जलते दीपक सा लगता हूँ ..
जीता हूँ जब खुद को खोकर..
जब जब लगता संभला हूँ मै
तब तब खा जाता हूँ ठोकर
पर हर पल दो पल की ठोकर,बस ये ही बात बताती है..
बिन अँधेरे की रातों के ,कोई सुबह कहाँ फिर आती है...||
जब जब लगता मैं बरसा हूँ
दूजों की प्यास बुझाने को,
हर बूँद सिहर उठती है तब
मेरी प्यास मुझे समझाने को...
पर उस प्यासे से सावन ने ,बस ये ही बात सिखाई है..
जितना भी जलन हो सूरज को,एक आह मगर नही आयी है ...
जब जब लगता मजबूत हूँ मैं
टूटा हूँ टुकडो से बदतर..
जब जब लगता मैं जीता हूँ
हारा हूँ तब खुद से अक्सर
पर हर उन मिलती हारों ने ,जीने का ढंग सिखाया है..
हैं रंग उतारे जब सबके ,तब रंग मेरा ये आया है..||
जब जब लहरों सा उठा हूँ मैं
साहिल ने मौज उड़ाई है ..
जब साथ कभी पाना चाहा
तब दूर हुई परछाई है ...
पर हर एक उस परछाई ने ,बस ये ही बात सिखाई है...
तुम खुद में ही पूरे से हो,किस बात की फिर तन्हाई है...||
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