वो अक्सर कुछ लिखती रहती है ,
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अँधेरे में जब भी निकलती हूँ घर से ...,
तुमसे फोन पे बात करने ...,
इक "रात" यूं ही दिख जाती है रोज , जागती हुई ...
ज़मीन के "पैरेलल"..,
क्षितिज के दोनों सिरों को मिलाता हुआ ..
जो इक फलक का कागज़ है..
उसपर लिखती रखती है वो कुछ मखमली,
रेशम से नाज़ुक ख़याल ..
चाँद के "टेबल लैम्प" की दूधिया सी रोशनी में ..
नन्हे तारों को हर्फ़ बनाकर ..
आहटों की कोहनियों पर,...
अपने अंधेरों के गाल टिकाये ...
वो रोक लेती है वक्त की घडी से गिरते ....
लम्हों की रेत के बारीक से बारीक दाने को ......
और उकेरती रहती है उस पर ...
अपनी उँगलियों से ..
सुलगती साँसों में पिघली हुई ,..
सुबह के इंतज़ार की ...कई मासूम सी कहानियाँ ..
सन्नाटे की मेहँदी से रंगी उसकी हथेलियाँ ...,
दिखा कर भी छिपा ले जाती हैं ,
अपने महबूब का नाम ..,बड़ी सफाई से ....||
पर सहर की छलकती आँखों से गिरते ..,(सहर =सुबह )..
धूप के मीठे आंसुओं से .. ,
जब भीगता है फलक का कागज़...,रेशा रेशा ...
उठने लगती है उससे
उसी मेहँदी में छिपे उस "इक नाम" की खुशबू ..||
एक कागज़ ऐसे ही भीगा था मुझसे भी कल रात शायद ...,
और उठ रही थी उससे भी तुम्हारे नाम की खुशबू ......
एक बात बताओ .....
" लव लेटर्स सारे ऐसे ही होते है .. क्या ... ?? "
- अनजान पथिक
(निखिल श्रीवास्तव )
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