Friday, February 3, 2012

अपनी ही ख़ामोशी से मात खाता रहा हूँ मैं
इससे बेहतर हारने का शायद कोई तरीका ही नहीं...
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वो पागल है जो उस पार होकर मुझपे हँसता है
यूं डूबकर पार होना शायद उसने सीखा ही नहीं
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आईने में हर बार खुश ही लगता हूँ मैं
शायद उसे सच बताने का सलीका ही नहीं
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वो अपनी अर्थी में जल जल के जीता रहा
कैसा सूरज था, जो मदद को चीखा ही नहीं
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ये दुआ भरा दिल भी इबादत का एक ढंग है ,
सिर्फ नमाज़ या माथे पे लगा टीका ही नहीं...
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मैं हार मान कर खुद को कोसता हूँ क्यों
वो भी तो अब तलक मुझसे जीता ही नहीं

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