पतंग की तरह आसमाँ में दिन भर उड़ता रहा इक सूरज
किस छत से ,,किस डोर से,,किस छोर से...
ये मालूम नहीं...
मांझा खीच, कभी फलक पे ऊपर तान देता कोई
तो कभी ढील देकर नीचे कर देता था कोई ...
मज़े मज़े में...||
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पर अब तो शाम भी चढ़ आयी है छत पर ..
हाथ में चाँद की पतंग लिये ...
लगता है फिर पेंच लड़ेंगे...!!!!
सुना हैं ..बड़ा तेज़ है .मांझा- चाँद का....
रोज़ पतंग कट जाती है सूरज वाली ...
और कुछ आवारा से ..क्षितिज
और कुछ आवारा से ..क्षितिज
नंगे पाँव ही दौड़ जाते हैं लूटने.उसको ..
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आज ज़रा काम है कम .....
आज ज़रा काम है कम .....
तो मैं भी फुरसत में खड़ा हूँ छत पर,
बस इस इंतज़ार में ..
कि..शायद जो पेंच लड़े गर आज ....
और कटे जो सूरज फिर से ...
गुज़रे मेरी गली या छत के ऊपर से ..
गुज़रे मेरी गली या छत के ऊपर से ..
तो ..लंगड़ डाल के..,उछल -उचक के.. ..
कैसे भी ...मैं लूट लूँ शायद...
बहुत ज़माना बीता मुझको भी अब तो पतंग उडाये.....
"बड़े शहर में वैसे वरना कहाँ पतंगें उड़ती ही हैं..???."
-अनजान पथिक..
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ReplyDeletebahut sunder
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