Monday, February 14, 2011

काँटा


‘राह  में  काँटे  बिछाना ’,’काँटे  चुभोना ’,’रास्ते  का  काँटा ’,…इत्यादि ..हिंदी  के ना  जाने  ऐसे  कितने  मुहावरे  हैं  जो  मेरे  ज़िक्र  के  गुल  से  गुलज़ार  होते  हैं ,लेकिन  नसीब  तो  देखिये ,आज  भी  मुझे  ‘गुल ’  यानी  ‘फूल ’ के  एकदम  विपरीत  समझा  जाता  है —“काँटा ” 
      सही  समझे !! मैं  वही  काँटा  हूँ , जो  तब  तुम्हारे  हाथों  में  एक  नुकीली  सुई  सा  घुस  जाता  है ,जब  तुम  मेरे  फूल  को   तोड़ने  के  इरादे  से  उस  पर  हाथ  आज़माते  हो ,वही  जिसे  तब  तुम  गाली  भी  देते  हो ,बुरा  भला  भी  कहते  हो ,वो  भी  केवल  इसलिए  क्योंकि   मैंने  अपना  काम  ईमानदारी  से  किया |वही   जो  उस  फूल  की  रखवाली  में  इस  कदर  खो  गया  की  प्यार  पाने  या  देने  का  वक़्त  ही  नहीं  मिल  पाया …..
                    
       गुलाब  को  ही  ले  लो ,तुम  सब  जानते  हो  कि  कितना  सुन्दर  ,सुगन्धयुक्त  फूल  है !!!लेकिन  अगर  बुराई  निकालने  की  बात  कर  दो ,तो  उसको  छोड़  सब  मेरे  ऊपर  चढ़  बैठते  हैं ,मेरा  ही  नाम  लेते  हैं |जब  कुछ  अच्छा   करना  होता  है  तो  उस   गुलाब  के  साथ -साथ  मुझको  तो  कभी  तोड़  के  नहीं  ले  जाते ,किसी  का  स्वागत  मुझे  बरसा  के  तो  नहीं  करते ,किसी  से  प्यार  जताना  हो  तो  मुझे  तो  भेंट  नहीं  बनाते |.फिर  क्यों   और  कैसे  मैं  हर  बुराई  का  पात्र  बन  जाता  हूँ …????
                    अजब  दस्तूर  है  इस  दुनिया  का!!! ,फूल  बनो  तो  लोग  ख़ुशी -२ अपना  लेते  हैं ,लेकिन  काँटा  बनना  भाग्य  हो  तो  किसी  को  फूटी  आँख  नहीं  सुहाती | क्यों ??अब  मुझे  ऐसा  ही  बनाया  गया  है  तो  कुछ  सोच  समझकर  ही  ना |खुद  को  इस  माहौल  में  ढालने  के  लिए  थोडा  कड़ा   रुख  अख्तियार   कर  लिया ,थोडा  सा  कठोर ,थोडा  तीखा  बन  गया  …तो  मैं  बेकार  हो  गया ????
                    
                देवी  देवताओं  की  पूजा  करनी  हो  तो  फूल  चाहिए  ,किसी  के  शव   पर  चढ़ाना  हो  तो  फूल  चाहिए ,कहीं  कोई  शुभ  कार्य  हो ,कुछ  सजाना  हो ,या  किसी  को  अपना  प्रेम  दिखाना  हो  तो  फूल  चाहिए |तो  फिर  मेरी  जगह  कहाँ  है ?????गुमनामी  में  पैदा  होना  ,अपने  जीवन  को  तिल -तिल  कर  अपने  फूल  की  रक्षा  में  स्वाहा  करना ,और  फिर  भी  ज़िल्लत  झेलकर  गुमनामी  में  ही  मर  जाना ,क्या  बस  इतना   ही  भाग्य  है  मेरा ??इतना  ही  उद्देश्य  ?इतनी  ही  जरुरत ???—शायद  नहीं |लेकिन  पता  है  ये  सब  शिकायतें  मैं  क्यों  नहीं  करता  ?क्यों  ये  सब  सदियों  से  सहता  चला  आ  रहा  हूँ  ?क्यों  हर  बार  अपने  जीवन  का  होम  कर  देता  हूँ —क्योंकि   रोते  वो  है  जो  कमजोर  होते  हैं |वो  जो  सबल  हैं ,रोते  नहीं  ,लड़ते  हैं  ,योद्धा  की  तरह  ,सहते  है-  हर  दर्द  ,हर  कठिनाई ,वो  भी  बिना  किसी  प्रशंसा  या  प्रसिद्धि  के  मोह  के |
                    रेगिस्तान  की  प्रतिकूल  जलवायु  जब  जिंदगी  की  हर  जरुरत  को  हरा  देती  है ,तब  भी  मैं  अपने  इसी  स्वरुप  के  साथ  उससे जूझता  हूँ ,लड़ता  हूँ ,खिलखिलाता  हूँ |कोई  मेरी  सेवा  ,मेहनत  का  मूल्य  समझे   ना  समझे ,मैं  अपना  कर्त्तव्य  निभाता  हूँ |इसलिए  जो  भी  हूँ  जैसा  हूँ ,जानता  हूँ  की  मेरी  अपनी  कुछ  मर्यादाएं  हैं ,कुछ  सीमाएं  हैं ,कुछ  कर्त्तव्य  हैं और  इसलिए  कुछ  कहने  की  बजाय  अपने  काम  में  मग्न  रहना  ज्यादा  पसंद  करता  हूँ |
           तो  अगली  बार  जब  भी  मेरे  पास  आना , ध्यान  रखना  कि  मैं  अपने  फूल  की  पहरेदारी  में  हूँ ,कभी  भी  चुभ  सकता  हूँ |…… 
                                            

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