वक़्त के बागों में फिर से
कुछ नए फूल खिले हैं,
कुछ महके लम्हों की अधखिली कलियाँ हैं .|
कुछ नटखट शरारती यादों की बौरें हैं |
कुछ तुम्हारी जुल्फों जैसी घुंघराली बेलें है,..
सीधे ज़हन में उतरती हैं |
कुछ टूटे पत्ते हैं...
बिखरे बिखरे से
कई के तो अब रंग भी उड़ गए हैं
कई के चेहरों पे आँधियों की खरोंचें है ..|
मुझे याद है इसी भीड़ में कहीं
एक गुमसुम दिल का पेड़ हुआ करता था
मासूम ,सच्चा ,सीधा ....
अक्सर लोग पत्थर भी मारते .
तो मीठे फल लुटा दिया करता था |
परिंदे भी आते थे उसपर ,
घोंसले बनाने ,|
कुछ दिन रहते ,फिर उड़ जाते
उनके घरों को अपनी शाखों की बाहों
में महफूज़ कर लेता था वो..
पर ,वो परिंदे
फिर लौट कर नहीं आये आज तक
लोग कहते है
कि उड़ते परिंदों की तो ये ही फितरत होती है..
उन्हें आशियाँ से ज्यादा जिंदगी की जरुरत होती है...
लेकिन मैं नहीं मानता ...
मुझे बस याद है वो पल..
जब सर्दी की रात में ठिठुरते
तुम्हारे किसी एहसास को
उन्ही घोसलों में
पत्तो के बीच दबाकर कहीं
एक सुकून मिला था मुझे ... ...
रूह को एक गर्म आगोश सा मिला था.....
बस उसी एक पल पर यकीन करके कहता हूँ ..
तुम वो डाली डाली फिरने वाले परिंदे नहीं हो....
तुमसे, कुछ तो रिश्ता है..
तुमसे, कुछ तो रिश्ता है.....
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