"अँधेरा बुरा होता है ..."कई के मुंह से सुना है .. ...पर मन नहीं मानता ...उन्होंने देखी है शायद सिर्फ वो सख्तमिजाज़ी.......कि जब कोई दिन हँसता खेलता घूमता है ज़मीन पर यहाँ वहाँ बेख़ौफ़ ....तब अँधेरा दिखा के आँखें ,तान के भौंहे कहता है उससे"सीधे जाओ क्षितिज के घर के अंदर ...."उन्होंने देखा है सिर्फ उसका वो पहलू..जिसमें वो अकेला बैठना चाहता है....खुद के साथ ....दुनिया से बहुत दूर .. जो मजबूरी भी हो ,तो भी जिसे कहते है सब - उसका गुरूर ....||पर सिर्फ देखी सुनी सारी बातें सच कहाँ होती है ....??मैंने देखा है ...-कैसे कोई अकेला होता है जब ,तब होता है वो उसके पास....... उसके दिल में जहाँ सबकी लाडली रौशनी जाने से कतराती है ....वहां जाकर पूँछता है ,वो सारा हाल हर सहमी हुई ख़ामोशी का ..हर चोटिल आरज़ू का ...महसूस किया है मैंने - कैसे हर एक छोटे से चिराग का दिल रखने के लिए ..वो मिटा लेता है खुद को .. अपने वजूद के एक एक कतरे को खुद खिलौना बनाकर वो सौंप के आता है , उस लौ जैसी बच्ची के नन्हे नन्हे हाथों में .....रात कोई टहलती है जब तनहा सड़कों पर ..शहरों से गुज़रती है ..गाड़ियों से टकराती है ,सोये हुए इंसानों की खिड़कियों पे दस्तक देती हुई इस उम्मीद में ताकती है कि कोई तो थाम ले उसकी कलाई ...कह दे कि यही थम जाओ ..आज अपने सारे दर्द बाँट लो...तब भी वो अँधेरा ही है ,जो अपनी प्यारभरी बाहों में भर के अपनापन ..पनाह देता है उसे....,माथे पर चूमता है उसे ...दिन भर जिंदगी जैसे महंगे खिलौनों से खेलने वाले शौक़ीन बच्चे जो सोते हैं ..-फुटपाथों को तकिया,,, सड़क को घर ...मान कर ....ये अँधेरा रोज किसी परी की तरह जाता है .. ठंडी थपकियाँ देकर उन्हें सुलाने .. उन्ही के पास बैठकर ..और सबसे बड़ी बात बोलूँ ...हर बार दिन भर ..जब दुनिया के मायूसी और थकान भरे रंगों में..डूब कर आता हूँ मैं वापस .... मानने लगता हूँ किसी कमरे जैसी जगह को अपना घर ..अपना आशियाँ .तो वो सारे रंग उतार कर किसी बोझ की तरह .....वो बुला लेता है मुझे अपने पास ..और घंटों करता है मुझसे बातें ....मेरी भी..... तुम्हारी भी .....शायद एक वही है ,जिससे कह पाता हूँ मैं खुद को इतना ... इसलिए कई के मुंह से सुना है ...."अँधेरा बुरा होता है ..."पर सच बोलूँ तो मन नहीं मानता ...|| निखिल श्रीवास्तव (अनजान पथिक )
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