्योंकि बाकी लोगों की ओर नज़र दौडाने का काम वही लोग करते है जो खुद सीट नहीं पाते ,जो पा जाते हैं उन्हें नींद के अलावा और कुछ नहीं सूझता | अगर जागते भी है तो आँखों में ये स्वाभिमान लिए कि उनको जगह मिल गयी और जो खड़ा है वो उनके सामने दया का पात्र है|गाडी धीरे -२ खिसक रही थी और जब तक लय पकडती तब तक दूसरा स्टेशन आ जाता |वक़्त इसी गति- परिवर्तन के आनंद को महसूस करते हुए कट रहा था |
                    थोड़ी देर बाद एक ७-८ साल का लड़का वहाँ आया |शरीर पर एक फटी सी गन्दी कमीज ,हॉफ मटमैली पैंट ,पैर नंगे ,चेहरे पर धूल की परतें जमा ,हाथ में झाड़ू |उसने किसी  से कुछ ना कहा और फर्श पर झाड़ू लगाना शुरू कर दिया |ना जाने उस दिन भीड़ कम थी ,या वो ज्यादा अभ्यस्त था पर धीरे-धीरे उसने उस माहौल में भी फर्श को चमका दिया |फिर एक ईमानदार श्रमिक की भाँति उसने अपनी हथेली आगे की|लोगों से तरस माँगने के लिए नहीं  ,बल्कि अपने काम की कीमत माँगने के लिए , पर देखकर आश्चर्य  हुआ कि उसको देने के लिए बहुत कम ही लोगों की जेबों से एक सिक्का निकला |बमुश्किल ४-५ रुपये ही मिले होंगे ;पर वो कुछ नहीं बोला ,मन में संतोष और चेहरे  पर मुस्कान लिए वो दूसरे डिब्बे में चला गया ,बिना कोई याचनापूर्ण बात किये |
                लगभग १५ मिनट ही बीते थे कि एक भिखारी उस डिब्बे में आया |कर्कश सी आवाज़ में चिल्लाता हुआ जिसे वो गीत की संज्ञा दे रहा था|बस एक बार वो डिब्बे के एक कोने से दूसरे कोने तक अपना वही दुखभरा राग गाता हुए निकला  और हर सीट के आगे अपना सिक्कों वाला कटोरा छनकाया|सबने तो नहीं पर २४-२५ लोगों ने उसके कटोरे में अपनी मेहनत का एक अंश टपका दिया |मै ये देखकर हैरान था ,क्योंकि थोड़ी देर पहले उस छोटे लड़के  ने काम के बदले पैसे माँगे थे तो किसी के हाथ नही खुल रहे थे और इस भिखारी के करुणापूर्ण ,भिक्षा के स्वर ने लोगों से ज्यादा पैसा जीत लिया था |ये बात मेरे समझ में नहीं आई कि काम के बदले माँगने वाले के प्रति ऐसा रुक्ष व्यवहार और जिसने अपने हाथ याचना के स्वर में फैला दिए उसपर इतनी कृपा ????लोगों की संवेदना दिशा भटक गई थी या मेरी चेतना कुछ अधिक ही मासूम हो गयी थी , ये समझ में नहीं आया पर जो भी हुआ वो मेरे अनुसार अन्याय था ,उस नन्हे बालक की कर्मठता के साथ |खैर उस वक़्त मैं शायद इतना बड़ा नहीं था इन बातों को सोचने के लिए  या फिर यों कहूँ कि इतना समर्थ नहीं था कि बात की गंभीरता और मूलभूत वास्तविकता को समझ सकता |
                   दो साल बाद एक बार फिर मैं लोकल से सफ़र कर रहा था |एकदम से फिर से वही भिखारी अपने पुराने अंदाज़ में भीख माँगता हुआ डिब्बे में घुसा |वक़्त के साथ उसकी राग तो नहीं बदली थी लेकिन आवाज़ की कर्कशता को पंख लग गए थे |उसकी क्रिया और जनता की प्रतिक्रिया भी वक़्त के साथ बदली नहीं |इस बार मैं बैठा था तो थोडा अधिक आनंद उठा सकता था उस कडवाहट का |तभी एक आवाज़ ने धीरे से कहा-"भैया, पैर खिसका लो थोडा ...साफ़ करना है "|मैं एकदम से हडबडाया , फिर आवाज़ की ओर देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ |ये आवाज़ उसी लड़के की थी,जिसे दो साल पहले मैंने इसी तरह किसी डिब्बे में यही काम करते देखा था|लड़का भी थोडा बड़ा हो गया था लेकिन चेहरे से अब  भी वही खुद्दारी झलक रही थी |अतीत खुद को दोहराता है ये तो मालूम था पर इतनी जल्दी, ये नहीं सोचा था |सफाई करने के बाद उसने फिर से हथेली उसी ईमानदारी से आगे बढाई| इस बार मेरे पास पैसे थे तो देना मेरा फर्ज था |मै जेब से पैसे निकाल ही रहा था कि तभी वहाँ   खड़े किसी व्यक्ति ने मजाक में कह दिया ,कि "अरे झाड़ू मारने से कुछ नहीं होता ,गाना सीख ले छोटू| वो देख बाबा को ,एक गाना सुनाया और कट लिया पैसा उड़ा के .................."उसकी  इस बात पर  सब लोग हँसने लगे |समझ में नहीं आया कि इस बात में व्यंग्य ज्यादा था  या मूर्खता ,लोग सहमती में हँस रहे थे या  बात की इज्जत रखने के लिए  पर उसके बाद जो उस लड़के ने बोला वो सबको चुप कर गया |
                        एक मंद सी मुस्कान चेहरे पर लिए ,उस लड़के ने आत्मसम्मान से सिर उठाया और बोला -"साहब ,केवल पैसा कमाना हो तो , मैं भी इस देश के हर गली में भीख माँगते  लड़के की तरह अपने फटे हाल की गाथा सुनाता फिरूँ ,लोगों से याचना  करूँ और भरोसा दिलाता हूँ कि  बड़े आराम से जिंदगी काट लूँगा |इस देश में ये कोई बड़ी बात नहीं |पर छोटे में सुबह जब मै घर से निकलता , तो बीमार  माँ बस  यही बोलती कि  बेटा आज शाम को जो रोटी  लाना वो मेहनत के पैसे की लाना |मेरी माँ की तबियत खराब  रहती और मै खुद जानता  था  कि  वो ज्यादा दिन नहीं बच पाती ,पर फिर भी अपनी भूख मिटाने से पहले उसे मेरी  जिंदगी सँवारने की फ़िक्र थी |जब माँ बीमार थी  तब मेरा बाप कहीं भीख के पैसों से खरीदी शराब में ही धुत पड़ा रहता था |उसकी इसी हालत के कारण  शायद माँ ने  मुझे ये सिखाया था |कुछ दिन बाद माँ चल बसी लेकिन इस भरोसे के साथ कि उसका बेटा उसका कफ़न अपने मेहनत के पैसों से ही लायेगा |मै उस माँ का भरोसा कैसे तोड़ता ??दो दिन बाद  माँ के शरीर को मैंने आग दी और तबसे उसकी चिता की हर चिंगारी मुझसे  ये कहती है कि मै उससे किया हुआ वो वादा हमेशा निभाऊँ |मैं चाहूँ तो कैसे भी पैसे  कमा सकता हूँ ,लेकिन वो कैसे कमाए गए हैं इसका हिसाब किसी ना किसी को तो देना ही पड़ेगा..........."|

                                    इतना कहकर वो लड़का चला गया |सबके अन्दर सुन्सुनी सी छा गयी,कोई भी ५ मिनट तक कुछ भी नहीं बोल पाया |शायद वो लड़का जो बात सिखा गया था वो सीखने और समझने में हम पढ़े लिखे लोगों को सालों लग जाते हैं |....अब जब भी कभी किसी चीज़ को अनायास ही पा जाता हूँ,या बेईमानी से पैसा कमाने का ख्याल मन में आता है  तो उस लड़के की बातें मस्तिष्क पटल से गुज़र जाती है और मैं भी यही सोचकर रुक जाता हूँ कि इन सबका हिसाब कही ना कही तो किसी को देना ही पड़ेगा  ..............                                 

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