Tuesday, November 29, 2011



जी तो करता है कभी
शीशे से पत्थर तोड़ दूँ...
एक फूँक से सूरज बुझा
दिन -रात को भी जोड़ दूँ ...
 सब दीवारें सब मीयादें
चूर चूर एक पल में हो..
एक प्यार का रेशम बना
सबको सभी से जोड़ दूँ...

क्या है खुदा के दिल में

परवाह किसको क्या पता
सबकी अलग माँगे यहाँ
सबकी अलग अपनी रज़ा...
सोचे ना कुछ समझे ना कुछ
कब तक चले ये सिलसिला..
सब हो गये तन्हा तो फिर
कैसे चलेगा काफिला....

आओ मिले अब साथ देखे क्या जरुरत ,क्या गलत...

सूरज की ठंडी धूप छाने ,फैलाये फिर सीमा तलक...
उन सरहदों के पार भी आँखों में एक सपना ही  है...
वो गैर सा दिखता हुआ चेहरा भी तो अपना ही है........


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