……… आज बहुत दिनों बाद इस ओर टहलने निकला | सागर तट पर यही कोई 8-10 बच्चे ‘फुटबाल जैसा ’ कुछ खेल रहे थे |”फुटबाल -जैसा” इसलिए क्योंकि गेंद तो फुटबाल वाली ही थी लेकिन जो लड़कपन ,जो मस्ती उनके खेल में थी ..उसे फुटबाल के नियमों कि सीमा में बाँधना बेईमानी होगी | सड़क पर नारियल पानी ,गोलगप्पे और तरह-2 की चीजों के ठेले अपनी महफ़िल सजाए हुए थे ..|सब अपनी- अपनी राग में ,अपने –अपने ढंग से व्यस्त ….
कुछ ज्यादा तो नहीं ,लेकिन अभी भी कुछ धुंधली सी यादें बाकी हैं इस मन में ,जब छोटे में मैं अपने बाबा के साथ इन्ही किनारों पर टहलने आया करता था |बाबा एक हाथ में अपनी घूमी हुई मुठिया वाली लाठी लिए और दूसरे हाथ में मेरी नन्ही कोमल उंगलियाँ थामे हुए |…पता नहीं मैं बाबा को सहारा देता था या बाबा मुझको आश्रय ?,पर जो भी था घूमने का मज़ा दोनों उठाते थे |तब बाकी दुनिया से इतर मेरा ध्यान उन उठती -गिरती लहरों पर ही रहता ,जिनकी वो स्वाभाविक गति किसी भी बाल-मन को स्वतः ही आकर्षित करने में समर्थ थी ….|मैं हैरान लेकिन प्रसन्न बाबा से सिर्फ यही पूछता ..कि" क्या मिलता होगा इन सबको इतनी हलचल करके ,क्या फायदा इतनी मेहनत का …?????????” और उत्तर में बाबा बस एक ही बात बोलते –“जब बड़े होगे तब समझ जाओगे |” खीझकर दोबारा मैं कुछ न पूंछता और गुस्से से उन्हें ही घूरने लगता ,(ये सोचकर कि अपने आप को पता नहीं कि कितना बड़ा समझते हैं !!!!..और बाबा पता नहीं क्यों मेरी ये हरकत देखकर बस मुस्कुरा देते और आगे बढ जाते …)पर बाद में जब बाबा नारियल पानी पिला देते तो मैं ये सब भूल जाता …(बच्चे शायद इसीलिए मन के सच्चे होते हैं )
आज वही बातें आँखों के सामने एक बार फिर नाच रही है |10 साल बीत गए ,सागर की लहरों की गति आज भी वैसी ही है ,”कभी गिरती कभी उठती ”…लेकिन मैं वक़्त के साँचे में ढलते -2 काफी बदल गया हूँ |अब वो बालसुलभ जिज्ञासा स्वाभाव का हिस्सा नहीं रही |उस समय जो मन नारियल पानी के छोटे से मोह के आगे घुटने टेक देता था ,आज उसे भी नई ऊँचाइयों को छूने की ललक सवार हो गई है |अब ज़िन्दगी बंधी-बंधी सी लगने लगी है ,जैसे कोई जकड़े हो ,कोई रोकता हो …….
मन को कुछ नहीं सूझता |मैं थका हुआ सा,थोडा आगे जाकर बैठ जाता हूँ एक पत्थर पर ,अपनी आँखें बंद करता हूँ और महसूस करने लगता हूँ उन लहरों के मनचले प्रवाह को ..|कोशिश करता हूँ कि शायद मुझे अपने प्रश्न का जवाब मिल जाए …
क्या नहीं इस सागर के पास ..?इतना निस्सीम पानी ,कि जिधर नज़र फिराओ उधर ही क्षितिज नज़र आता है ,अबाध वेग ,अतल गहराई ,अपरिमित शक्ति और ना जाने कितना सारा जीवन भरा है इसके अन्दर …लेकिन फिर भी इसकी लहरें बार -2 कभी किनारे को चूमने की कोशिश में लगी रहती है तो कभी चाँद को बाहों में भरने के लिए ललकती हैं ….?????
लेकिन धीरे -2 मैं जैसे ही अपनी तुलना इस सागर और उनकी लहरों से करना शुरू करता हूँ तो सब कुछ ओस की बूँद की तरह साफ़ दिखने लगता है ..क्या कमी है मेरे अन्दर भी ..?? ज़िन्दगी के साथ उसके ही बहाव में बह रहा हूँ ,एक निश्चित वेग है (बस दिशा का गुमान नहीं )सागर से ज्यादा गहरा मन है ,और ना जाने कितना जीवन अभी अन्दर बाकी पड़ा है जो जीना चाहता है …|सतह से ज्यादा हलचल मन की गहराई में है क्योंकि उसने भी कई अधूरे सपने पाल रखें है ,….फिर भी किनारे की तलाश है और इसी पशोपेश में हर बार कोई लहर उठती है जो मन को मंजिलों के किनारे की ओर धकेलती है |
अपने अभीप्सित को पाने का ज्वार मेरे मन में भी उठता है ,और मैं भी अपनी असलियत छोड़ सतह से ऊपर उठने लगता हूँ ..पर फिर सपने टूटते हैं और एक और लहर गिर जाती है …|कुछ देर तो ऐसा लगता है की मानो मैं और ये सागर समरूप हो ….कितना कुछ भी हो दोनों के पास, ,लेकिन दोनों को असली ख़ुशी अपनी लहरों की मौज में ही आती है ,असली आनंद इस तरह उठने और गिरने में ही मिलता है …
और इसलिए खुद को भरोसा भी है किसी न किसी दिन तो मंजिल के किनारे को छू ही लूँगा …………..|
लगता है कि शायद यही जवाब था मेरे प्रश्न का....................................!!!!!!!!!!!!!!!!!
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क्या बात है ? दीन दयाल की विरासत आज भी अक्षुण है|पढ़ के मजा आ गया |
ReplyDeleteits really nice yaar............sach hi hai, ye kala to hm sbko virasat me mili h...... :D
ReplyDelete@ranvijay....thnx bhai.....
ReplyDelete@mayank.....truely yaar,...we just hv to think n hold d pen ..