Tuesday, January 10, 2012

एक दरिया से पूँछा

एक दरिया से पूँछा मैंने,क्यों इतनी हलचल करते हो...
सबको तो जिन्दा दिखते हो,पर अन्दर अन्दर मरते हो...
साहिल पाना भी चाहते हो,खोने का भी डर लगता है 
बस इस सच से क्यों डर डर के इकरार नही तुम करते हो..???
तेरी प्यासी प्यासी लहरें,कितनी दीवानी, देखा है..
पर बीच में एक पतली सी ही, तकदीर की शायद रेखा है..
जो पागलपन को जाने भी ,बाँधे फिर भी हर चाहत को..
जो हर कोशिश को समझाती ,किसी और का ये तो लेखा है|| 


                                            
पागल गुमसुम सा रहने से ,कब होती है ख्वाहिश पूरी..
चुपचाप हिलोरें लेने से ,भी क्या कम होती है दूरी..??
घुट घुट कर जीने से अच्छा जाओ चूमो उस साहिल को
एक लम्हा साथ बिता लेना और जी लेना साँसें पूरी...||
तो फिर जो बोला वो दरिया ,वो बात कहानी है उसकी..
शायद उसकी इस आदत से दीवानी दुनिया है उसकी..
वो कहता मै कैसे कह दूँ ,मेरी भी कुछ अंदाज़ तो है..
कोई समझे या ना समझे पर ,मेरी धड़कन का साज़ तो है ||

कोई फर्क नही पड़ता मुझको,कुछ खोने से कुछ पाने से..
है जीना ही बस काम मेरा ,रोजाना नये बहाने से...
मुझसे ही तो सीखा सबने ,सबको अपना सा कर लेना..
फिर क्यूँ मैं खुद पे पछताऊं ,अपना अंदाज़ निभाने से.. 
मेरी हिम्मत मेरी चाहत,हो कुछ भी ,नही गुलामी है..
मेरा रोना खुद मेरे दरिया होने की बदनामी है...
साहिल रूठा तो क्या दिक्कत ,अपना है ,इतना चलता है,
है मुझको तो मालूम ,ये गुस्सा भी उसकी एक हामी है... ||
मेरा पागलपन मेरा है,उसपर सबका अधिकार नहीं..
मेरा सपना मेरी जिद है,मेरी धड़कन की हार नहीं..
मेरा साहिल से रिश्ता जो,जैसा अब है वैसा हरदम..
है आज नया तो कल रद्दी दिखने वाला अखबार नहीं..|

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