Friday, March 4, 2011

बचपन की मजबूरी

                  बचपन -मस्ती का एक ऐसा पर्याय जिसमें कल्पनाओं को हम सीमा की रेखाओं में नहीं बाँध सकते ;जिसमें मन की सारी प्रवृत्तियाँ ,सारी इच्छाएँ अपने भोलेपन से रह -रह कर हर एक भावपूर्ण ह्रदय को आनंदित करती रहती हैं ;जिसमें ख़ुशी के लिए किसी बड़े आकर्षण की अपरिहार्यता नहीं रहती ,ह्रदय कागज़ के बने हवाई जहाजों को उड़ते और कागज़ की नावों को पानी में बहता देखकर ही झूम उठता है |पर क्या होगा यदि ये बचपन अपनी मस्ती,अपनी स्वभावगत स्वछंदता ,अपना भोलापन ही खो दे ??प्रश्न गंभीर है और आधुनिक सुधियों के लिए चिंतन का विषय भी |
                  बड़े बुजुर्गों को अक्सर ये कहते सुना होगा -" अब वो बात नहीं रही ,हमारा वक़्त कुछ और था..... |"ये बात निस्संदेह वो अपने समय के पिछड़ेपन की शिकायत करने के  लिए नहीं कहते अपितु उन्हें शिकायत होती है उस कृत्रिम बोझिलता से जिसे हमने आधुनिकता का बहाना देकर ढो रखा है|जिस मासूमियत को उन्होंने जिया वो कहीं खो ना जाये -इस बात का डर है उन्हें |जब कॉलेज से पहली बार घर लौटा ,तो वापस वो गलियाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई जिनमें हम सब अपने में ही मग्न खेलते-कूदते रहते थे |ना उम्र का कोई बंधन था ,ना ही औपचारिकता की कोई जरुरत |कोई हमें आवारा कहता,कोई हमारा लड़कपन देखकर झूम उठता ,तो कोई हमारी मस्ती देख मन ही मन अपने बचपन में कहीं खो जाता |कोई ये सोचकर मुस्कुराता कि हमें भी ये वक़्त बार -बार नहीं मिलना |
                   कितना मजा आता था ,उन दिनों, जब सडको को मैदान मानकर उनमें ईंटों से बना स्टंप लगाकर खेला,जिसमें एक छोटी सी क्रिकेट की गेंद को फुटबॉल मानकर २२ -२४ लोग उसके पीछे भागते रहते ,जहाँ एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक एक दूसरे से छिपने छिपाने का स्वांग रचते रहते |जहाँ एक कटी पतंग को पकड़ने(लूटने ) पूरा कारवां निकल पड़ता था |शाम होते ही नज़रें जब घडी की सुइयों पर ही टिक जाती कि कब कोई खेलने की आवाज़ देना वाला मसीहा बुलाने आ जाए |अपनी आप से पहल करने में अपने ही घरवाले विरोध कर देते थे इसलिए दूसरे का सहारा लेना जरूरी था |एक छोटी सी गली में ही ना जाने क्या क्या खेल लिया जाता था |पर अब जब वो गलियाँ देखता हूँ ,तो कुछ सूना सा लगता है |वो खाली पड़ी सडकें अब दिन भर इन्तजार  में ही वक़्त काट देती हैं -कि कब कोई चहकती आवाज़ आये और अपने चंचल क़दमों से उसकी शांति को भंग कर दे | 
                         शाम अब भी उतनी ही सुनहरी होती है ,पर वो मौज अब नहीं दिखती |छोटे बच्चे कभी -कभार दिखते हैं ,लेकिन हाथ में गेंद या बल्ला लिए नहीं ,बल्कि कन्धों पर  बस्ता टाँगे हुए ,क्योंकि अब वो समय उनके ट्यूशन या कोचिंग  के लिए निर्धारित कर दिया गया है |बेचारे थक हार के आते है ,तो मूड सही करने के लिए घर में विडियो गेम और टी.वी. की व्यवस्था कर दी जाती है |हाँ मैं मानता हूँ की ऐसा हर जगह नहीं होता ,पर जहाँ होता है वहाँ इस बात को गंभीरता से लिया ही नहीं जाता ,समस्या ये है.....|बच्चा नर्सरी में जाता है और उसको बहला फुसला कर किसी जान पहचान के भैया,दीदी,बुआ किसी भी नाम के व्यक्ति के घर भेज दिया जाता है ताकि वो पढना सीख सके ,टिक कर एक जगह रहना सीख सके और फिर  ये परंपरा सी बन जाती है | भोला मन कभी विरोध नहीं करता इसलिए धोखा खाता ही है|लोगों का मत भी सुनिए तो अजीब लगता है जब वो ये कहते हैं कि इससे होता ही क्या है ...?बच्चा ट्यूशन  जाएगा तो कम से कम पढ़ेगा ,लिखेगा ,अच्छा  बनेगा |ऐसे गलियों में खेलकर क्या मिलेगा, आवारा ही तो बनेगा |अपनी इस नासमझी भरी  जिद में हम शायद कई जीवनों से उनका बचपन छीन लेते हैं|जब तक समझ आती है ,तब तक देर  हो चुकी होती है|
                       पढाई लिखाई,सब अपनी जगह महत्वपूर्ण है ,लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है ये जानना  कि इन्हें जीवन की कीमत अदा करके सीखा नहीं  जाता |एक बार वक़्त चला गया तो फिर वापस नहीं आयेगा ,इसलिए माना कि आधुनिक दौर में पढाई का बहुत बोझ है ,बच्चो के ऊपर,और उससे ज्यादा सम्मान बचाने का माता-पिता के ऊपर पर फिर भी बच्चों को बचपन जीने का कुछ वक़्त तो हम दे ही सकते है |बेहतर होगा कि उन्हें उसी मासूमियत के साथ पनपने दे ,जिसके लिए वो जानें जाते है और जिसकी वजह से बचपन ,जीवन का  सर्वाधिक यादगार समय  माना जाता है |उनपर बोझ ना डाले .....अभी तो खेलने -कूदने की उम्र है उनकी.....    
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