हम सब के लिए वो स्कूल का पहला दिन था |नया दिन ,नई जगह -तो सबके मन में उथल -पुथल स्वाभाविक थी |कोई गुमसुम सा एकदम शांत ,तो कोई नये माहौल में खुद को ढालने की कोशिश करता हुआ |हम सब प्रार्थना कक्षा में बैठे ,एक दूसरे से बातें करे जा रहे थे |हर बच्चा बहुत धीरे ही बोल रहा था लेकिन वो छोटी -छोटी खुसफुसाहट मिलकर एक चुभन भरा शोर लगने लगी थी|
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ना जाने एकाएक क्या हुआ ?पर सब कुछ एकदम शांत ,जो पुराने थे वो अपने आप चुप हो गए और हम नये लोगो को भी देखा-देखी साँप सूंघ गया |मैं कुछ समझ पाता इससे पहले ही सामने खड़े एक व्यक्तित्व पर नज़र पड़ी |सबल और गठीला शरीर ,सफ़ेद धोती कुरता ,कलाई में सोने की घडी जो लगता जैसे उसी कलाई के लिए ही बनी थी,आँखों पर चश्मा और हाथ में चाभियों का एक गुच्छा|
यही वो पहली मुलाकात थी ,मेरी उस व्यक्ति से जिनका आज मैं सबसे बड़ा मुरीद हूँ |जिन्होंने मेरे जीवन ,जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण और मुझको एक नया आयाम दिया |नाम -श्री ओमशंकर त्रिपाठी (तत्कालीन प्रधानाचार्य )|पहली बार देखा तो लगा की स्वभाव गंभीर ,डांट -डपटने वाले एक सख्तमिजाज़ हेडमास्टर की तरह होगा ,लेकिन धीरे-2 जैसे -2 उनको जाना तो महाकवि तुलसीदास का एक दोहा मस्तिष्क पटल से गुज़र गया -
"कुलिसहूँ चाही कठोर ,अति कोमल कुसुमहु चाही
चित्त खगेस राम करी ,समुझी परई कहू काही || "
हो सकता है किसी को ये लगे की इस दुनिया में इस तरह के अनेक व्यक्तित्व ,अनेक सफलता की प्रतिमूर्तियाँ है ,फिर एक स्कूल के प्रिंसिपल में ऐसा क्या ख़ास? तो उत्तर ये है कि-बाकी लोगों को मैंने निकट से नहीं जाना ,ना ही उनके साथ रहा हूँ इसलिए हो सकता है विश्वासपूर्वक उनकी प्रशंसा ना कर पाऊं पर इनका जीवन मैंने खुद देखा और खुद जाना है |अस्तु ना ही मुझे जरा भी संदेह है और ना ही थोड़ी सी शंका |ऐसा नहीं कि उनमें बुराइयां नहीं थी ,किन्तु अच्छाइयों की तुलना में नगण्य |
११ वी और १२ वी की कक्षाओं में हिंदी पढ़ाते और विद्यालय के प्रधानाचार्य का पद सँभालते ,वो भी इतनी बखूबी कि आज भी मैं और मेरे से पहले के कई लोग उन्हें उनके पद के नाम से ही संबोधित करते है |सुबह -सुबह जल्दी उठ जाते ,फिर योग,प्राणायाम ,ध्यान ,स्नान करते और उसके बाद सारी ख़बरों को अन्तःस्थ करने के लिए अखबार पर एक निगाह डालते |९ बजे अपने ऑफिस जाते ,जिसमे घुसने से पहले प्रार्थना कक्ष में स्थित हनुमान जी को प्रणाम करते ,फिर दरवाजे का ताला खोलते ,अन्दर घुसते और घुसते ही सबसे पहले उनकी नज़र दीवारों ,दरवाज़ों और पर्दों के कोनों पर जाती ,ताकि यदि कहीं मकड़ी का जाला या गन्दगी हो तो उसे तुरंत साफ़ कराया जा सके |ऐसा इसलिए नहीं कि उस गन्दगी से उनकी स्वच्छता थोड़ी घट जाएगी बल्कि इसलिए कि ये एक अच्छी आदत थी और उनके अनुसार आप जहाँ भी बैठो उसके चारों तरफ सफाई करके बैठना अच्छा था|फिर पूरे दिन विद्यालय और उसके बाद अपने आवास (घर जो विद्यालय के अन्दर ही बना था )चले जाते |
सुबह सुबह प्रार्थना में रोज़ कोई ना कोई अच्छी बात बताते,शिष्टाचार सिखाते ,कुछ ऐसा जो शायद हम लोगों को आजतक बाकी स्कूलों के बच्चों से अलग बनाता है|कक्षा में पढ़ने आते ,तो हमेशा यही समझाते कि कभी "पेट के गुलाम ना बनो "|उस समय ये बात थोडा कम समझ में आती थी ,लेकिन आज जब तीसरे और 5 वें सेमेस्टर से हम लोग सब कुछ छोड़ नौकरी पाने की कोशिश में जुट जाते हैं तब लगता है कि क्यों हर बार वो आगाह करते थे इस बात से ....|हमेशा किताबी ज्ञान से हटकर कुछ अलग बताते |कोशिश करते कि हम लोग पढाई के प्रति अपना नजरिया बदले ,कभी कभी खीझते भी ये देखकर कि हम सब लोगों को कोचिंग और बाकी चीज़ों से ही फुरसत नहीं पर फिर भी ना जाने किस आशा में माली की तरह अपने ज्ञान जल से हमे सीचते रहते |खुद बहुत अच्छे कवि,लेखक ,विचारक और समीक्षक थे लेकिन उनकी प्रसिद्धि-परान्मुख ने कभी उन्हें अपने विचार छापने या बेचने को मजबूर नहीं किया| बच्चों के साथ हँसते -खेलते , हम तरुण वर्ग के लोगों के बीच होते तो हमें अपने अन्दर छिपी क्षमता का एहसास दिलाने की कोशिश करते ,कुछ और बड़े लोगों के बीच होते तो उनकी समस्याओं का हल प्रस्तुत करते और अपने आयुवर्ग में एक गंभीर चिन्तक की भूमिका निभाते |
इसलिए उनकी छाँव में रहते हुए जितना भी जिया वो अब तक का सबसे स्वर्णिम समय लगता है |गुरु क्या होता ,क्यों होता है ,और क्या करता है -ये तीनों ही बातें उनसे ही जानने को मिली |इसलिए भले ही किसी को ना लगे कि ऐसे साधारण जीवन में कोई अनोखापन या विशिष्टता हो सकती है पर जो उनके साथ रहे हैं उनके लिए वो एक प्रेरणास्रोत है ,थे और रहेंगे ......
बस वही बात है -"आग की गर्मी उतनी ही लगती है जितना कि आप उसके पास जाओ "|
इसलिए शत शत नमन उनको.......
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