वैसे तो सामान्य लोगों की भाँति मुझे भी सौभाग्य नहीं मिला उस सुखद पल का साक्षात् गवाह बनने का,जिस पल मैं खुद एक नवजात शिशु बनकर इस धरती पर आया था और कई कोमल बाहों ने अपने अतिकोमल स्पर्श से इनमें जीवन रस भरा था ,पर फिर भी एक बात विश्वास के साथ कह सकता हूँ -"आई वास बोर्न इंटेलिजेंट "(I was born intelligent)|उस नन्ही सी आयु में ,जब इन आँखों ने दुनिया देखी तक ना हो,अपनी माँ के आँचल में शांति का एहसास करना मैं अच्छी तरह से जानता था |किसकी गोद में रोना है ,किसमें हँसना ,किसमें शांत रहना ये सब महत्त्वपूर्ण निर्णय मैं खुद ही लेता |अपनों का प्यार ,पुचकार सब कुछ अनजान होते हुए भी अपनापन महसूस करा जाता था |इसलिए कह सकता हूँ कि पैदा होते ही इस जड़ जगत को चेतन मनुष्य कि भांति मैं भांप सकता था,और यही दंभ लेकर मैं धीरे धीरे बड़ा भी होता रहा |ये केवल मेरी बात नहीं ,हम, आप सब ,सारे लोग इसी श्रेणी में आते है .............
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फिर आती है स्कूल की बारी |माँ की अनौपचारिक पढाई के बाद -औपचारिकता जो पूरी करनी होती है |वहाँ जाते ही हम सब धीरे -२ नई नई बातें सीखने लगते हैं |हिंदी के 'अ ','आ ' और अंग्रेजी के 'ऐ ','बी ','सी' से शुरुआत कर ज्यामिति ,त्रिकोणमिति के कठिन सूत्रों और संस्कृत के श्लोकों को ना जाने क्या -क्या तो नहीं ठूंसा जाता इस दिमाग में !!!!!जो समझ में आ गया वो अच्छा ,जो नहीं आया उसे रट लो और कॉपी पर उतार आओ|ऐसा नहीं है की ये पारंपरिक चलन बेकार है परन्तु कहीं ना कहीं कुछ कमी तो है |
हम पढ़ते हैं ,खूब मेहनत करते हैं ,पर फिर भी सफल 'नौकर' बनते हैं ,'मालिक' नहीं |आधी जिंदगी इसी दौड़ भाग में गुज़र जाती है कि बची हुई थोड़ी जिंदगी सुकून से कैसे जी सके ??इतनी व्यस्तता हो जाती है ,कि खुद के बारे में सोचने का कभी वक़्त ही नहीं !!!इसलिए कभी अपने आप, खुद को हम बुरे लगते ही नहीं |मैं यहाँ पे कोई "थ्री इडियट्स "सरीखा भाषण ना पेश करूँगा, लेकिन गौर करिए तो कितनी गलत बात है ,कि हम लोग अपनी जिंदगी का बहुत थोडा सा भाग ही जीते हुए निकालते है?? एक अरसा बीत जाता है ये समझने में कि हमे क्या करना चाहिए ?हम किस लिए बने हैं और कभी कभी तो पूरी जिंदगी ???
कुछ अच्छे कॉलेजों में जाने के लिए मरते है तो कुछ वहाँ जाकर |कुछ जिंदगी का बोझ इसलिए ढोते रहते है कि आज तक किसी ने उन्हें ये बताया नहीं वो किसी चीज़ के मालिक बन सकते है ..........
"विद्ययामृतम अश्नुते "ऐसा कहते हैं ,लेकिन ये कैसी विद्या है जो हमे मजबूर कर देती है अपने प्राण गंवानें को|कभी अपने आप को सशक्त महसूस करते है तो डर लगता है कि कहीं कोई दूसरा इस घमंड को तार-तार ना कर दे |सर्वसम्पन्न होते हुए भी दूसरे का मुँह ताकना पड़ता है |लोग हँसना हँसाना भूल जाते हैं ये सोचकर कि इससे समय बर्बाद होगा ,किसी रोते हुए के साथ दो पल के लिए नहीं बैठते क्योंकि वक़्त बर्बाद होगा|कई ओर बिना सोचे समझे भागते हैं, फिर जब मुँह के बल गिरते हैं तो गलती का एहसास होता है , लगता है कि जैसे जिंदगी बर्बाद हो गई |फिर हताश होते हैं तो किसी गुरु या ऐसे व्यक्ति कि शरण में भागते हैं,जो मन की सारी दुविधा दूर कर दे .....पर क्या करें ये सब जीवन के महत्वपूर्ण नियम कहीं सिखाये ही नहीं जाते ....ना किसी पाठशाला ,ना किसी मदरसे में,ना ही किसी कॉलेज में |बचपन कि सारी कुशाग्रता इस बनावटी ज्ञान के आगे हार मानती सी दिखने लगती है |
इसीलिए लगता है कि उम्र के साथ खाली हमारा तजुर्बा बढता है , ज्ञान नहीं | जितने स्वछन्द हम पैदा होते है, उस पर धीरे -धीरे परत दर परत बंधन बनता जाता है,वो भी इसलिए क्योंकि हम चीज़ों को एक दायरे में रखकर समझने लगते है | ऐसा लगता है मानो मजबूर हो गए हो ,एकदम बेबस .....
ऐसे समय में बचपन का वो दंभ ही याद आता है जिसमे हम सबसे अच्छे सबसे न्यारे होते हैं,और उसी से हिम्मत मिलती है ये सोचकर कि अगर पैदा होते ही हम बुद्धिमान थे तो इतने बेबस होकर घुटने कैसे टेक सकते हैं ???और एक बार फिर जिंदगी की खोज में निकल पड़ते हैं ........
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